veer savarkar : जानिए 1 महान क्रांतिकारी की सावरकर के प्रति आस्था जिसने उन्हें 'वीर' कहा
Veer Savarkar
- अथर्व पंवार
विनायक दामोदर सावरकर जिन्हे वीर सावरकर के नाम से जाना जाता है , भारतीय इतिहास के ऐसे क्रांतिकारी हैं जिन पर सभी के अपने अपने मत है। कोई उनके विचारों से प्रभावित होता है और कोई नहीं। पर स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदान प्रशंसनीय और सराहनीय है। वे उन लोगों में शामिल थे जिन्होंने स्वतंत्रता के आंदोलन में युवाओं को भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया। कई लोग कहते हैं कि सावरकर को समझना है तो पहले शिवाजी महाराज की नीति समझनी होगी।
सावरकर को वीर क्यों माना जाए ऐसा भी प्रश्न कई लोगों के मन में रहता है। यह बहुत काम लोगों को ज्ञात है कि क्रांति के पथ पर चलने के लिए शहीद भगतसिंह ने उनसे मार्गदर्शन लिया था और सावरकर को वीर उन्होंने ही कहा था। भगतसिंह एक पत्रकार भी थे। वह 'मतवाला' और 'कीर्ति' पत्रों के लिए लिखते थे। उन्होंने बलवंतसिंह के नाम से कई लेख लिखे हैं।
इसका प्रमाण है ;
वर्ष 1924 में 'मतवाला' साप्ताहिक के 15-22 नवम्बर के अंक में उन्होंने 'विश्व प्रेम' नाम से एक लेख लिखा था। इस लेख के 17वे पेराग्राफ में वह लिखते हैं, "विश्वप्रेमी वह वीर है जिसे भीषण विप्लववादी,कट्टर अराजकतावादी कहने में हम लोग तनिक भी लज्जा नहीं समझते - वही वीर सावरकर, विश्वप्रेम की तरंग में आकर घास पर चलते चलते रुक जाते हैं कि कोमल घर पैरों तले कुचली ना जाए।
"इसी लेख में उन्होंने वासुदेव कुटुंबकम, प्रभु श्रीराम और महात्मा गांधी का भी उल्लेख किया है। यह लेख चमनलाल और जगमोहनसिंह द्वारा सम्पादित 'भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज' पुस्तक में उपलब्ध है।
इस के अलावा 'कीर्ति' में 1928 में भगतसिंह ने एक लेखमाला लिखी थी जिसका नाम था 'आज़ादी की भेंट शहादतें '। इस लेखमाला में भगतसिंह ने इंडियन हाउस में हुई मदनलाल ढींगरा और सावरकर की भेंट का वर्णन किया है। यह प्रमाण भी उपरोक्त बताई गई पुस्तक में उपलब्ध है।
1857 की क्रांति को अंग्रेजों द्वारा विद्रोह कहा जाता था। पर सावरकर प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने उसे एक स्वाधीनता संग्राम के रूप में मानकर भारतीयों में जनजागरण किया। सावरकर द्वारा लिखित ग्रन्थ '1857 का स्वातंत्र्य समर' क्रांतिकारियों के लिए उत्प्रेरक था। इसे क्रांतिकारियों की भगवद्गीता कहा जाए तो सही ही होगा। जितना जुल्म क्रांतिकारियों ने सहा है उतना ही इस पुस्तक ने भी सहा।भगतसिंह ने भी इसका एक संस्करण छपवाया था। भगतसिंह के सहयोगी और समाजवादी नेता राजाराम शास्त्री ने 'अमर शहीदों के संस्मरण' नाम की एक पुस्तक लिखी थी।
इस पुस्तक में उल्लेख मिलता है कि भगतसिंह सावरकर की इस पुस्तक से बहुत प्रभावित थे। यह अंग्रेजी सरकार द्वारा जब्त कर ली गई थी। पता नहीं भगतसिंह को यह कहां से मिल गई। भगत सिंह मेरे (राजाराम शास्त्री) के पास यह पुस्तक लेकर आए। मुझे यह पढ़ने की बहुत इच्छा थी। बहुत विनती करने पर भी भगतसिंह वः देने को तैयार नहीं थे। उन्होंने कहा कि जिससे ली होगी उसे पुनः लौटानी होगी। भगतसिंह अंततः मान गए और उन्होंने राजाराम शास्त्री को 36 घंटे के लिए वह पुस्तक पढ़ने को दी। शास्त्री जी ने बिना खाए पीए उसे पढ़कर पूरा किया और जब भगतसिंह उसे लेने आए तो उन्होंने पुस्तक की बहुत प्रशंसा की। भगतसिंह ने उन्हें कहा कि यदि राजाराम शास्त्री कुछ परिश्रम और सहायता करने के लिए तैयार हो जाते हैं तो गुप्त रूप से इसका पंजाबी संस्करण छापे का उपाय सोचा जाए। भगतसिंह इसके लिए सावरकर से अनुमति मांगने रत्नागिरी स्थित उनके घर भी गए। वहां उन्होंने सावरकर को पूरी योजना बताई और उनसे अनुमति पाकर अपने अभियान में लग गए। भगत सिंह ने एक प्रेस का प्रबंध कर दिया। वह प्रतिदिन रात्रि में राजाराम शास्त्री को कुछ मैटर प्रूफ दे जाते थे, वह रात में प्रूफ ठीक करते थे और अगले दिन भगतसिंह उसे ले जाते थे। इस पुस्तक को 2 खण्डों में छपा गया जिसका मूल्य 8 आना था। इसकी एक प्रति सावरकर को भी भेजी गई थी। इसकी प्रथम प्रति राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन को बेचीं गई थी जिसे पाकर वह बहुत प्रसन्न हुए थे। इस पुस्तक के प्रकाशन में सुखदेव का बहुत परिश्रम था। जब भगतसिंह के साथियों की गिरफ़्तारी हुई तब उनके अधिकांश साथियों के पास इस पुस्तक की प्रतियां जब्त की गई थी। इस सन्दर्भ का उल्लेख सावरकर की '1857 का स्वातंत्र्य समर' में भी लिखा गया है।
जब भगतसिंह जेल में थे , तब वे अनेक क्रांतिकारियों की पुस्तकें पढ़ते थे और उसके सन्दर्भ अपनी डायरी में लिखते थे। उन्होंने जेल में सावरकर की पुस्तक 'हिन्दू पदपादशाही' का भी अध्ययन किया था। उनकी मुख्य जेल डायरी के पृष्ठ क्रमांक 103 पर इसका उल्लेख मिलता है -
"उस वक्त हिन्दुओं में यह आवाज थी कि धर्म बदलने के बजाय मर जाओ। लेकिन रामदास ने उठ खड़े हो कर घोषणा की "नहीं ,ऐसा नहीं हो ! धर्म बदलने से बेहतर है , मारे जाओ। यह पर्याप्त रूप से अच्छा है ; लेकिन इस बात के लिए संघर्ष करना बेहतर है कि न मारे जाओ। न आवेग में धर्म बदलो, बलही हिंसा की ताकतों को ही मार डालो। ऐसा करते हुए विजेता को मारते हुए मरना पड़े तो मर जाओ-धर्म की खातिर।" - हिन्दू पदपादशाही "
भगतसिंह को जेल में डायरी 12 सितम्बर 1929 को उपलब्ध हुई थी। डायरी के साथ-साथ इसके पहले उनके द्वारा लिखे गए दस्तावेजों को जगमोहन सिंह ने हस्तलिखित कॉपी के रूप में तैयार कर लिया था। इसे 'विविध उद्धरण' के रूप में संग्रहित किया गया है। जगमोहन सिंह भगतसिंह के भांजे हैं। इसमें भगतसिंह द्वारा सावरकर रचित हिन्दू पादपदशाही से लिए गए सन्दर्भों का संग्रह इस प्रकार है -
बलिदान
"बलिदान तभी पूजनीय है, जब सफलता के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष,लेकिन तार्किक रूप से इसकी अनिवार्यता सिद्ध होती हो। जो बलिदान अंत में सफलता की ओर अग्रसर नहीं करता,वह आत्महत्या है और इसकी मराठा युद्धनीति में कोई जगह नहीं थी।" (वीर सावरकर , 'हिन्दू पदपादशाही' , पृष्ठ संख्या 257)
"इन मराठाओं के साथ युद्ध करना तूफ़ान से जूझने और पानी पर वार करने जैसा है।" (हिन्दू पदपादशाही' , पृष्ठ संख्या 258)
"हमारे युग की सबसे निराशाजनक बात यह है कि हमें बिना इतिहास बनाए इसे लिखना पढ़ रहा है, बिना साहसिक क्षमताओं और अवसरों के उन वीरतापूर्ण गीतों को गाना पढ़ रहा है , जिन्हेंं हम जीवन में कभी वास्तविक नहीं बना सके" ( 'हिन्दू पदपादशाही' , पृष्ठ संख्या 265-266 )
"राजनीतिक गुलामी के बंधनों से कभी न कभी छुटकारा पाया या इन्हें तोडा जा सकता है , लेकिन बहुधा सांस्कृतिक अंधविश्वासों को समाप्त करना इससे कहीं अधिक कठिन है।" ( 'हिन्दू पदपादशाही , पृष्ठ संख्या 272-273 )
सावरकर भी भगतसिंह से स्नेह करते थे। जब 23 मार्च 1931 को भगतसिंह , सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई थी , उसके अगले दिन उन्होंने अपने घर पर लग रहे भगवा ध्वज के स्थान पर विरोध में काला ध्वज लगाया था और इन युवाओं को श्रद्धांजलि अर्पित करने के रूप में एक कविता लिखी थी। भगतसिंह के साथ-साथ अनेक महापुरुषों ने भी सावरकर के विचारों का लेखन पठन किया। अनेक क्रांतिकारी उनके प्रति श्रद्धा भाव रखते थे। अन्य क्रांतिकारियों के साथ-साथ उनका भी स्वधीनता संग्राम में अविस्मरणीय योगदान को हम नमन करते हैं।