इंद्रियों तथा क्रोध पर विजय प्राप्त करने वाले जो गृहस्थ किसी एक देव को आश्रित न कर सब देवों को आदरपूर्वक नमस्कार करते हैं, वे संसाररूपी दुर्गों को पार कर जाते हैं।
मुक्त कौन होता है? णिद्दंडो णिद्द्वंद्वों णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो। णीरागो णिद्दोसो णिम्मूढो णिब्भयो अप्पा॥
जो मन, वचन और काया के दण्डों से रहित है, हर तरह के द्वंद्व से, संघर्ष से मुक्त है, जिसे किसी चीज की ममता नहीं, जो शरीर रहित है, जो किसी के सहारे नहीं रहता है, जिसमें किसी के प्रति राग नहीं है, द्वेष नहीं है, जिसमें मूढ़ता नहीं है, भय नहीं है, वही है-मुक्त आत्मा।
जीवों पर दया करना, इंद्रियों को वश में करना, सत्य बोलना, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, संतोष धारण करना, सम्यक् दर्शन, ज्ञान और तप- ये सब शील के परिवार हैं।
सीयल मोटो सर्व वरत में, ते भाष्यो छै श्री भगवंत रे। ज्यां समकित सहीत वरत पालीयो, त्यां कीयो संसारनों अंत रे॥
जिनेश्वर भगवान ने कहा है कि शील सबसे बड़ा व्रत है। जिन्होंने सम्यक्त्व के साथ शील व्रत को पाला, उन्होंने संसार का अंत कर डाला।
श्रावक का आचार मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणु व्रतपंचकम्। अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमाः॥
श्रावण के आठ गुण हैं- 1. मद्य का, शराब का त्याग 2. मांस का त्याग 3. मधु का त्याग 4. हिंसा का त्याग 5. असत्य का त्याग 6. चोरी का त्याग 7. कुशील का अब्रह्मचर्य का त्याग तथा 8. परिग्रह का त्याग।
जुआ खेलने से जिस आदमी की आँखें अंधी हो गई हैं, वह न इष्ट मित्रों को देखता है, न ही गुरु को। न वह माँ का आदर करता है, न पिता का। वह बहुत से पाप करता है।
भाव को शुद्ध करने के लिए बाहरी परिग्रह का त्याग किया जाता है, पर जिसने भीतर से परिग्रह का त्याग कर रखा है, उसके लिए बाहरी परिग्रह छोड़ने का कोई अर्थ नहीं।
तुष से उड़द की दाल अलग है, इसी तरह शरीर से आत्मा अलग है, ऐसा 'तुषमाष' रटते-रटते शिवभूति नाम के भावविशुद्ध महात्मा को शास्त्रज्ञान न रहने पर भी 'केवल ज्ञान' प्राप्त हो गया।
क्रोध जलाकर जलता है णासेदूण कसायं अग्गो णासदि सयं जघा पच्छा। णासेदूण तध णरं णिरासवो णस्सदे कोधो। जलाने लायक चीजों को जिस तरह आग जलाकर खुद भी नष्ट हो जाती है, उसी तरह क्रोध मनुष्य को नष्ट करके खुद भी नष्ट हो जाता है।
ण गुणे पेच्छदि अववददि गुणे जंपदि अजंपिदव्वं च। रोसेण रुद्दहिदओ णारयसीलो गरो होदि॥ क्रोध आने पर मनुष्य जिस व्यक्ति पर क्रोध करता है, उसके गुणों की ओर ध्यान नहीं देता। वह उसके गुणों की निंदा करने लगता है। जो न कहना चाहिए सो कह डालता है। क्रोध से मनुष्य का हृदय रुद्र रूप धारण कर लेता है। वह मनुष्य होकर भी नारकी जैसा बन जाता है।
सुट्ठु वि पियो मुहुत्तेण होदि वेसा जणस्स कोधेण। पधिदो वि जसो णस्सदि कुद्धस्स अकज्जकरणेण॥ क्रोध के कारण मनुष्य का परम प्यारा प्रेमी भी पलभर में उसका शत्रु बन जाता है। मनुष्य की प्रसिद्धि भी उसके क्रोध के कारण नष्ट हो जाती है।
ममता का त्याग करो अहं ममेति मंत्रोऽयं, मोहस्य जगदान्ध्यकृत्। अयमेव हि नयपूर्वः प्रतिमंत्रोऽपि मोहजित्॥ 'मैं', 'मेरा' इस मोहरूपी मंत्र ने सारे संसार को अंधा बना रखा है, परन्तु 'यह मेरा नहीं है' यह वाक्य मोह को जीतने का प्रतिमंत्र भी है।
दान देना आवश्यक आहारोसह-सत्थाभयभेओ जं चउव्विहं दाणं। तं बुच्चइ दायव्वं णिद्दिट्ठमुवासयज्झयणे॥ उपासकाध्ययन में कहा है कि चार प्रकार के दान हैं- भोजन, औषधि, शास्त्र और अभय। ये दान अवश्य देने चाहिए।
अइबुड्ढ-बाल-मूयंध बहिर-देसंतरीय-रोडाणं। जहजोग्गं दायव्वं करुणादाणत्ति भणिऊण॥ बहुत बूढ़ा हो, बालक हो, गूंगा हो, अंधा हो, बहरा हो, परदेशी हो, दरिद्र हो, 'यह करुणादान है' ऐसा मानकर उसे यथायोग्य दान देना चाहिए।
उपवास-वाहि-परिसम-किलेस-परिपीडयं मुणेऊण। पत्थं सरीरजोग्गं भेसजदाणं पि दायव्वं॥ उपवास, बीमारी, मेहनत और क्लेश से जो पीड़ित हो, उस आदमी को पथ्य और शरीर के योग्य औषधि दान देना चाहिए।
जं कीरइ परिरक्खा णिच्चं मरणभयभीरुजीणाणं। तं जाण अभयदाणं सिहामणि सव्वदाणाणं॥ मौत से डरे हुए जीवों की रक्षा करना है, अभयदान। यह दान सब दानों का शिरोमणि है।
पात्रे दीनादिवर्गे च दानं विधिवदिष्यते। पोष्यवर्गाविरोधेन न विरुद्धं स्वतश्च यत्॥ अपने आश्रय में रहने वाले नौकरों आदि का विरोध न करो। सुपात्र, गरीब, अनाथ आदि को विधिपूर्वक दान दो। दीन और अनाथों के साथ अपने नौकरों को भी दान देना चाहिए।
सबसे मेरी मैत्री हो सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। माध्यस्थ्यभावं विपरीवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव। हे देव! मैं चाहता हूँ कि यह मेरी आत्मा सदा प्राणीमात्र के प्रति मैत्री का भाव रखे। गुणियों को देखकर मुझे प्रसन्नता हो। दुखियों को देखकर मेरे मन में करुणा जगे। विपरीत वृत्ति वालों के प्रति मेरे मन में उदासीनता रहे।