आद्य जगद्‍गुरु शंकराचार्य

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दक्षिण-भारत के केरल राज्य के कालडी़ ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार शिवगुरु दम्पति के घर आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ। अपने माता-पिता की एकमात्र संतान रहे शंकराचार्य के पिता का बचपन में देहांत हो गया था। असाधारण प्रतिभा के धनी आद्य जगद्‍गुरु शंकराचार्य ने सात वर्ष की उम्र में ही वेदों के अध्ययन में पारंगतता हासिल कर ली थी।

आरंभ से ही संन्यास की तरफ रुचि के कारण अल्पायु में ही माता से संन्यास की अनुमति लेकर वे गुरु की खोज मे निकल पड़े थे।

वे संस्कृत के विद्वान और हिन्दू धर्म के प्रचारक थे। हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार उन्हें भगवान शंकर का अवतार माना जाता है। उनके कृत्यों के आधार पर ही श्रद्धालु लोक ने 'शंकरः शंकरः साक्षात्' अर्थात शंकराचार्य तो साक्षात् भगवान शंकर ही है घोषित किया।

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सोलहवें वर्ष की उम्र में उन्होंने ब्रह्मसूत्र- भाष्य रच कर शंकराचार्य बन गए। अपने शिष्यों को पढ़ाते हुए उन्होंने शताधिक ग्रंथों की रचना कर दी। सनातन धर्म की पुनर्स्थापना, भारत के चारों कोनों में चार शांकर मठ की स्थापना, चारों कुंभों की व्यवस्था, वेदांत दर्शन, दशनामी नागा संन्यासी अखाड़ों की स्थापना यह सब उन्हीं की देन है।

शंकराचार्य के जीवन का चार मठों की स्थापना करना ही मुख्य रूप से उल्लेखनीय कार्य रहा, जिसमें पहला 'श्रंगेरी' कर्नाटक (दक्षिण) में, दूसरा 'द्वारका' गुजरात (पश्चिम) में, तीसरा 'पुरी' उड़ीसा (पूर्व) में और चौथा ज्योर्तिमठ (जोशी मठ) उत्तराखंड (उत्तर) में, जो आज भी भारत भर में मौजूद है।

उन्होंने लगभग पूरे भारत की यात्रा की और अपने जीवनकाल का अधिक भाग उत्तर भारत में बिताया। आद्य जगद्‍गुरु शंकराचार्य ने मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में पवित्र केदारनाथ धाम में इहलोक का त्याग दिया।

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