हिन्दी के महाप्राण कवियों की परंपरा में कवि त्रिलोचन उन्नतप्राण कवि कहे जाएँगे। किसान परिवार में जन्मे श्री वासुदेव सिंह कवि के रूप में त्रिलोचन के नाम से प्रसिद्ध हुए और उपाधि से शास्त्री कहलाए। वे युवतम कवियों के बीच जीवन भर खूब फबते रहे। उनकी ध्यान मग्न और सादगीपूर्ण उपस्थिति हम सबको उनके प्रति श्रद्धा से भरती रही। उनके समीप जाना घने बरगद की छाँव में बैठने जैसा था।
कविवर त्रिलोचन भाषाओं की परियोजनाओं के कुशल इंजीनियर भी रहे हैं। कभी पत्रिकाओं और कभी भाषा कोशों के सम्पादक, कभी अध्यापक और अक्सर यायावर त्रिलोचनजी को धन की परवाह उतनी कभी नही रही, जितनी जन की। जो उनसे खुलकर मिला, वे उसके वशवर्ती हो गए। उनके प्राणों का शतदल सदा ऐसे ही खिलता रहा।
त्रिलोचनजी को भावतिरेक और व्यर्थ की आंदोलनबाजी कभी रास नहीं आई। यही कारण है कि वे राजनीति से प्रेरित किसी साहित्यिक आंदोलन के केंद्र में नहीं रहे। उन्होंने तो पुरातन ज्ञान आलोक और काव्य परंपरासम्मत ध्वनि प्रवाह में अपना मार्ग स्वयं खोजा। उन्नतप्राण त्रिलोचन की आँखों में सदा महाकवि त्रिपाठी 'निराला' बसे रहे। निराला की आँखों में महाकवि तुलसीदास। तुलसीदास की आँखों में राम की छवि बसी रही। यही वही दृष्टि पथ है, जिस पर चलकर कवि त्रिलोचन अपनी कविता की राह बनाते रहे।
त्रिलोचनजी की कविता उस पीपल के वृक्ष की तरह है, जिसकी फुनगी पर कोई धूप बहुत पहले आई थी और जिसकी दैदीप्यमानता हमारे जीवन पर उतरकर झलकती है। वह हरित कणों को हुलसाती, हमारे शैथिल्य को हरती और ज्योति का अंजन बनकर हमारी आँखों में समा गई है।
परिस्थितियों ने त्रिलोचनजी को खूब पीसा, पर उन्होंने मनुष्य के तन और मन को नापने के मानदंड कभी छोटे नहीं किए। वे मनुष्य की 'माया' पर मुग्ध कवि थे, 'हिस्ट्री' पर मुग्ध कवि नहीं। वे अच्छी तरह जानते थे कि हिस्ट्री में कवि के सत्याग्रह और उसकी सविनय अवज्ञा को जगह नहीं मिलती। त्रिलोचनजी आर्थिक रूप से भले ही विपन्न रहे हों, पर उनकी कविता भारतीय परंपरा सम्मत काव्य विवेक से इतनी समृद्ध रही कि उसे किसी मतवाद के साँचे में ढालना हमेशा मुश्किल रहा।
कविवर त्रिलोचन हिन्दी में सॉनेट के रचियता के रूप में ही अधिकजाने गए हैं। उन्होंने बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में इतने रचे कि इतने तो शेक्सपियर, स्पेंसर और मिल्टन ने भी नहीं रचे। सॉनेट इतालवी आभिजात्य के वातावरण में रची गई नागर काव्य रचना है, जिसे अँगरेजी के उच्च कोटि के कवियों ने अपनाया।
त्रिलोचनजी ने सॉनेट को हिन्दी के चौबीस मात्रिक रोला छंद में ढालकर उस भाव, विचार, कथा, चरित्र चित्रण और भारतीय दर्शन की भूमियों पर खड़ा किया। सिर्फ गोचर नहीं, अगोचर भावरूपों की छाया भी वहाँ दृश्यमान हो उठी, जिसमें सबकी बोली-ठोली, लाग-लपेट, भाषा, मुहावरा, आचरण और भोली-भूली इच्छाएँ सब समाहित हैं।
उन्होंने सिर्फ सॉनेट ही नहीं रचे, गीत, बरवै, चतुष्पदियाँ और कुछ कुंडलियाँ भी रची। उनकी छंद ही अनेक लघु और दीर्घ कविताओं ने हिन्दी को समृद्ध किया। कहानी और आलोचना की विधाओं को भी उनका स्पर्श मिला। त्रिलोचनजी की कविता का स्वर सदा गाँव में रहने वाली जनता के मानसिक धरातल से ही आता रहा। वे तुलसीदास से भाषा सीखकर चौपाई छंद को भी अपनाते रहे। वे सिर्फ तुलसीदास ही नहीं, उद्भट महाकवि कालिदास के प्रति भी कृतज्ञ रहे हैं। त्रिलोचन के आलोचकों के मत में वे स्मृति, मति और प्रज्ञा-तीनों का एक साथ उपयोग करने वाले विरल कवियों मे से एक थे।
उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु की इच्छा त्रिलोचन जैसा कवि होने की रही। कवि शमशेर बहादुर सिंह तो त्रिलोचन की फकीरी पर सदा मुग्ध रहे। रेणु ने त्रिलोचनजी के कुछ सॉनेट्स को साखी, सबद और रमैनी की कोटि का भी माना। त्रिलोचनजी की कविता उस पीपल के वृक्ष की तरह है, जिसकी फुनगी पर कोई धूप बहुत पहले आई थी और जिसकी दैदीप्यमानता हमारे जीवन पर उतरकर झलकती है। वह हरित कणों को हुलसाती, हमारे शैथिल्य को हरती और ज्योति का अंजन बनकर हमारी आँखों में समा गई है।
सागर के मुक्तिबोध सृजन पीठ परअनेक वर्षों तक त्रिलोचनजी अध्यक्ष पद को सुशोभित करते रहे। वे भोपाल में भी बिलमते रहे। वे ऐसे चलते-फिरते स्मृतिकोश की तरह थे, जिनसे मैंने बहुत सीखा। उनकी 'संचयिता' का संपादन करने का सुअवसर भी मुझे मिला। अभी ही उनकी मृत्यु के पंद्रह दिन पहले उनसे दिल्ली में मिल आया था। मेरे साथ कवि-पत्रकार मित्र महेंद्र गगन भी थे। उनकी आँखों को देखकर लगा कि कहीं बढ़ती उमर के कारण वे मुझे भूल तो नहीं गए। मैंने कहा- मैं ध्रुव शुक्ल हूँ। यह सुनकर वे उसी चिर-परिचित अंदाज में मुस्कराए और बोले- 'दावा क्यों कर रहे हैं, मान लिया कि आप ही ध्रुव शुक्ल हैं।'
उनमें अद्भुत विट था- आइरनी के साथ एक गहरा व्यंग्य। वे चुटकी लेने में कभी नहीं चूकते थे, उस दिन भी नहीं चूके। वे हमें हँसाकर इस दुनिया से गए। त्रिलोचनजी के मन को परखता हूँ तो वह प्रेमचंद के 'गोदान' उपन्यास के नायक होरी के मन जैसा लगता है। होरीव्यथित होकर गाता है- 'हिया जरत रहत दिन रैन। आम की डरिया कोयल बोले, तनिक आवत चैन ही रामा, जरत रहत दिन रैन।' उनका मन मिट्टी की उस 'उदासिनी प्रतिभा' की तरह भर लगता है, जिसे कवि सुमित्रानंदन पंत ग्रामवासिनी भारतमाता के रूप में रचते हैं।