माता-पिता देवता के समान

WD

पं. योगेश शर्मा ने कर्तव्य बोध प्रवचनों में कहा कि माता ममत्व एवं पिता अनुशासन के प्रत्यक्ष देवता होते हैं। इसलिए उपनिषदों में 'मातृ देवो भव, पितृ देवो भव' की बात कहके मंत्र दृष्टा ऋषि-मुनि, पुत्र को कर्तव्य बोध का उपदेश देते हुए माता-पिता को प्रत्यक्ष देवता मानकर उनकी सेवा भक्ति करने का आदेश देते हैं अतः माता-पिता की सेवा से पूरी पृथ्वी की परिक्रमा का फल मिलता है।

उन्होंने कहा पिता का स्थान स्वर्ग से भी ऊँचा है। वस्तुतः पिता ही पुत्र का प्रथम मंत्र दृष्टा होता है। क्योंकि कुल परंपरा, गुरु परंपरा का बोध सर्वप्रथम पिता के द्वारा ही प्राप्त होता है।

उपनयन संस्कार के समय पिता और आचार्य ही सर्वप्रथम गायत्री मंत्र की दीक्षा पुत्र के कानों में फूँकते हैं। यह क्रिया मात्र दिखावा नहीं है अपितु मंत्र कानों से होता हुआ अंतःकरण में प्रविष्ट होता है, अतः पुत्र का दायित्व है पिता की सदवृत्तियों का अनुसरण करते हुए उनकी भावनाओं का सम्मान करें, पितरों का आशीर्वाद जिसे प्राप्त हो जाता है उसके लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं होता।

उन्होंने कहा पिता की संपत्ति में पुत्र का जन्मजात अधिकार होता है लेकिन पिता के ज्ञान तत्व और कुल परंपरा के निर्वाह के लिए आध्यात्मिक अत्तराधिकारी बनना संतान की सबसे बड़ी उपलब्धि है। उन्होंने कहा माता-पिता की सेवा भक्ति के कारण ही गणेश भगवान प्रथम पूजनीय बन गए। सूत्र है कि गणेश पूजन का संदेश ही माता-पिता की सेवा भक्ति का संदेश है।

वेबदुनिया पर पढ़ें