खेती के काम आने वाली फसलों का केवल खाद्यान्न पैदा करने के लिए ही उपयोग नहीं होता। यदि केवल ऐसा हो सकता और मांसाहारी भी अधिकाधिक शाकाहारी बनने के लिए राजी हो जाएं, तो पूरी दुनिया के इस समय के खेत और भी चार अरब धरती-वासियों के पेट आसानी से भर सकते हैं।
24 हजार वर्ष पूर्व होमो नेआन्डरथालेंसिस कहलाने वाले सामान्य कद के और 18 हजार वर्ष पूर्व होमो फ्लोरेसिएन्सिस कहलाने वाले बौने कद के मनुष्य की आदि प्रजातियों के विलुप्त हो जाने के बाद से होमो सापियन्स कहलाने वाले हम आधुनिक मनुष्यों की प्रजाति का अब इस धरती पर एकछत्र राज है।
संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 2 हजार वर्ष पू्र्व जब ईस्वी सन् का प्रचलन शुरू हुआ था, तब इस धरती पर 30 करोड़ मनुष्य रहते थे। उन में से हर तीसरा (31 प्रतिशत) चीन का और हर पांचवां (21 प्रतिशत) भारत का निवासी था। आज भी यही दोनों देश दुनिया के सबसे जनसंख्या बहुल देश हैं, हालाकि मध्यकाल के शुरू में भारत संसार का सबसे जनसंख्या बहुल देश बन गया था, तब विश्व की 30 प्रतिशत जनता भारत की निवासी हुआ करती थी।
यही नहीं, उस समय भारत संसार के सबसे खुशहाल देशों में गिना जाता था। भारत में दूध-दही की नदियां बहती थीं। सबका पेट भरा होता था। दुनिया भारत को ललचाई दृष्टि से देखती थी। ईर्ष्या करती थी। आक्रमणकारी और उपनिवेशवादी उस पर कब्जा कर स्वयं भी मालामाल होने के सपने देखा करते थे। भारत संसार का सबसे जनसंख्या बहुल देश होते हुए भी खुशहाल था, क्योंकि भारतीय लगभग पूरी तरह शाकाहारी थे।
शाकाहार से भर सकते हैं चार अरब अतिरिक्त पेट : अमेरिका में सेंट पॉल स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ मिनिसोटा की एमिली कैसिडी और उनके सहयोगी वैज्ञानिकों का आज की दुनिया के संदर्भ में भी कुछ ऐसा ही कहना है। उनका कहना है कि दुनिया के लोग यदि मांसाहार से परहेज कर सकते और अनाजों वाला शाकाहारी जीवन बिताने को राजी हो सकते, तो दुनिया में ठीक इस समय जितने खेत हैं और उनकी जो पैदावार है, उसी से इस धरती पर आज के 7 अरब 10 करोड़ निवासियों के अलावा 4 अरब और लोगों को हर दिन भरपेट भोजन मिल सकता है।
दूसरा परिदृश्य यह है कि यदि दुनिया के सभी लोग आज के मांसाहारी अमीर औद्योगिक देशों के निवासियों की तरह ही खाना-पीना चाहेंगे, तब आज की अपेक्षा दुगुनी खेतिहर जमीन भी उनका पेट भरने के लिए शायद पूरी नहीं पड़ेगी।
संयुक्त राष्ट्र के आँकड़ों में आज की स्थिति यह है कि दुनिया में एक तरफ तो 1 अरब 40 करोड़ लोग अपने मोटापे के बोझ से, तो दूसरी तरफ 86 करोड़ 80 लाख लोग भूखे पेट के दर्द से पीड़ित हैं। भूखों की भूख मिटाने के लिए खेतिहर जमीन का दायरा बढ़ाने का मतलब होगा वनों और वनस्पतियों वाली प्राकृतिक संपदा की और अधिक बलि।
खाद्यान्नों का उपयोग केवल खाने के लिए हो...
PR
खाद्यान्नों का उपयोग केवल खाने के लिए हो : येमिली कैसिडी और उनके सहयोगी वैज्ञानिकों ने खेतिहर भूमि का विस्तार करने के बदले यह जानने का प्रयास किया कि कितने लोगों का पेट तब भरा जा सकता है, जब खाद्यान्नों वाली फसलों का उस तरह उपयोग न हो जिस तरह आज होता है। इसे जानने के लिए सबसे पहले उन्होंने हिसाब लगाया कि भोजन के काम आने वाली 41 सबसे प्रमुख फसलों की इस समय विश्वव्यापी पैदावार कितनी है और उनका किस-किस काम के लिए उपयोग होता है। इस गणना के लिए उन्होंने 1997 से 2003 के बीच के आँकड़े जुटाए।
विज्ञान पत्रिका एनवायरमेंटल रिसर्च लेटर्स में अपना अध्ययन प्रकाशित करते हुए उन्होंने लिखा है
* खाद्यान्नों वाली फसलों का केवल 67 प्रतिशत मानवीय खाद्य पदार्थों के रूप में काम लाया जाता है। इसे यदि कैलोरी में यानी भोजन से मिलने वाली ऊर्जा में बदलकर देखा जाए तो यह अनुपात केवल 55 प्रतिशत रह जाता है।
* 24 प्रतिशत हिस्से (36 प्रतिशत कैलोरी) का पशुओं के चारे के रूप में उपयोग होता है। 9 प्रतिशत फसल (इतनी ही कैलोरी भी) बायोडीजल जैसे ईंधनों में बदल दी जाती है।
बायोडीजल भुखमरी बढ़ाता है : उल्लेखनीय है कि खाद्यान्नों वाली फसलों का जैविक ईंधन के रूप में उपयोग इस बीच इस तेजी से बढ़ रहा है कि खाद्यान्नों की कीमत दुनियाभर में चिंता का विषय बन गई है। कार का मोटर हमारे पेट का प्रतिद्वंद्वी बनता जा है। सन् 2000 में अमेरिका में मक्के की केवल जहाँ 6 प्रतिशत फसल जैविक ईंधन बनाने के काम आती थी, वहीं 2010 में यह अनुपात बढ़कर 38 प्रतिशत हो गया।
इन शोधकों ने प्रति व्यक्ति 2700 किलो कैलोरी के बराबर दैनिक भोजन को अपनी गणना का आधार बनाकर भारत, चीन, ब्राजील और अमेरिका जैसे संसार के चार सबसे बड़े अनाज उत्पादक देशों में अनाज के उत्पादन और उपभोग का अलग से विश्लेषण भी किया।
* चीन में 58 प्रतिशत फसल भोजन यानी सीधे कैलोरी के रूप में इस्तेमाल होती है और 33 प्रतिशत जानवरों के चारे के रूप में। वहाँ प्रति हेक्टर खेतिहर भूमि 8 लोगों को पोषित करती है। यदि अनाजों की सारी फसल का भोजन के रूप में उपयोग हो रहा होता तो प्रति हेक्टर भूमि 13 लोगों के पेट भर रही होती। ब्राजील में भी लगभग यही स्थिति है।
* अमेरिका में तो खाद्यान्नों वाली फसल का केवल 35 प्रतिशत भाग ही सीधे भोजन यानी कैलोरी के रूप में इस्तेमाल होता है, जबकि उससे मिलने वाली 67 प्रतिशत ऊर्जा (कैलोरी) पशुओं का चारा बन जाती है। वहाँ प्रति हेक्टर खेतिहर भूमि केवल 5 लोगों के पेट भरती है, जबकि उससे अघा सकते हैं 16 लोग।
* खाद्यान्नों का सीधे खाने के लिए ही सर्वोत्तम उपयोग केवल भारत में होता है। भारत में अनाज की फसल का 90 प्रतिशत सीधे भोजन के रूप में काम आता है, लेकिन भारत में प्रति हेक्टर उपज कहीं कम है इसलिए इस उपज से केवल 6 लोगों के ही पेट भर पाते हैं।
मांसाहार है अनाज का सबसे बड़ा दुरुपयोग...
मांसाहार है अनाज का सबसे बड़ा दुरुपयोग : अमेरिकी शोधकों का कहना है कि अनाजों का सबसे बड़ा दुरुपयोग उन्हें चारे के तौर पर जानवरों को खिलाकर मांस प्राप्त करना है। उन्होंने पाया कि जितने मांस से एक कैलोरी भोजन मिलता है, उतना मांस पाने के लिए औसतन 10 कैलोरी और कभी-कभी तो 30 कैलोरी तक के बराबर अनाज जानवरों को चारे के रूप में खिलाया जाता है। अपने अध्ययन में उन्होंने मछलियों और भेड़-बकरियों को शामिल नहीं किया, क्योंकि उन्हें अनाज नहीं खिलाया जाता।
इन वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि खाद्यान्नों का यदि केवल मानवीय खाद्य पदार्थों के रूप में ही उपयोग हो, मांस पाने के लिए लिए उन्हें गाय-भैंसों, मुर्गे-मुर्गियों और सूअरों को चारे के तौर पर न खिलाया जाए तो इतने भर से ही आज की अपेक्षा 4 अरब और अधिक लोगों को पेटभर खाना मिल सकता है।
वे कहते हैं कि दुनिया के मांसाहारी यदि केवल गोमांस से ही परहेज करना सीख जाएं और उसके बदले सूअर या कुक्कुट (मुर्गे-मुर्गी) के मांस से ही काम चला सकें, तब भी आज की अपेक्षा 35 करोड़ 70 लाख अतिरिक्त लोगों को भरपूर खाना मिल सकता है।
इसी तरह लोग यदि दुग्ध पदार्थ और अंडे तो खाएं, लेकिन मांसाहार त्याग दें, तब भी कृषि उत्पादन के वर्तमान स्तर में किसी बढ़ोतरी के बिना भी संसारभर में 81 करोड़ 50 लाख अतिरिक्त जनसंख्या का पेट भरा जा सकता है।
उपज बढ़ाए बिना भी भुखमरी दूर : इन वैज्ञानिकों ने इस बात पर बल दिया है कि वे किसी को ये निर्देश नहीं देना चाहते कि उसे क्या खाना चाहिए और क्या नहीं? वे केवल इतना ही कहना चाहते हैं कि इस समय जितनी खेतिहर भूमि उपलब्ध है और विभिन्न देशों में जितना अनाज पैदा होता है, उसमें कोई बढ़ोतरी किए बिना भी किस तरह दुनिया की बढ़ती हुई जनसंख्या का पेट आसानी से भरा जा सकता है।
करना केवल इतना ही है कि अनाजों का केवल मानवीय भोजन के तौर पर उपयोग हो, न कि जानवरों के चारे या वाहनों के ईंधन के तौर पर भी। जो लोग मांसाहारी हैं, वे यह समझने की कोशिश करें कि उन्हें अपने प्रिय मांस से मिलने वाली हर कैलोरी की कीमत किसी शाकाहारी को अपने हिस्से की कम से कम 10 कैलोरी के बराबर अनाज से चुकानी पड़ती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मांस देने वाले जानवर भी मूल रूप से शाकाहारी ही होते हैं। वे घास-पात या अनाज के रूप में जो कुछ खाते हैं, वही उन के शरीर में मांस बनता है। इसी तरह अनाजों से वाहनों के लिए ईंधन (बायोडीजल इत्यादि) बनाना भी भूखों के पेट पर लात मारना है, क्योंकि अनाजों की खेती आदमी के खाने के लिए, न कि सड़कों पर कारें दौड़ाने के लिए होनी चाहिए।