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रवीन्द्रनाथ ठाकुर
									
				
											
									
				
											 यदि तोर डाक शुने केऊ न आसे 
तबे एकला चलो रे। 
एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे! 
यदि केऊ कथा ना कोय, ओरे, ओरे, ओ अभागा, 
यदि सबाई थाके मुख फिराय, सबाई करे भय- 
तबे परान खुले 
ओ, तुई मुख फूटे तोर मनेर कथा एकला बोलो रे! 
यदि सबाई फिरे जाय, ओरे, ओरे, ओ अभागा, 
यदि गहन पथे जाबार काले केऊ फिरे न जाय- 
तबे पथेर काँटा 
ओ, तुई रक्तमाला चरन तले एकला दलो रे! 
यदि आलो ना घरे, ओरे, ओरे, ओ अभागा- 
यदि झड़ बादले आधार राते दुयार देय धरे- 
तबे वज्रानले 
आपुन बुकेर पांजर जालियेनिये एकला जलो रे!
									
  
	
	
   
	
   
		
		
		