त्रिलोचन के बहाने

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- श्याम सखा 'श्याम'

लोककथा है कि औरंगजेब संगीत को नापसंद करता था। उसी तरह एक नवाब साहित्य से घृणा करता था। साहित्यकार उसके महल के सामने से पुस्तकों का जनाजा निकाल रहे थे तो नवाब ने कहा - इसे इतना गहरा दफनाओ कि सदियों तक बाहर न आ सके।

यह सुनकर उसके पौत्र जो नवाब के पास खड़ा था, पूछा 'दादा- आपने ऐसा क्यों कहा? 'तो नवाब का जवाब था- बेटा इस जनाजे के साथ जो लोग जा रहे हैं वे 'अदीब' नहीं हैं। वे तो चापलूस कलमकार हैं जो बादशाह-नवाबों की खातिर झूठे कसीदे (प्रशंसात्मक काव्य) लिखकर पैसा तथा रुतबा कमाते हैं। सच्चे अदीब किसी की परवाह नहीं करते। वे तो कला के प्रति समर्पित होते हैं।

वाकई एक बदनाम नवाब ने पते की बात कही थी। कबीर, तुलसी, रैदास को किस राजा, शहंशाह की चिंता थी। नजीर-अकबराबादी या देवेंद्र सत्यार्थी ने कब कौन सा पुरस्कार चाहा था, किन आलोचकों के नकारे जाने के बावजूद प्रेमचंद, चंद्रधर शर्मा गु लेरी या देवकीनंदन खत्री को या उनकी लोकप्रियता को आँच पहुँची।

मैं यह सब क्यों कह, लिख रहा हूँ, इसलिए कि पिछले कुछ दिनों से अखबारों तथा छोटी-बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं, रेडियो, टीवी पर कवि त्रिलोचन के देहांत की खबर जिस जोर-शोर से उठी, वह मुझे काफी भयभीत एवं उदास कर गई। कारण था कि साहित्य-प्रेमी तथा छोटा-मोटा लेखक (3 उपन्यास, 4 कविता-संग्रह, 3 कहानी-संग्रह, एक दोहा, एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित होने) तथा हिन्दी, पंजाबी, अँग्रेजी तथा हिन्दी व अँग्रेजी अनुवाद के माध्यम से फ्रेंच, लातिन, अमेरिकी, रूसी, बंगला, तमिल, उड़िया, तेलुगु साहित्य की लगभग 3-4 हजार से अधिक पुस्तकें व सारिका, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान से लेकर कादम्बिनी, नवनीत, पहल, ज्ञानोदय, वागर्थ, लफ्ज़ अनेक पत्रिकाओं को पढ़ने के बावजूद मैंने त्रिलोचन को नहीं पढ़ा और एक साल पहले उनकी आर्थिक दुर्दशा बिगड़ते स्वास्थ्‍य की खबरें यदा-कदा पढ़ीं तो उत्सुकता हुई, पर उनकी रचनाएँ उपलब्ध न हुईं। न ही तब किसी पत्रिका ने उनकी रचनाएँ प्रकाशित कीं। तभी अचानक वे चल बसे।
  त्रिलोचन एक सहज, सरल व ईमानदार व्यक्ति एवं लेखक थे। उन्होंने ग़ज़ल, सानेट, गीत, कविता, आलोचना एवं उपयोगी शब्दकोषों की रचना विषम परिस्थितियों को झेलते हुए की। ऐसा कर पाना असाधारण विद्वता का प्रतीक नहीं, तो और क्या है?      


उनकी मृत्यु के फ्‍लू ने, बर्ड फ्लू की तरह आलोचकों, संपादकों तथा स्वनामधन्य बड़े लेखकों को अपनी चपेट में ले लिया। फ्लू क्यों? मैं पेशे से चिकित्सक हूँ तथा निदान-लक्षण के आधार पर करता हूँ। अत: मैं पूरे होशोहवास से कह सकता हूँ कि उपर्युक्त श्रेणी के लोगों को त्रिलोचन-फ्लू नामक बीमारी हुई है क्योंकि लगभग 30 पत्रिका तथा हर अखबार में हर किसी आलोचक, लेखक या संपादक ने त्रिलोचन के निधन का समाचार देते हुए उन्हें जनपदीय कवि, जनवादी कवि कहकर घड़ियाली आँसू बहाए हैं तथा 2-3 पत्रिकाओं को छोड़कर शेष ने उनकी तेरह पंक्ति की एक कविता उद्धृत की। जिसकी प्रथम पंक्ति -
उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा-दूखा है।

तेरहवीं व अंतिम पंक्ति है-
सुन-पढ़कर जपता है नारायण-नारायण।

सानेट इसलिए नहीं कह रहा क्योंकि अधिकांश पत्रिकाओं से इस सानेट की यह पंक्ति गायब है। 'चला जा रहा है वह अपने आँसू बोता।' ऐसा क्यों हुआ, किस अज्ञानवश हुआ या कहीं उठाई और बिना देखे-पढ़े कविता लगा दी। सोचने का विषय है।

यह सब सुन-पढ़कर मुझे लग रहा है कि वे जनपदीय जनवादी कवि थे जनकवि नहीं, क्यों जनकवि की कविता तो जन-जन की जुबान पर होती है तथा जनवाद हमारे इस विचित्र जातिप्रधान देश की एक नव जाति है। इस देश में तो दलित हिन्दू धर्म छोड़कर तथा कथित जातिविहीन धर्म अपनाकर (मुसलमान, सिख या ईसाई बनकर भी) दलित ही रहता है तथा उनके विवाह भी दलित ईसाई, मज़हबी सिख या दलित मुसलमानों में ही संभव हैं। और अब तो वे दलित होने के आधार पर आरक्षण भी माँग रहे हैं। जनवादी बिना आरक्षण माँगे ही न केवल आरक्षण का सुख, पद, सम्मान, भारी-भरकम इनाम राशि ले रहे हैं तथा साहित्य को आमजन से दूर ले जा रहे हैं।

उनके लिए छंद कविता यहाँ तक मुक्तछंद कविता (छंदमुक्त नहीं) भी साहित्यिक अछूत रचना है। वे जिसे साहित्य कहें, मानें केवल वही साहित्य है। वे तसलीमा नसरीन के लिए लड़ सकते हैं, हुसैन के साथ खड़े हो सकते हैं, परंतु विष्णु प्रभाकर के मकान पर जबरन कब्जे के विरोध में आवाज उठाना उनके लिए अधार्मिक जनवादी कार्य हो जाता है।

कुछ-कुछ क्या सभी जनवादी या प्रगतिशील संघ से जुड़े लोग (कवि, लेखक कहने में मुझे सख्त एतराज है) आगबबूला होकर फतवा जारी कर सकते हैं कि मैं न लेखक हूँ, न पाठक हूँ और इस तरह मेरे लेखन की हत्या कर सकते हैं, पर मैं इसके लिए तैयार हूँ।

मेरे लिए किसी साहित्यिक पठनीय पुस्तक का प्रकाशन जितनी खुशी का विषय है-चाहे वह कैसी हो (पीत साहित्य छोड़कर) वैसे ही किसी भी लेखक रचनाकार की मृत्यु मेरे भीतर एक शून्य पैदा कर देती है। मैं उदास हो जाता हूँ। त्रिलोचन की मृत्यु से मैं वाकई गमगीन हुआ। मगर साहित्य के इन दोगलों के त्रिलोचन की मृत्यु पर घड़ियाली आँसू बहाने से मुझे आक्रोश हुआ। क्यों? क्योंकि इनमें से अनेक सामर्थ्यवान हैं। उनमें से कोई आगे नहीं आया अस्वस्थ त्रिलोचन की सहायता को। अब टीवी इंटरव्यू के पैसे लेने हेतु शोक जताने को तत्पर हो गए।

मैंने कुछ लोगों से जिन्होंने त्रिलोचन की मृत्यु पर आलेख लिखे। टीवी-रेडियो पर संवेदना प्रकट की। फोन पर बात की है। एक-आध को छोड़कर लगभग अधिकांश ने त्रिलोचन को तो पढ़ा ही नहीं। एक-आध रचना छोड़ दें तो उन्हें कवि तो किसी ने नहीं माना। यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि डॉ. साहिब, त्रिलोचन मर गए, मरे हुए की प्रशंसा करना इस देश की परंपरा है बस।

इस पर मुझे एक ग्रामीण हास्य याद आ रहा है। एक बहुत बदनाम व्यक्ति के मर जाने के बाद उसे दफनाने ले गए। अब प्रथा है कि कब्र में उतारने से पहले दिवंगत की याद में कुछ प्रशंसात्मक शब्द कहे जाएँ, पर वह व्यक्ति इतना बदनाम था कि उसकी बड़ाई करने वाला भी बदनाम हो जाता। आखिर एक बुजुर्ग ने शरमा-शरमी रस्म निभाई। कहा- दिवंगत भला तथा ईमानदार व्यक्ति था, अपने दिवंगत भाई के मुकाबले में। तो क्या ये आलोचक, संपादक, लेखक मात्र इस आशा से त्रिलोचन के पीछे उसकी तारीफ कर रहे हैं, कि जब वे मरें तो उन्हें जनकवि कहा जाए, उनकी प्रशंसा की जाए। फिर तो नवाब की कहानी के अनुसार साहित्य को वाकई गहरे दफना ही दिया जाना चाहिए-बहुत गहरे।

- साभार मसि कागद

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