कुछ ‍अविस्मरणीय क्षण महादेवीजी के साथ

- डॉ. शकुंतला सिन्हा
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यह मेरा सौभाग्य है कि 1984 में मुझे आधुनिक युग की महान कवयित्री श्रीमती महादेवी वर्मा से मिलने का सुअवसर प्राप्त हुआ। मेरे दिल और दिमाग पर उनके साथ की छाप तो तभी से थी जब मैं सागर विश्वविद्यालय में पढ़ती थी।

जब उनकी काव्य रचनाएँ 'दीपशिखा' और 'यामा' पढ़ी, तब तो उनके काव्य के माधुर्य में रचे-बसे गूढ़ दार्शनिक भाव ने तथा काव्यानुरूप चित्रण ने मुझे अत्यंत प्रभावित किया। पर कभी उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था। वे एक बार ओल्ड जीडीसी आई भी थीं, पर तब तक मैं ग्वालियर जा चुकी थी।

1984 में मेरी सहयोगी डॉ. रेणु भरकतिया ने एक दिन मुझसे पूछा, उनके श्वसुर श्री चंदनसिंह भरकतिया के स्मृति समारोह के आयोजन में किसे बुलाया जाए? मेरे मुँह से तत्काल निकला - 'आप महादेवी वर्मा को क्यों नहीं बुलातीं?' यह शायद मेरी अदम्य इच्छा ही थी कि मेरे मुँह से तत्काल उनका नाम निकला। मेरे प्रस्ताव को श्रीमती भरकतिया ने सहर्ष स्वीकार किया और महादेवीजी को आमंत्रित कर लिया।
  श्रीमती महादेवी वर्मा की काव्य रचनाएँ 'दीपशिखा' और 'यामा' पढ़ी, तब तो उनके काव्य के माधुर्य में रचे-बसे गूढ़ दार्शनिक भाव ने मुझे अत्यंत प्रभावित किया। पर कभी उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था।      


14 फरवरी 1984 की बात है। वैसे महादेवीजी मध्‍यप्रदेश सरकार की 'शासकीय मेहमान' भी थीं। रवींद्र नाट्‍यगृह में कार्यक्रम के उपरांत श्रीमती भरकतिया के यहाँ रात्रि भोज का आयोजन था। उस समय मैं उनके साथ डेढ़-दो घंटे थी। उनका कद छोटा और कवित्व बड़ा था।

मुझे उनसे मिलकर अपार खुशी हुई। मैंने उनके ऊपर लिखी मेरी एक कविता अर्पित की। उस पर उन्होंने स्वेच्छा से काव्य की कुछ पंक्तियाँ सुनाईं जो मैंने लिपिबद्ध की और उनके हस्ताक्षर लिए। अच्छा हुआ मैं अपनी कविता की दो प्रतियाँ ले गई थीं। एक उन्हें अर्पित की और दूसरी पर उनकी कविता अंकित हो गई। जो मेरे लिए अमूल्य निधि है।

बातों के सिलसिले में किसी ने कहा कि आपको कुछ दिन पूर्व ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है। इस पर उनकी प्रतिक्रिया व्यथित कर देने वाली थी। उन्होंने कहा 'अब किसी को पुरस्कार देना होगा और मुझे छोड़कर दे नहीं सकते थे। इसलिए दिया। अब क्या फायदा। कुछ वर्ष पहले देते, तो 'निराला (पं. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला) के काम आता।'

आगे उन्होंने बताया कि कैसे निरालाजी आर्थिक तंगी से जूझ रहे थे। वे महादेवीजी से 'राखी' बँधवाते थे, इसलिए प्रतिवर्ष 'राखी' बँधवाने महादेवीजी के घर अवश्य आते थे पर उनके पास रिक्शे के पैसे भी नहीं होते थे, जो महादेवीजी देती थीं। व्यथित मन से महादेवीजी ने कहा - 'जब निराला नहीं रहे तो उनकी टूटी-सी पेटी में गीता, एक कलम और एक डायरी मिली।

तथा कुछ टूटे-फूटे सामान के सिवाय कुछ भी नहीं था।' यह थी उस कहान कवि की कुल पूँजी। आधुनिक युग के हिन्दी साहित्य के स्वाभिमानी महान कवि के बारे में सुनकर हम सब स्तब्ध एवं दुखी हो गए। महादेवीजी के गले में उस समय कुछ तकलीफ थी, फिर भी वे धीरे-धीरे वार्तालाप कर रही थीं।

महादेवीजी से विदा लेने की इच्छा नहीं हो रही थी। फिर भी रात अधिक हो रही थी इसलिए मुझे इस मुलाकात को विराम देना पड़ा। पर अपनी प्रिय कवयित्री के साथ बिताए अमूल्य क्षण आज भी मेरी स्मृति में ज्यों-के-त्यों संरक्षित हैं। मैं सोचती हूँ कि जब महादेवीजी के माता-पिता ने उनका नाम 'महादेवी' रखा होगा, तब उन्हें क्या मालूम था कि उनकी बेटी 'यथा नाम तथा गुण' के अनुरूप एक दिन आधुनिक युग के हिन्दी साहित्य की महादेवी सिद्ध होंगी। उनकी स्मृति को मैं अपने श्रद्धासुमन अर्पित करती हूँ।

महादेवीजी के द्वारा सुनाई गई कविता उनके हस्ताक्षर सहित प्रस्तुत है :

दुख आया अतिथि द्वार
लौटा न दो।
नमन का नदि उर परि
लौटा न दो
स्वप्न का क्षार भी पु‍तलियों में भरा
दृश्य निज्वार है आज
मरू की धरा
दुख लाया अमृत-सिन्धु से खोजकर
ये घटा स्नेह सौगात, लौटा न दो।