शकर-गुड़ जैसे भोजन को, अपने सिर पर रख ले आती।
करती है दिन-रात परिश्रम, नहीं काम का कभी एंड है।
चलती है तो चलती जाती, बिना रुके ही बढ़ती जाती।
थकने का तो नाम ना लेती, जब तक मंजिल ना मिल जाती।
दृढ़ इच्छा के एयरपोर्ट पर, करती श्रम का प्लेन लैंड है।
है कतार में बढ़ती जाती, गिर जाती तो उठकर आती।
अगर कहीं व्यवधान हुआ तो, काट-काट चक्कर आ जाती।
शिक्षा देती है हम सबको, श्रम का हर दम अपर हैंड है।
उठो और चल पड़ो बात यह, कही विवेकानंदों ने है।
लंगड़ों ने पर्वत लांघे हैं, नदी पार की अंधों ने है।