लोकप्रिय स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक के जीवन से जुड़े 2 रोचक प्रसंग
प्रसंग1. कठिन सवालों से क्या डरना?
लोकमान्य तिलक बचपन से ही बहुत साहसी और निडर थे। गणित और संस्कृत उनके प्रिय विषय थे। स्कूल में जब उनकी परीक्षाएं होतीं, तब गणित के पेपर में तिलक हमेशा कठिन सवालों को हल करना ही पसंद करते थे।
उनकी इस आदत के बारे में उनके एक मित्र ने कहा कि तुम हमेशा कठिन सवालों को ही क्यों हल करते हो? अगर तुम सरल सवालों को हल करोगे तो तुम्हें परीक्षा में ज्यादा अंक मिलेंगे।
इस पर तिलक ने जवाब दिया कि मैं ज्यादा-से-ज्यादा सीखना चाहता हूं इसलिए कठिन सवालों को हल करता हूं। अगर हम हमेशा ऐसे काम ही करते रहेंगे, जो हमें सरल लगते हैं तो हम कभी कुछ नया नहीं सीख पाएंगे।
यही बात हमारी जिंदगी पर भी लागू होती है, अगर हम हमेशा आसान विषय, सरल सवाल और साधारण काम की तलाश में लगे रहेंगे तो कभी आगे नहीं बढ़ पाएंगे।
जीवन की हर कठिनाई को एक चुनौती की तरह लो, उसके सामने घुटने टेकने के बजाए उसे जीतकर दिखाओ।
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प्रसंग2. तिलक का साहस
बाल गंगाधर तिलक के स्कूली जीवन की एक और यादगार घटना है। एक बार उनकी कक्षा के सारे बच्चे बैठे मूंगफली खा रहे थे। उन लोगों ने मूंगफली के छिलके कक्षा में ही फेंक दिए और चारों ओर गंदगी फैला दी।
कुछ देर बाद जब उनके शिक्षक कक्षा में आए तो कक्षा को गंदा देखकर बहुत नाराज हो गए। उन्होंने अपनी छड़ी निकाली और लाइन से सारे बच्चों की हथेली पर छड़ी से 2-2 बार मारने लगे।
जब तिलक की बारी आई तो उन्होंने मार खाने के लिए अपना हाथ आगे नहीं बढ़ाया। जब शिक्षक ने कहा कि अपना हाथ आगे बढ़ाओ, तब उन्होंने कहा कि मैंने कक्षा को गंदा नहीं किया है इसलिए मैं मार नहीं खाऊंगा।
उनकी बात सुनकर टीचर का गुस्सा और बढ़ गया। टीचर ने उनकी शिकायत प्राचार्य से कर दी। इसके बाद तिलक के घर पर उनकी शिकायत पहुंची और उनके पिताजी को स्कूल आना पड़ा।
स्कूल आकर तिलक के पिता ने बताया कि उनके बेटे के पास पैसे ही नहीं थे। वो मूंगफली नहीं खरीद सकता था। बाल गंगाधर तिलक अपने जीवन में कभी भी अन्याय के सामने नहीं झुके।
उस दिन अगर शिक्षक के डर से तिलक ने स्कूल में मार खा ली होती तो शायद उनके अंदर का साहस बचपन में ही समाप्त हो जाता।
इस घटना से हम सभी को एक सबक मिलता है। यदि गलती न होने पर भी हम सजा स्वीकार कर लें तो यह माना जाएगा कि गलती में हम भी शामिल थे।
'स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और वो मैं लेकर ही रहूंगा' इस नारे को देने वाले बाल गंगाधर तिलक का नाम भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है।