इमरान खान की शातिर राजनीति से मात खा गई पाकिस्तान की सेना!

डॉ.ब्रह्मदीप अलूने

शुक्रवार, 12 मई 2023 (16:24 IST)
पाकिस्तान के इतिहास में राजनीतिक पार्टियों को व्यवस्था में पूरी तरह से हावी न होने देने को लेकर सेना सतर्क रही है। यही कारण है कि कोई भी सरकार मुश्किल से ही अपना कार्यकाल पूरा कर पाती है। चुनी हुई सरकार को सत्ता से हटाने के लिए सेना विपक्षी दलों  का सहारा लेती है,देश में व्यापक विरोध प्रदर्शन होते है और सेना देश की आंतरिक शांति भंग होने का खतरा बताकर सत्तारूढ़ पार्टी की सरकार को अपदस्थ कर देती है।

इमरान खान की सरकार जब लोकप्रिय होने लगी तो उनके राजनीतिक प्रभाव को खत्म करने के लिए सेना ने विपक्षी दलों से हाथ मिला कर पिछले साल उन्हें पद से हटवा दिया था। इमरान खान ने पाकिस्तान की सेना पर निशाना साधते हुए और भारत की सेना की तारीफ करते हुए कहा था कि भारतीय सेना ईमानदार है और वे कभी देश की राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करती। सेना और इमरान खान के सम्बन्ध बद से बदतर होते गए और अंततः इसका हिंसक रूप पाकिस्तान में साफ दिखाई दे रहा है।

यह भी दिलचस्प है कि 2018 के आम चुनावों में इमरान खान को पाकिस्तान की फौज का बड़ा समर्थन हासिल था। फौज ने समूची चुनावी व्यवस्था का मनमाना संचालन किया। न्यायपालिका पर दबाव बनाकर नवाज शरीफ के चुनाव पड़ने पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया गया।  इमरान खान सत्ता में आएं तो उन्हें विपक्षी दलों ने इलेक्टेड नहीं बल्कि सेलेक्टेड कहा।  पाकिस्तान में सेना अपने सियासी फायदों के लिए दुश्मनों से भी हाथ मिला लेती है। इमरान खान को लेकर भी कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है। पेशावर के तालिबान के हमले का निशाना बने आर्मी पब्लिक स्कूल में पहुंचे तो हमले में मरने वाले बच्चों के परिजनों ने उनके ख़िलाफ़ खूब विरोध प्रदर्शन किया था। 16 दिसंबर 2014 को इस स्कूल में तालिबान के हमले में 134 छात्रों सहित 143 लोग मारे गए थे। स्कूल के बाहर मौजूद प्रदर्शनकारियों ने इमरान ख़ान का कड़ा विरोध किया और गो इमरान गो के नारे लगाए। इसके पहले इमरान खान पेशावर में तालिबान का ऑफिस खोलने की मांग सरकार से कर चुके थे,जिसे लेकर उनकी खूब आलोचना भी हुई। यहां तक कि पाकिस्तान के आतंकी संगठन तालिबान ने पाकिस्तानी सरकार के साथ बातचीत के लिए पांच लोगों की एक टीम का ऐलान किया था  जिसमें तहरीके इंसाफ़ के चेयरमैन और पूर्व क्रिकेटर इमरान ख़ान का नाम शामिल था।

पेशावर में फौजियों के बच्चों को निशाना बनाने  वाले आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान को इमरान खान का समर्थन हासिल रहा है। यही कारण है की इमरान के सत्ता से बेदखल होते ही इस आतंकी संगठन ने देश भर में सुरक्षाबलों पर आतंकी हमलें शुरू कर दिए। किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए संविधान मार्गदर्शक और संरक्षक की भूमिका में होता है,लेकिन पाकिस्तान के सेना और हुक्मरान उसका मजाक बनाते रहे है।

पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की हत्या 1951 में कर दी गई। पाकिस्तान का पहला संविधान 1956 में लागू किया गया,लेकिन महज दो सालों में संसदीय प्रणाली ध्वस्त हो गई। देश के पहले राष्ट्रपति सैयद इस्कंदर अली मिर्ज़ा को खुद के ही बनाएं गणतांत्रिक संविधान से इतनी चिढ़ थी कि उन्होंने महज दो वर्षों में पांच प्रधानमंत्री मोहम्मद अली बोगरा,चौधरी मोहम्मद अली,हुसैन शहीद सोहरावर्दी,इब्राहिम इस्माइल चुंद्रीगर और फ़िरोज़ ख़ान नून को पद से हटा दिया। वे यहीं नहीं रुके,1958 में पाकिस्तान के संविधान को निलंबित कर दिया,असेंबली भंग कर दी और राजनीतिक पार्टियों को प्रतिबंधित करके पाकिस्तान के इतिहास का पहला मार्शल लॉ लगा दिया। इसके साथ ही उस वक़्त के सेना प्रमुख जनरल अयूब ख़ान को मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर बना दिया। मतलब पाकिस्तान के जन्म के महज 11 साल में ही सैन्य ताकतों को पाकिस्तान की राजनीतिक व्यवस्था में हस्तक्षेप का वह अवसर दिया गया जिससे इस इस्लामिक गणराज्य में लोकतंत्र स्थापित होने की संभावना ही धूमिल हो गई।

राष्ट्रपति जनरल इस्कंदर मिर्ज़ा ने पाकिस्तान के लोगों को समझाते हुए अपने फैसले को सही ठहराया कि राजनीतिक रस्साकशी और भ्रष्टाचार से जनता परेशान है,राजनीतिक पार्टियों ने  लोकतंत्र का मजाक बना दिया है और इससे देश संकट में पड़ गया है। इतिहास गवाह है की इसके बाद पाकिस्तान में लोकतांत्रिक चुनी हुई सरकारों को भंग करने का सिलसिला चल पड़ा और हर बार उन पर भ्रष्टाचार और राजनीतिक अक्षमता के आरोप गढ़कर सैन्य शासन सत्ता में काबिज हो गया।

1965 में भारत से युद्द के दौरान पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान सेना प्रमुख भी थे। बाद में उन्होंने सत्ता अपने आर्मी चीफ जनरल याह्या खान को सौंपी। याह्या खान की सनक और अत्याचार से ही पाकिस्तान 1971 में टूट गया और बंगलादेश बना। विभाजन के बाद करीब 16 साल पाकिस्तान में लोकतंत्र को स्थापित करने के प्रयास किए गए लेकिन 1977 में सैन्य प्रमुख जिया-उल-हक ने जुल्फिकार अली भुट्टों सरकार को अक्षम बताकर बर्खास्त कर दिया और स्वयं देश के राष्ट्रपति बन गए। बाद में वे करीब 11 साल तक देश के राष्ट्रपति रहे,उन्होंने लोकप्रिय होने के लिए देश में व्यापक इस्लामीकरण को बढ़ावा दिया। अमेरिका की शह पर पाकिस्तान में आतंकी केंद्र बनाएं और अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेना को बाहर निकालने के लिए जिहाद को राजनीतिक हथियार बनाया। बाद में यह पाकिस्तान और पूरी दुनिया के लिए आतंक का नासूर बन गया। उनके नक्शें कदम पर जनरल परवेज मुशर्रफ भी चले और  उन्होंने अपनी राजनीतिक हसरतें पूरी करने के लिए बेनजीर भुट्टों की हत्या करवा दी।

पाकिस्तान में इस समय सबसे बड़ा संकट सेना के सम्मान और स्वीकार्यता का है जिसे लेकर जनता पहली बार आक्रामक दिखाई दे रही है।  सेना के अफसरों पर हमले किए जा रहे है,उनके घरों को जलाया जा रहा है और उन्हें  चोर कहा जा रहा है। दरअसल इमरान खान ने पाकिस्तान की सेना की सत्ता को लेकर की गई सौदेबाज़ी को समझा,उसे स्वीकार किया और बाद में उसी पर हमला कर दिया। एक शातिर क्रिकेटर की शातिर राजनीति ने सत्ता और सेना को चोर साबित कर दिया।

जाहिर है जिस देश में आम लोगों का सेना और सत्ता पर से विश्वास उठ जाएं,यह गृह युद्द के संकेत है। आर्थिक  बदहाली और महंगाई से परेशान जनता संभावनाएं तलाश रही है,इसीलिए देश में इमरान खान को अभूतपूर्व समर्थन मिल रहा है। अफ़सोस इमरान देश की संभावनाओं को राजनीति की बिसात पर रखकर उसे आग में झोंकने को आमादा दिखाई पड़ रहे है। आखिर वे ऐसे क्रिकेटर रहे है जो मैच जीतने के लिए खुद को झोंक देते थे।  अब वे दूसरों को  गिराने और हराने के लिए खुद के राष्ट्र के भविष्य पर भी दांव लगाने से पीछे नहीं हटे।

(लेखकर अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ है)   

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