-रामशरण जोशी श्रीलाल शुक्ल और राग दरबारी दोनों को एक-दूसरे का पर्याय कहा जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। राग दरबारी करीब पैंतीस-चालीस वर्ष पूर्व पढ़ा था। मैं तब कॉलेज का छात्र रहा होऊँगा। गंवई पृष्ठभूमि से होने के बावजूद मैं इससे तकरीबन अपरिचित ही था कि आधुनिक शासन की कार्यशैली ग्रामीण भारत में किस प्रकार के गुल खिला रही है। हम विद्यार्थी लोग तो यही सोचा करते थे कि नेहरूयुगीन समाजवादी भारत में सब कुछ हरा-ही-हरा है। पंचवर्षीय योजनाएँ शुरू हो चुकी थीं, गोदान व ग्रामदान आंदोलनों का उभार रह चुका था, भूमि सुधारों की गूँज थी, पंचायती राज की भी आवाजें उठ चुकी थीं, 'प्रखंड विकास की बहुआयामी यात्राओं का गाँवों में खूब शोर था। मुझे याद है मेरे चचेरे भाई प्रखंड विकास पदाधिकारी (बी.डी.ओ.) हुआ करते थे। उन दिनों ऐसे अफसरों को सम्मान की नजर से देखा जाता था। गाँव वालों के लिए बी.डी.ओ. को मसीहा के रूप में भी देखा गया, माना गया कि वे जनकल्याण के नए अवतार हैं।
सच पूछा जाए तो हम लोग गाँवों के प्रति एक तरह से 'रोमांटिक नजरिया' रखा करते थे। इसकी काफी कुछ वजह उस जमाने में बनने वाली फिल्मों (दो बीघा जमीन, मदर इंडिया, नया दौर आदि) का भी प्रभाव हम लोगों पर था। कुछ फिल्मों को छोड़ दें तो ज्यादातर फिल्मों में गाँवों को स्वर्ग रूप में चित्रित किया जाता था। गाँवों की गोरी, पनिहारिन, मंदिरों में होने वाला सत्संग, ढोल-मजीरा, राम-राम, काका-चाचा-चाची, ताऊ आदि संबोधनों का नाद, योगी व साधु-संतों की टोलियाँ, लहलहाते खेत व पानी उलीचते रेहट कुल मिलाकर लगता था कि इंडिया या शहरी भारत तो केवल नरक में ही लिपटा हुआ है और स्वर्ग कहीं है तो गाँवों में छितराया हुआ है। गाँधी जी के बोल भी कानों से टकराया करते थे। -) 'भारत गाँवों में बसता है।'
लेकिन राग दरबारी के साथ हुए सत्संग ने एक नये ही ग्रामीण भारत या हिन्दुस्तान के दर्शन कराए। राग दरबारी के अध्ययन सोहबत से यह मालूम हुआ कि पटवारी की क्या-क्या कारगुजारियाँ होती हैं। सरकारी हाकिम और दूसरे कारकून क्या-क्या गुल खिलाते रहते हैं? गाँव और स्वतंत्र भारत के बीच किस प्रकार के रिश्ते आकार ले रहे हैं। भारतीय राष्ट्र-राज्य का संविधान, शासन प्रणाली, नौकरशाही, जनप्रतिनिधि आदि के संपर्क में आकर गाँव किस प्रकार की शक्लें अख्तियार कर रहे हैं। राग दरबारी संक्रमणकालीन ग्रामीण भारत (विशेषकर उत्तर भारत) का एक ऐसा महाड्रामा है जिसमें 'अनुपस्थित' नायक है लेकिन विदूषक दृश्यमान है। प्रत्येक विदूषक पात्र की अपनी एक गाथा है और सबों की साझी गाथा विराट ड्रामा को जन्म देती है। कुछ वर्ष पूर्व जब छोटे परदे पर इस उपन्यास को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत किया गया तब इस कृति का महत्व और अच्छे ढंग से समझ में आया। लेखक क्या कहना चाहता है, यह समझ में आया। संक्षेप में लगभग गत सात वर्षों के दौरान ग्रामीण भारत की रोमांटिक तस्वीर तो निस्संदेह टूटी है। एक नया यथार्थ सामने आया है।
श्रीलाल जी से मुलाकात के पहले उनके संबंध में काफी कुछ सुनने को भी मिला था। कुछ ने तो यहाँ तक कहा था कि वे खुर्राट नौकरशाह रह चुके हैं, ब्राह्मणवादी हैं, खास-खास लोगों से ही मिलते-जुलते हैं। राग दरबारी का नशा आज तक उन पर चढ़ा हुआ है। वे राग दरबारी के माध्यम से ही आज के हिन्दुस्तान को देखते हैं जबकि काफी कुछ तब्दीलियाँ अब आ चुकी हैं। यह भी आलोचना सुनने को मिली कि श्रीलाल जी में वैज्ञानिक चिंतन का नितांत अभाव है। वे ग्रामीण भारत का मजाक उड़ाते हैं। उन्होंने चीजों को आवश्यकता से अधिक उपहासीकरण किया है। यह एक प्रकार का 'सिनिसिज्म' है।
श्रीलालजी से मेरी पहली मुलाकात भोपाल में सन् 1998 में हुई थी। हम दोनों को मध्य प्रदेश सरकार ने उस वर्ष पुरस्कृत किया था। पुरस्कार की पूर्व संध्या पर हम दोनों की दोपहर में होटल में 'बीयर-बैठकी' हुई थी। मझे याद है मैं बमुश्किल दो बीयर की बोतल समाप्त कर सका था। लेकिन उस दिन उन्होंने चार-पाँच बोतलें चढ़ाई थीं। उस दिन उनकी अलमस्त शख्सियत रह-रहकर फुदक रही थी। उन्होंने समकालीन साहित्यकारों-आलोचकों के बारे में खूब चर्चा की थी, राग-द्वेष से मुक्त होकर। इसके बाद सन 2000 में उसी अशोका होटल में 'सुरा-बैठकी' हुई। इस बैठकी के स्टार आकर्षण थे - डॉ. नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, डॉ. कमला प्रसाद, राजेश जोशी आदि। श्रीलाल शुक्ल 'हर दिल अजीज' बने हुए थे।
ढाई-तीन घंटे की इस बैठक में महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति अशोक वाजपेयी बहस के 'फोकस' में थे। हरेक के हर जाम के साथ सुरा के सीने को चीरता हुआ कोई विचार उठता और वापस उसमें डूब जाता। श्रीलाल शुक्ल से लेकर डॉ.कमला प्रसाद, आग्नेय आदि सभी उन्हें कटघरे में खड़ा करने की प्रतिस्पर्धा में जुटे हुए थे। अशोक जी को हिन्दी विश्वविद्यालय की दुर्दशा के मामले में 'खलनायक' सिद्ध किया जा रहा था।
जामों के इस दौर में किसी ने प्रस्ताव उछाला कि यहाँ मौजूद समस्त लेखकगण संयुक्त रूप से डॉ. मुरलीमनोहर जोशी (तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री) को ज्ञापन दें कि अशोक वाजपेयी को कुलपति के पद से मुक्त कर दिया जाए। चूँकि श्रीलाल जी एक प्रकार से अघोषित अध्यक्ष की मुद्रा में जमे हुए थे इसलिए सबसे पहले उन्होंने विवशता जाहिर करते हुए कहा - 'भाई ये तो सब कुछ ठीक है कि हिन्दी विश्वविद्यालय का बेड़ा गर्क अशोक के कारण हो रहा है लेकिन मैं इस मुहिम में औपचारिक रूप से खुलकर शामिल नहीं हो सकूँगा। उन्होंने सफाई दी कि मेरे अशोक जी से बहुत पुराने व्यक्तिगत संबंध रहे हैं। हम लोग एक ही 'बिरादरी' (नौकरशाही) के हैं। वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे?'
श्रीलालजी की वाणी से फूटीं विवशता व सहानुभूति की अजस्र धारा के चरणामृत का पान करना हिन्दी साहित्य के 'सिरमौरों' ने अपना नैतिक धर्म समझा। एक कोने से आवाज आई - 'श्रीलाल जी बिल्कुल सही कह रहे हैं। मुझ पर अशोक जी मुझ पर अशोक जी की काफी व्यक्तिगत 'अनुकंपाएँ रही हैं।' तीसरे ने कहा - 'अशोक जी के कारण ही मैं दिल्ली और भारत भवन के बीच वर्षों 'हवाई यात्राएँ' करता रहा हूँ। काव्य की बरसात करता रहा हूँ। दूसरे कोने से आवाज उठी - 'भाई, मैंने तो अशोक जी का चयन ही किया है। मैं ही कैसे उन्हें हटाने की बात करूँ?
अंतत: वाजपेयी जी के 'पोस्टमार्टम' का समापन श्रीलाल जी ने इस 'वाच' के साथ किया - हम लोगों ने बहुत चढ़ा ली है। अब हिन्दी विश्वविद्यालय और अशोक जी को उनकी नियति पर ही छोड़ दिया जाय - 'होइहैं सोइ जो राम रचि राखा।' यह सुनते ही कमरा ठहाकों से भर उठा और फिर सभी ने एक बार और कहा - 'वन फॉर दि रोड'। सबने एक-एक जाम और जमाया। इसके साथ ही चिकन-मटन हम लोगों की सेवा में हाजिर हो गया।
इस बैठकी से श्रीलाल जी के मानवीय रूप का भी पता चलता है। वे संबंधों का निर्वाह करना जानते हैं। दो-एक वर्ष पहले लखनऊ में भी डॉ. रमेश दीक्षित के घर ऐसी ही बैठकी जमी थी। मुझे याद है उस वक्त भी श्रीलालजी ने बड़ी आत्मीयता के साथ संबंधों को याद किया था। लखनऊ की अपनी यादों को परोसा था।
सन् 2003 में सूरीनाम में संपन्न विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर भी श्रीलाल जी के दर्शन हुए थे। वे चाहे भोपाल में हों या दिल्ली, लखनऊ, सूरीनाम आदि में मैंने उनकी अलमस्त शख्सियत को कभी भी कुम्हलाते हुए नहीं देखा।
वास्तव में श्रीलाल जी एक ऐसे व्यंग्यकार हैं जिनके पास पैनी नजर है। अभिव्यक्ति पर अद्भुत कमांड है। और वे चीजों को यथावत ढंग से सामने रखते हैं। नि:संदेह राग दरबारी शुक्ल जी का महाआख्यान है। लेकिन व्यंग्य या कोई भी कृति उस समय ठहर जाती है जब उसमें कोई 'विजन' नहीं होता। क्यों हम जार्ज बर्नार्ड शॉ, हरिशंकर परसाई को बार-बार याद करते हैं? क्या वजह है कि मनोहर श्याम जोशी, शरद जोशी आदि का शिल्प चमत्कृत तो करता है लेकिन लंबे समय तक मन-मस्तिष्क को आंदोलित नहीं कर पाता है? मेरे मत में व्यंग्य किसी का उपहास करना नहीं होता है बल्कि सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक विद्रूपताओं का साक्षात्कार कराते हुए व्यक्ति व समाज को परिवर्तन के लिए प्रेरित करना भी होता है।
समाज को उसकी नग्नता का दर्शन कराना भी नि:संदेह एक उद्देश्य है लेकिन इस स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन लाना भी व्यंग्य-कृति का उद्देश्य होना चाहिए। इसके लिए एक ऐसी दृष्टि की आवश्यकता होती है जो लेखक को मनोगत नहीं बनने देती उसे समाजगत बना देती है। बेशक शुक्ल जी हमारे समय के एक अनूठे व्यंग्यकार हैं, उन्हें 'रिप्लेस' नहीं किया जा सकता। लेकिन यह भी देखने की किसी भी लेखक के लिए स्थितियों का अवलोकन, फिर कृति के माध्यम से उनका रचनात्मक प्रस्तुतिकरण व्यक्तिगत होते हुए भी व्यक्तिगत नहीं होता है। समाज में सक्रिय भिन्न सांस्थानिक लेखक के लिए इस ताने-बाने के 'गति-विज्ञान' को समझना भी तब कृति स्वयं को 'ट्रांसेंट' नहीं कर पाती है। उसमें सर्वकालिकता नहीं रहती। कभी-कभी यह यथास्थितिवादी व रूपवादी बन जाती है। ऐसी अंतर्निहित सीमाओं के अतिक्रमण की अपेक्षा श्रीलाल जी से बनी रहेगी।