Swami Dayanand Saraswati Biography : एक महान देशभक्त थे महर्षि दयानंद सरस्वती

Maharishi Dayanand Saraswati
- रामनिवास गुणग्राहक
मात्र धार्मिक सुधारक नहीं थे स्वामी दयानंद सरस्वती 
 
महर्षि दयानंद सरस्वती ऐसे पहले महामानव थे, जिन्होंने वेदों को सत्य विद्याओं की पुस्तक कहा ही नहीं सिद्ध भी किया। ईश्वर और उसका दिव्य ज्ञान वेद। ज्ञान-विज्ञान का मूल स्रोत सर्वज्ञ ईश्वर का दिया हुआ वेद ज्ञान था। इन दोनों के आश्रय के बिना कोई भी मनुष्य इतने महान्‌ कार्य नहीं कर सकता। जो पाश्चात्य विद्वान वेदों को गडरियों के गीत कहा करते थे। 
 
महर्षि दयानंद ने इतने व्यापक क्षेत्रों में कार्य किया है कि जब हम किसी क्षेत्र विशेषज्ञ का मूल्यांकन करते हैं, तो अन्य कई क्षेत्र हमारी आंखों से ओझल ही रह जाते हैं। राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए उनके महान्‌ योगदान पर अभी हमारी दृष्टि नहीं पड़ी है। संसार उनको एक धार्मिक महापुरुष के रूप में ही जानता है। 
 
सच में स्वामी जी एक स्वतंत्र विचारक थे, किसी परंपरा और पूर्वाग्रह से बंधे रहना उन्हें स्वीकार न था। वेदों के प्रति उनकी निष्ठा और भक्ति इसी कारण थी, कि वेद मानव की स्वतंत्र-चिंतन शक्ति के द्वारों को खोलकर उसे एक अनंत आकाश प्रदान करते हैं। 
 
वेद से स्वतंत्र चिंतन शक्ति पाने वाले उदारचेता दयानंद अपनी मातृभूमि को पराधीनता में जकड़ा देखकर चुप रहें, ये संभव न था। 1857 की क्रांति को दबाकर अंग्रेज सरकार ने भारतीय जन मानस के धार्मिक घावों पर मरहम लगाने के लिए एक घोषणा की थी। 
 
महारानी विक्टोरिया ने कहा था- 'हम चेतावनी देते हैं कि यदि किसी ने हमारी प्रजा के धार्मिक विश्वासों पर, पूजा पद्धति में हस्तक्षेप किया तो उसे हमारे तीव्र कोप का शिकार होना पड़ेगा।' 
 
इस लोक लुभावनी घोषणा के अंतर्निहित भावों को समझ कर उसका प्रतिकार करते हुए ऋषि दयानंद सत्यार्थ प्रकाश में घोषणा करते हैं- 'मतमतांतरों के आग्रह से रहित, अपने-पराए का पक्षपात शून्य, प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज पूर्ण सुखदायक नहीं है।' 
 
जीवन के हर क्षेत्र में स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति देने वाले संन्यासी द्वारा देश की स्वतंत्रता का यह शंखनाद ही आगे चलकर भारत के जन-मन में गूंजने लगा। स्वाधीनता के इतिहास में जितने भी आंदोलन हुए उनके बीज स्वामी जी अपने अमर ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' के माध्यम से डाल गए थे। 
 
गांधीजी के 'नमक आंदोलन' के बीज महर्षि ने तभी डाल दिए थे, जबकि गांधीजी मात्र 6 वर्ष के बालक थे सन्‌ 1857 में स्वामीजी सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं- 'नोंन के बिना दरिद्र का भी निर्वाह नहीं, किंतु नोंन सबको आवश्यक है। वे मेहनत मजदूरी करके जैसे-तैसे निर्वाह करते हैं, उसके ऊपर भी नोंन का 'कर' दंड तुल्य ही है। इससे दरिद्रों को बड़ा क्लेश पहुंचता है, अतलवण आदि से ऊपर 'कर' नहीं रहना चाहिए।' 
 
स्वदेशी आंदोलन के मूल सूत्राधार भी महर्षि दयानंद ही थे। उन्होंने लिखा है- 'जब परदेशी हमारे देश में व्यापार करेंगे तो दारिद्रय और दुःख के बिना दूसरा कुछ भी नहीं हो सकता।' 
 
स्वदेशी भावना को प्रबलता से जगाते हुए ऋषि बड़े मार्मिक शब्दों में लिखते हैं- 'इतने से ही समझ लो कि अंग्रेज अपने देश के जूते का भी जितना मान करते हैं, उतना अन्य देश के मनुष्यों का भी नहीं करते।' 
 
महर्षि की इसी स्वदेशी भावना का परिणाम था कि भारत में सबसे पहले सन्‌ 1879 में आर्य समाज लाहौर के सदस्यों ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का सामूहिक संकल्प लिया था, जिसका विवरण 14 अगस्त, 1979 में स्टेट्स मैन अखबार में मिलता है महर्षि दयानंद के राष्ट्रीय विचारों के महत्व को अंग्रेज बहुत गहराई से अनुभव करते थे। 
 
सन्‌ 1911 की जनगणना के अध्यक्ष मि. ब्लंट लिखते हैं- 'दयानंद मात्र धार्मिक सुधारक नहीं थे, वह एक महान देशभक्त थे। यह कहना अधिक ठीक होगा कि उनके लिए धार्मिक सुधार राष्ट्रीय सुधार का ही एक उपाय था।' 
 
एक अन्य स्थान पर ये ही ब्लंट लिखते हैं- 'आर्य समाज के सिद्धांतों में देशप्रेम की प्रेरणा है। आर्य सिद्धांत और आर्य शिक्षा समान रूप से भारत के प्राचीन गौरव के गीत गाते हैं। ऐसा करके वे अपने अनुयायियों में राष्ट्र के प्राचीन गौरव की भावना भरते हैं।' 
 
ब्लंट के कथन की सत्यता ऋषि के कालजयी ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' को पढ़कर ही अनुभव की जा सकती है। वह ग्रंथ कितने क्रांतिकारियों का प्रेरणा स्रोत रहा है, यह बता पाना बहुत कठिन है। पं. रामप्रसाद बिस्मिल, वीर अशफाक उल्ला, दादाभाई नौरोजी, श्यामजी कृष्णवर्मा, स्वामी श्रद्धानंद, लाला लाजपतराय, भाई परमानंद, वीर सावरकर आदि न जाने कितने बलिदानी सत्यार्थ प्रकाश ने पैदा किए। एक अंग्रेज मि. शिरोल ने तो सत्यार्थ प्रकाश को ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें खोखली करने वाला लिखा था। ये तथ्य स्पष्ट करते हैं कि महर्षि दयानंद स्वतंत्रता अभियान के प्रथम और प्रबल संवाहक थे। स्वराज्य और स्वतंत्रता की मूल अवधारणा हमें उन्हीं से प्राप्त हुई थी। 
 
सांसारिक मोहमाया और अपने-पराए की भावना से बहुत आगे निकल चुका यह वीतराग संन्यासी फर्रुखाबाद में देर रात तक सो न सका। अचानक शिष्य लक्ष्मण की आंखें खुल गईं, वह थोड़ा व्याकुल होकर बोला- 'महाराज! आप सोए नहीं, क्या कहीं पीड़ा है? कहो तो हाथ-पांव या सिर दबा दूं। या कोई औषधि लाकर दूं।' 
 
स्वामी जी एक गहरी श्वास छोड़ते हुए बोले- 'लक्ष्मण! यह वेदना औषधोपचार से ठीक होने वाली नहीं है। यह तो भारतीयों के संबंध में चिंता के कारण चित्त में उभरती है। मेरी अब यह इच्छा है कि राजा-महाराजाओं को सन्मार्ग पर लाकर उनका सुधार करूं। आर्य जाति को एक उद्देश्य रूपी सुदृढ़ सूत्र में बांधने की मेरी प्रबल इच्छा है।' 
 
महर्षि दयानंद सरस्वती वेद मंत्रों का भाष्य करते हुए भी ईश्वर से यह प्रार्थना करना नहीं भूलते थे कि हे जगदीश्वर! विदेशी शासक कभी हमारे ऊपर राज्य न करें। महर्षि का संपूर्ण जीवन की देशभक्ति का विशुद्ध अभियान था।
 
मोहनलाल विष्णुलाल पाण्ड्या ने पूछा कि महाराज! भारत का पूर्ण हित कैसे हो सकता है? 
 
स्वामी जी ने कहा- 'एक धर्म, एक भाव और एक लक्ष्य बनाए बिना भारत का पूर्ण हित और उन्नति असंभव है। 
 
ALSO READ: Ramakrishna Paramahamsa Jayanti : सनातन परंपरा की साक्षात प्रतिमूर्ति थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस

वेबदुनिया पर पढ़ें

सम्बंधित जानकारी