महाकुंभ और भूमि-दान

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भूमि-दान से अक्षय पुण्य मिलता है। महाभारत में कहा गया है- परिस्थितिवश व्यक्ति जो कुछ पाप कर बैठता है, वह गाय की चमड़ी के बराबर भूमिदान से खत्म हो जाता है। इस दान से अनेक श्रेष्ठ फल मिलते हैं। राजा शासन करते समय जो पाप करता है वह उसके भूमिदान से नष्ट हो जाता है। दुष्ट लोगों को अपकर्म की माफी भूमिदान से हो जाती है। स्मृतियों में इस दान की बड़ी महिमा की गई है।

इस दान से अनेक पाप नष्ट हो जाते हैं। यह जरूरी नहीं है कि सिर्फ राजा ही भूमिदान करें, जो लोग जमीन के मालिक हैं, वे भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान कर सकते हैं।

हरिद्वार में भूमिदान का बहुत महत्व है। सदियों से यहाँ के तीर्थ पुरोहितों को धनी, सम्पन्न लोग और राजा-महाराजा भूमि देते रहे हैं। राजाओं ने जो जमीन ब्राह्मणों को दान में दी है उसके दान-पक्ष भी मौजूद हैं। मुस्लिम शासकों ने भी प्रयाग के तीर्थ पुरोहितों को गाँव और जमीन दान में दी है।

तुला-पुरुष दान
इसे आम बोलचाल की भाषा में तुलादान भी कहा जाता है। इसे महादान माना जाता है। हवन के बाद ब्राह्मण पौराणिक मंत्रों का उच्चारण करते हैं, वे लोकपालों का आवास करते हैं, दान करने वाला सोने का आभूषण-कँगन, अँगूठी, सोने की सिकड़ी वगैरह ब्राह्मण को दान देता है। जितना दान सामान्य पुरोहितों को दिया जाता है, उसका दूना यज्ञ कराने वाले को दिया जाता है, फिर दान देने वाला दोबारा दाना करता है, सफेद कपड़े पहनता है। वह सफेद माला पहनकर हाथ में फूल लेकर तुला का आवास करता है।

तुला (तराजू) के रूप में वह विष्णु का स्मरण करता है, फिर वह तुला की परिक्रमा करके एक पलड़े पर चढ़ जाता है, दूसरे पलड़े पर ब्राह्मण लोग सोना रख देते हैं। तराजू के दोनों पलड़े जब बराबर हो जाते हैं, तब पृथ्वी का आह्वान किया जाता है। दान देने वाला तराजू के पलड़े से उतर जाता है, फिर सोने का आधा भाग गुरु को और दूसरा भाग ब्राह्मण को उनके हाथ में जल गिराते हुए देता है। यह दान अब दुर्लभ है, सिर्फ धर्मशास्त्र में इसका वर्णन पढ़ने को मिलता है।

राजाओं के साथ मंत्री भी यह दान करते थे। इसके साथ ग्राम दान भी किया जाता था। इस दान से दान देने वाले को विष्णु लोक में स्थान मिलने की बात कहीं गई है। आजकल तुला-पुरुष दान में सोना इस्तेमाल नहीं किया जाता। दानकर्ता के वजन के बराबर अनाज या दूसरी चीजें दान की जाती हैं। प्रतिकूल ग्रहदशाओं में या सभी प्रकार की खुशहाली के लिए यह दान किया जाता है। हरिद्वार में तुलादान करने का पुण्य फल बहुत मिलता है।

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पौराणिक आख्यान के अनुसान प्रयाग की पवित्र धरती पर प्रजापति ब्रह्मा ने सभी तीर्थों को तौला था। शेष भगवान के कहने से तीर्थों को तौलने का इन्तजाम किया गया था, इसका उद्देश्य तीर्थों की पुण्य गरिमा का पता लगाना था। ब्रह्मा ने तराजू के एक पलड़े पर सभी तीर्थ, सातों सागर और सारी धरती रख दी। दूसरे पलड़े पर उन्होंने तीर्थराज प्रयाग को रख दिया। अन्य तीर्थों का पलड़ा हल्का होकर आकाश में ध्रुव मण्डल को छूने लगा, लेकिन तीर्थराज प्रयाग का पलड़ा धरती को छूता रहा।

ब्रह्मा की इस परीक्षा से हमेशा के लिए तय हो गया कि प्रयाग ही तीर्थराज हैं। इनकी पुण्य गरिमा का मुकाबला सातों पुरियाँ और सभी तीर्थ नहीं कर सकते। इसीलिए अनके श्रद्धालु तीर्थराज प्रयाग में आकर अपनी सामर्थ्य के अनुसार तुलादान करते हैं। इससे उनके जन्म जन्मांतर में अर्जित पाप नष्ट हो जाते हैं और उनके परिवार में सुख-समृद्धि आती है। किन्तु हरिद्वार का महत्व इससे कदापि कम नहीं होता। हरिद्वार को देवों की पावन भूमि कहा गया है। कहा जाता है यहाँ आयोजित महाकुंभ में स्वयं देवता शामिल होते हैं।

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