को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैः त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश । दोषैरुपात्त विविधाश्रय जात गर्वैः स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥ (27)
आप में गुणों का समूह इतना तो खचाखच भरा है कि अब भाँति-भाँति का रूप लेने वाले अवगुण बेचारे सपने में भी आपकी ओर नजर नहीं डाल पाते! इसमें भला आश्चर्य क्या है?