पात्र मुझे अर्जीनवीस से ज्यादा नहीं समझते

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वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.सतीश दुबे 1960 से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। हाल ही में इनके उपन्यास 'डेरा-बस्ती का सफरनामा' पर केंद्रित फिल्म 'भुनसारा' प्रदर्शित हुई है। श्री दुबे का भील आदिवासियों पर केंद्रित उपन्यास 'कुर्राटी' भी काफी चर्चित रहा है। इसके अलावा 5 कहानी संग्रह, 5 लघुकथा संग्रह, 2हाइकु संग्रह, 1 पत्र संग्रह, प्रौढ-नवसाक्षरों तथा बच्चों के लिए 8 कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। चलिए स्वयं लेखक से जानते हैं क्या है उनकी रचना प्रक्रिया

टेबल, कागज, कलम ही नहीं लेखकीय सोच का जीवन जीने के कारण प्रकारांतर से लेखन से मेरा तालमेल हमेशा बना रहा है। समय के घटनाक्रम से गुजरते हुए वे पात्र, परिवेश और प्रसंग बीज रूप में मन में पैठ जाते हैं। जो सामान्य से इतर होते हैं। ये बीज गहन चिंतन मंथन के बाद की लेखकीय प्रक्रिया का हिस्सा बनकर साहित्यिक कृति की शक्ल ग्रहण करते हैं।

मेरे लेखन के केंद्र में मनुष्य होता है। मेरा यह मानना है कि मनुष्य केवल इसलिए मनुष्य नहीं है कि उसकी मज्जा में 'देवगुण' मौजूद हैं, जो उसे मनुष्य बनाते हैं। मनुष्य जीवन भी विद्रूपता, असमानता, शोषण या सहजात-कोमल प्रवृत्तियाँ भी विषय-वस्तु के विकास का आधार बनती हैं। वैचारिक सिद्धांत या सोच विशेष की कूपमंडूकता से अलहदा स्वतंत्र चिंतन की वजह से विषय-वस्तु को बहुआयामी फलक मिले यह मेरी कोशिश रहती है।

तय है कि मैं किसी विधा विशेष की बागड़-बंदी में विश्वास नहीं करता। बावजूद इसके आत्मविश्वासी अभिव्यक्ति के लिए अंतर्वस्तु के अनुरूप लघुकथा, कहानी और उपन्यास के कैनवास पर अक्षरों के चित्र अंकित करने में मेरा मन रमता है। मेरा यह अनुभव है कि जब किसी कथ्य को आधार बनाकर मैं लिखना प्रारंभ करता हूँ तब कथ्य मेरी नहीं पात्र की इच्छा से जु़ड़ जाता है।... और पात्र अपने तानाशाही प्रभाव के तहत मुझे अर्जीनवीस के अलावा कुछ नहीं समझते।

मेरा अजीब किस्म का अनुभव यह है कि व्यक्तिगत कारणों से दिन-महीनों के अंतराल से लिखने की मनःस्थिति बनाता हूँ तो मस्तिष्क में डेरा डालकर बैठे कथ्य प्राथमिकता के लिए नारेबाजी करने लगते हैं। जाहिर है, इस मनुहार का निर्वाह करने के लिए मेरे लिए सावधानी बरतना जरूरी हो जाता है। कहीं ऐसा न हो कि कथ्य-पात्र के सुख-दुःख या स्थिति का चित्रण मैं ठीक से नहीं कर पाऊँ, कहीं कुछ बिखर जाए और पात्र यह कहे कि इसी बूते पर बनते हो कथा-लेखक!

इसलिए जब तक रचना मेरी टेबल पर होती है मैं बतौर लेखक, समीक्षक, पाठक उसमें रच-बस जाता हूँ। संपूर्ण आकार मिलने की प्रक्रिया तक का पूरा समय रचना को समर्पित होता है शब्दों से तराशने, तो कभी उस पर चिंतन करने के रूप में। कोशिश यह रहती है कि पाठक से रूबरू होने पर रचना स्वयं सामना या संवाद करे।

अपने लेखकीय जीवन के पचास वर्षों के दौरान लेखक होने का महत्वाकांक्षी भूत मुझ पर सवार नहीं हो पाया। खाँचों-साँचों की जिंदगी से दूर रहकर अक्षर ब्रह्म की आराधना करते हुए जितना जैसा भी लिखा, मुझे खुशी है उसे विशेष पहचान और आत्मीयता मिली है।

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