पर्युषण : आत्मचिंतन का पर्व

आत्मचिंतन का पर्व पर्युषण प्रतिवर्ष चातुर्मास के दौरान भाद्रपद मास में मनाया जाता है। इस दौरान निरंतर धर्माराधना करने का प्रावधान है। इन दिनों में जैन श्वेतांबर धर्मावलंबी पर्युषण पर्व के रूप में 8 दिनों तक जप, तप, ध्यान, स्वाध्याय, सामायिक तथा उपवास, क्षमा पर्व आदि विविध प्रयोगों द्वारा आत्म-‍मंथन, आत्म-चिंतन करते हैं। तत्पश्चात दिगंबर जैन धर्मावलंबी दशलक्षण पर्व के रूप में 10 दिनों तक पर्युषण पर्व में आराधना करते हैं। जिसमें क्षमा, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग तथा ब्रह्मचर्य इन 10 धर्मों द्वारा आत्मचिंतन कर अंतर्मुखी बनने का प्रयास करते हैं।

जैन धर्म संसार के सबसे पुराने मगर वैज्ञानिक सिद्धांतों पर खड़े धर्मों में से एक है। इसकी अद्भुत पद्धतियों ने मनुष्य को दैहिक और तात्विक रूप से मांजकर उसे मुक्ति की मंजिल तक पहुंचाने का रास्ता रोशन किया है। 


 
अनेक पर्व-त्योहारों से सजी इसकी सांस्कृतिक विरासत में शायद सबसे महत्वपूर्ण और रेखांकित करने जैसा सालाना अवसर है पयुर्षण का। इसे आत्मशुद्धि का महापर्व भी कहा जाता है। पयुर्षण का शाब्दिक अर्थ है सभी तरफ बसना। परि का मतलब है बिन्दु के और पास की परिधि। बिन्दु है आत्म और बसना है रमना। आठ दिनों तक खुद ही में खोए रहकर खुद को खोजना कोई मामूली बात नहीं है। 
 
आज की दौड़-भाग भरी जिंदगी में जहां इंसान को चार पल की फुर्सत अपने घर-परिवार के लिए नहीं है, वहां खुद के निकट पहुंचने के लिए तो पल-दो पल भी मिलना मुश्किल है। इस मुश्किल को आसान और मुमकिन बनाने के लिए जब यह पर्व आता है, तब समूचा वातावरण ही तपोमय हो जाता है।
 
भोगवाद के दौर में सबसे पहली शर्त होती है खुद को भुलाना। पद, पैसा, नाम, प्रतिष्ठा, अहंकार और विलास के हजार-हजार साधनों से मनुष्य अपने को बहिर्मुख बनाता है। बड़ी कोशिश करनी पड़ती है इसके लिए, अन्यथा तो मनुष्य का सहज स्वभाव है, स्वयं में स्थिर रहना। मुक्ति, मनुष्य का मौलिक अधिकार है और सभ्यताओं ने उसे इससे वंचित करने के बहुतेरे उपक्रम किए हैं। 
 
हमारी शिक्षा पद्धति, सामाजिक और पारिवारिक संबंधों की समझ, कारोबार-व्यापार, यहां तक कि ज्ञान-विज्ञान को भी इस काम में लगाया गया है कि कैसे मनुष्य अपने सहज स्वभाव को भूलकर एक दौड़ में फंसे? पर्युषण एक मौका देता है, आधुनिक इंसान को रस्साकशी और भागमभाग की असलियत को जांचने-परखने का। स्वयं में रच-बसकर, आत्मा को जानकर मुक्ति का सुगम उपाय है यह।
 
पर्युषण के दिनों में जैन धर्म के मौलिक तत्वों से लाभ उठाने का मौका मिलता है। अमारि प्रवर्तन यानी मार से परे रहने का संकल्प, प्राणिमात्र पर दया का संदेश। साधार्मिक भक्ति यानी साथ-साथ धर्म में रत लोगों के प्रति आस्था और अनुराग। तेले (आठम) तप यानी उपवास। ऐसी क्रिया, ऐसी भक्ति और ऐसा खोया-खोयापन, जिससे अन्न, जल तक ग्रहण करने की सुधि न रहे। चैत्य परिपाटी यानी ऐसी प्रथा, जिसमें इष्टजनों समेत पुण्य स्थलों के दर्शन लाभ लिए जाएँ और फिर क्षमापना। वर्षभर के बैरभाव का विसर्जन करने का अवसर।
 
राग-विराग से भरे संसार में अपने-अपने हितों और अहंकारों की गठरी सिर पर उठाए हम न जाने कहां-कहां और किस-किस से टकराते फिरते हैं। कभी खुद की भावनाओं और कभी दूसरों की कामनाओं को ठेस पहुंचाकर आगे निकल जाने की दौड़ में अमूमन हमसे हिंसा होती ही है।
 
इसकी वजह से उपजी ग्लानि और क्षोभ को धोने का एकमात्र उपाय यही बचता है कि शुद्ध अंतःकरण से हम अपनी भूलचूक को स्वीकार कर लें और सबके प्रति विनम्रता का भाव जगाएं। यह तभी संभव होता है कि आने वाले बरस में हमारा व्यक्तित्व अधिक सहिष्णु बनकर उभरे। तभी यह मुमकिन होता है कि प्रायश्चित और प्रार्थना की आंच में हमारे विकार चट्-चट् जल उठें और आत्मा अपने असल रूप को पाकर खिल उठे। इस तरह यह पर्व आता है एक अवसर, एक अनुष्ठान बनकर, जिसमें से गुजर कर खुद की पहचान बनती है। 
 

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