अब तक की सबसे जानलेवा परमाणु दुर्घटना भूतपूर्व सोवियत संघ के यूक्रेन में हुई थी। दुनिया चेर्नोबिल परमाणु दुर्घटना के 25वें शोकदिवस से केवल डेढ़ महीने ही दूर रह गई थी कि गत मार्च में जापान के फुकूशिमा परमाणु बिजलीघर में भी एक भीषण दुर्घटना हो गई। उससे निपटने का संघर्ष अब भी चल रहा है। हम इसे संयोग कहें या दुर्योग, चेतावनी मानें या चुनौती, इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि परमाणु ऊर्जा आग से खेलने के समान है। आग से खेलें और कभी हाथ न जले, यह हो नहीं सकता।
यूरी अंद्रेयेव प्रीप्यात में रहते थे। चेर्नोबिल परमाणु बिजलीघर में काम करते थे। बिजलीघर इतना नजदीक था कि उनके अपने घर से दिखाई पड़ता था। वह शुक्रवार, 25 अप्रैल 1986 की रात थी। आधी रात बीत गई थी। उनकी ड्यूटी पूरी हो गई थी, इसलिए घर चले गए।
उनके जाने के कुछ ही मिनट बाद बिजलीघर के रिएक्ट-ब्लॉक 4 में प्रयोग के तौर पर एक अनुकरण (सिम्युलेशन) का निर्णायक चरण शुरू हुआ। अनुकरण का उद्देश्य यह सिद्ध करना था कि यदि किसी कारण से पूरे बिजलीघर में बिजली फेल हो जाए और रिएक्टर को तुरंत बंद कर देना पड़े, तब भी उसे ठंडा करने के कूलिंग पंपों और तरह-तरह के मापन उपकरणों को चालू रखने के लिए बंद रिएक्टर से भी पर्याप्त बिजली जुटाई जा सकती है।
रिएक्टर में विस्फोट हुआ मध्यरात्रि को: पहले कदम के तौर पर कोई 12 घंटे पहले ही रिएक्टर को धीमा करते हुए उसकी क्षमता को 3200 मेगावाट से उतार कर 500 मेगावाट पर लाना शुरू कर दिया गया। 25 अप्रैल की मध्यरात्रि के बाद एक बज कर 23 मिनट पर असली प्रयोग शुरू हुआ। सबसे पहले टर्बाइन को रोकने वाले वॉल्व को और उसके बाद रिएक्टर को ठंडा रखने की आपातकालीन प्रणाली को बंद कर दिया गया। 40 सेकंड बाद आपात स्थिति में रिएक्टर में नभिकीय विखंडन की क्रिया को अपने आप रोक देने के स्वाचालित स्विच को भी हाथ से सक्रिय कर दिया गया। लेकिन, ऐसा करते ही रिएक्टर के भीतर नाभिकीय विखंडन की सतत क्रिया (चेन रिएक्शन) नियंत्रण से एकाएक बाहर हो गई। रात एक बज कर 24 मिनट पर ब्लॉक 4 में दो जोरदार धमाके हुए।
रक्षाकवच की धज्जियाँ उड़ गयीं : विस्फोट इतने शक्तिशाली थे कि रिएक्टर को ढकने वाले एक हज़ार टन से भी भारी रक्षाकवच और उसके ऊपर की छत की धज्जियाँ उड़ गयीं। रिएक्टर में लगी ईंधन की छड़ों के परखचे बिखर गये। छड़ों वाली रेडियोधर्मी सामग्री सुलगती हुई कोई तीन किलोमीटर की ऊँचाई तक हवा में उछल गयी। रिएक्टर अपने भीतर की भारी गर्मी से पिघलने लगा। उसे प्रमंदित करने वाले ग्रेफ़ाइट का 250 टन भारी वह हिस्सा, जो हवा में उड़ नहीं गया था, अगले 10 दिनो तक जलता रहा।
यूरी अंद्रेयेव को जैसे ही समझ में आया कि हुआ क्या है, वे घर से निकल पडे़। ब्लाक 2 में अपने कार्यस्थान की तरफ लपके। वहीं बिजलीघर का नियंत्रणकक्ष (कंट्रोल रूम) था। अब जैसे हो तैसे यह देखना था कि बिजलीघर के बाक़ी तीनों रिएक्टर बचे रहें, नियंत्रण में रहें और यह दुर्घटना कोई प्रलंयकारी विभीषिका न बन जाये।
शनिवार, 26 अप्रैल 1986 के सूर्योदय के बाद भी यूरी अंद्रेयेव और उनके साथियों ने वही किया, जो अब, 25 साल बाद फुकूशिमा के परमाणु रिएक्टरों को ठंडा करने के लिए जापान के ''सामुराई'' वीरों ने किया। यानी, लाखों दूसरे लोगों की जान बचाने के लिए उन्होंने अपनी जान की बाज़ी लगा दी।
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अकल्पनीय अनहोनी : क्षण ही भर में जैसी अनहोनी हो गयी थी, चेर्नोबिल बिजलीघर के निर्माताओं और इंजीनियरों ने उसकी कभी कल्पना ही नहीं की थी। इसीलिए, ऐसी किसी दुर्घटना से निबटने या अपनी सुरक्षा संबंधी सही बर्ताव करने की कोई आपातकालीन योजना या निर्देशिका भी तैयार नहीं गयी थी। फुकूशिमा की तरह चेर्नोबिल में भी हफ्तों तक अफ़रा-तफ़री मची रही। जिन 134 लोगों ने शुरू-शुरू में वहाँ स्थिति को संभालने का जोखिम उठाया, उनमें से 28 रेडियोधर्मी विकिरण के घातक प्रभावों के कारण अगले 60 दिनों में दम तोड़ बैठे।
सौभाग्य से यूरी अंद्रेयेव उनमें शामिल नहीं थे। वे जीवित हैं। अब यूक्रेन की राजधानी किएव में रहते हैं और चेर्नोबिल परमाणु दुर्घटना पीड़ितों के संघ के अध्यक्ष हैं। कहते हैं, ''रेडियोधर्मी विकिरण एक मंद, लेकिन भरोसेमंद हत्यारा है। मैं कभी 3 लाख 56 हज़ार ऐसे पीड़ितों का प्रवक्ता था, जो बीमार थे, विकलांग थे या मरणासन्न थे।'' अब यह संख्या 2 लाख 20 हज़ार हो गयी है।
दुर्घटना के समाचार को दबाए रखा : चेर्नोबिल दुर्घटना के समय यूक्रेन सोवियत संघ (आज के रूस) का एक हिस्सा था। सोवियत सरकार ने दो दिनों तक दुर्घटना के समाचार को दबाए रखा। समाचार एजेंसी ''तास'' ने 28 अप्रैल की रात नौ बजे पहली बार चेर्नोबिल में ''एक दुर्घटना'' होने की ख़बर दी। आधे घंटे बाद सोवियत टेलीविज़न के समाचार '' व्रेम्या'' में भी यही कहा गया। कोई तस्वीर या रिपोर्ट नहीं दिखायी गयी।
इन दो दिनों में चेर्नोबिल परमाणु रिएक्टर से निकली रेडियोधर्मी धूल और राख स्वीडन तक पहुँच गयी थी। स्वीडन वाले हैरान थे कि उनके यहाँ या आस-पास तो कोई दुर्घटना हुई नहीं है, तो फिर यह रेडियोधर्मी राख कहाँ से आई? उन्होंने मॉस्को की सरकार से पूछा कि उसके यहाँ कहीं कोई परमाणु दुर्घटना तो नहीं हुई है? तब मॉस्को की समझ में आया कि दुर्घटना कितनी बड़ी है और उसे छिपाना कितना असंभ। यही नहीं, तब तक चेर्नोबिल भेजे गये बचाव और सुरक्षाकर्मी साधरण कपड़ों और मामूली साज-सामान के साथ विस्फोट के परिणामों से लड़ रहे थे। स्वीडन की पूछ-ताछ के बाद उन्हें वे पोशाकें और उपकरण दिये गये, जो भारी रेडियोधर्मी विकिरण से बचाव के लिए ज़रूरी होते हैं।
रेडियोधर्मी बादल दूर-दूर तक पहुँचे : दोनो भीषण विस्फोटों और ग्रेफाइट की भारी मात्रा 10 दिनों तक जलते रहने से मुख्यतः आयोडीन-131 और सेज़ियम-137 के आइसोटोप (समस्थानिक) महीन कणों वाले एसे एरोसोल बन गये, जो रेडियोधर्मी बादलों के रूप में पूरे यूरोप में ही नहीं, पूरे उत्तरी गोलार्ध में हज़ारों किलोमीटर दूर-दूर तक पहुँचे। यूरोप के कुल मिलाकर क़रीब 2 18 000 वर्ग किलोमीटर भूभाग पर रेडियोधर्मी विकिरण बढ़ कर 37 किलो बेकेरेल प्रति वर्गमीटर हो गया। लोगों से कहा गया कि वे यथासंभव घर से बाहर न जायें, फल-फूल, सब्ज़ी व जंगली जानवरों के मांस से कुछ समय तक परहेज़ करें।
यूरी अंद्रेयेव के प्रीप्यात शहर को अगले 36 घंटो में ही ख़ाली करा लिया गया। बाद में उस दायरे को बढ़ाते-बढ़ाते 30 किलोमीटर कर दिया गया, जहाँ से सभी लोगों को हटा कर दूसरी जगहों पर ले जाया गाया। इस बीच वह वर्जित क्षेत्र 4300वर्ग किलोमीटर बड़ा हो गया है, जहाँ जाना-रहना मना है। वहाँ अब जंगल उग आये हैं और जंगली जानवर रहते हैं।
चोर-लुटेरे विकिरण से नहीं डरते : अनुमान है कि कम से कम साढ़े तीन लाख लोगों को अपना घर-बार हमेशा के लिए छोड़ना पड़ा है। उन हज़ारों जीपों, कारों, ट्रकों, हेलीकॉप्टरों व अन्य वाहनों तथा सामानों को इस वर्जित क्षेत्र में ही छोड़ देना पड़ा, जिनका दुर्घटना के परिणामों से लड़ने में उपयोग हुआ था। वे सभी रेडियोधर्मी राख या विकिरण से प्रदूषित हो गये थे। लेकिन, चोर-उचक्के और लुटेरे किसी विकिरण से नहीं डरते। वर्जित क्षेत्र की सारी पहरेदारी और नाकेबंदी के बावजूद वहाँ पड़ने वाले बहुत सारे घरों के भीतर का सामान अब नदारद है। कई वाहन इत्यादि ग़ायब हैं या उनके हिस्से-पुर्ज़े चुरा लिये गये हैं।
सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि वर्जित क्षेत्र स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हुए भी इस बीच कोई 500 से अधिक पुराने निवासी, अधिकतर बड़े-बूढ़े, वहाँ लौट आये हैं। उन्होने वहाँ के एक पुराने चर्च को भी आबाद कर दिया है। वहीं इस बार ईस्टर की एक प्रार्थना सभा हुई और परमाणु दुर्घटना के कारण अपने प्राण गंवाने वालों को श्रद्धांजलि अर्पित की गयी।
मृतकों की संख्या जटिल पहेली: जहाँ तक मृतकों का प्रश्न है, विशेषज्ञ एकमत नहीं हैं कि किसकी मृत्यु को चेर्नोबिल परमाणु दुर्घटना का परिणाम माना जाये और किसकी मृत्यु को नहीं। जर्मनी में एसन विश्वविद्यालय-अस्पताल के प्रो. वोल्फ़गांग म्युलर का कहना है कि सबसे कम विवाद गले की थाइरॉइड (अवटु) ग्रंथि वाले कैंसर के प्रसंग में हैः ''बिल्कुल साफ़ है कि बच्चों में थाइरॉइड कैंसर के मामले शुरू के तीन-चार वर्षों में काफ़ी बढ़ गये...क्योकि चेर्नोबिल के आस-पास के पूरे इलाके में आयोडीन की कोई गोली नहीं बाँटी गयी।'' प्रो. म्युलर के अनुसार, ''इससे शिक्षा लेते हुए जापानी फुकूशिमा बिजलीघर के निकटवर्ती प्रिफ़ेक्चरों (प्रशासनिक इकाइयों) में कम से कम यह तो हुआ ही कि आयोडीन की गोलियाँ बाँटी गयीं और, मेरी समझ से, दो प्रिफ़ेक्चरों में इन गोलियों को लेने का आग्रह भी किया गया।''
सबसे अधिक विवाद चेर्नोबिल से कहीं दूर रहने वालों पर पड़े क्षीण विकिरण के दीर्घकालिक प्रभावों को लेकर है। उनके बारे में कहा जाता है कि बिना विकिरण के भी कैंसर के विभिन्न प्रकारों से आजकल मरने वालों की जो ऊँची दर है, उसे देखते हुए 22 से 25 प्रतिशत लोग तब भी कैंसर से मरते, जब चेर्नोबिल की परमाणु दुर्घटना नहीं भी हुई होती।
क्षीण विकिरण से कैंसर दशकों बाद : क्षीण विकिरण के कारण कैंसर वाले रोग क्योंकि वर्षों या दशकों बाद भी हो सकते हैं, इसलिए यह प्रमाणित कर सकना कि वे रेडियोधर्मी विकिरण वाली किसी दुर्घटना का ही परिणाम हैं, बहुत ही कठिन है। इसीलिए, विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अधिकरण IAEA ने 2006 में कहा कि चेर्नोबिल वाले विकिरण के सीधे प्रभाव से 50 लोग मरे हैं। साथ ही उससे सबसे अधिक प्रभावित तीन देशों यूक्रेन, रूस और बेलारूस में कैंसर से होने वाली क़रीब 9000 अतिरिक्त मौतें हुयी हो सकती हैं। 5000 हज़ार मौतें सामान्य जनता के बीच हुई हो सकती हैं और 4000 उन दो लाख साफ़-सफ़ाई, राहत और बचाव कर्मियों के बीच, जिन्हें क़रीब दो वर्षों तक वहाँ काम करना पड़ा था। इससे कहीं अधिक मौतें भविष्य में होंगी।
सबसे अधिक थाइरॉइड कैंसर : अंतरराष्ट्रीय कैंसर अनुसंधान अधिकरण IARC का तो यहाँ तक कहना है कि रेडियोधर्मी प्रदूषण से सबसे अधिक प्रभावित हुए क्षेत्रों में गले में थाइरॉइड (अवटु) ग्रंथि के कैंसर को छोड़ कर कैंसर के किसी अन्य प्रकार के ऐसे मामलों में कोई बढ़ोतरी नहीं देखने में आयी है, जिन्हें रेडियोधर्मिता के साथ जोड़ा जा सके। लेकिन, इस संस्था की मॉडल-गणनाओं के अनुसार, यूरोप में 2065 तक, यानी अगले 54 वर्षों में, थाइरॉइड कैंसर के ऐसे क़रीब 16 हज़ार और कैंसर के अन्य प्रकारों के 25 हज़ार मामले देखने में आ सकते हैं, जिन के लिए चेर्नोबिल के परमाणु विकिरण को दोषी ठहराया जा सकता है।
कुछ ऐसा ही अनुमान फ़िनलैंड में पूर्वी फि़नलैंड विश्वविद्यालय के विकिरण-विशेषज्ञ कीथ बावरस्टोक का भी हैः ''मैंने हिसाब लगाया है कि चेर्नोबिल की वजह से कैंसर-पीड़ित होने के पूरे यूरोप में 30 से 60 हज़ार तक अतिरिक्त मामले होंगे। कुछ दूसरे अनुमान इससे कम भी हैं और इतने ज़्यादा भी कि वे 10 लाख तक जाते हैं।'' यहाँ यह बता देना भी अनुचित नहीं होगा कि रेडियोधर्मी विकिरण से देर-सबेर केवल कैंसर ही नहीं होता, मनुष्यों और पशु-पक्षियों की आनुवंशिक सामग्री (जीनों) में ऐसी विकृतियाँ भी आ सकती हैं, जो आने वाली कई पीढ़ियों को बाँझ, बीमार, नपुंसक, विकृत या विकलांग बना सकती हैं। 1945 में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराये गये दोनो अमेरिकी परमाणु बमों के आनुवंशिकी प्रभाव यही दिखाते हैं।
परमाणु बिजलीघर भी बम से कम नहीं : कहने की आवश्यकता नहीं कि किसी परमाणु बिजलीघर में विस्फोट का तात्कालिक प्रभाव परमाणु बम के विस्फोट जितना विध्वंसकारी भले ही न लगे, दीर्घकालिक आर्थिक और शारीरिक प्रभाव परमाणु बम जैसा ही होता है। अकेले यूक्रेन के पड़ोसी देश बोलारूस की एक-चौथाई ज़मीन चेर्नोबिल से आयी रेडियोधर्मी राख और धूल के कारण इतनी प्रदूषित हो गयी है कि उसे पुरानी स्थिति में लौटने में 300 साल लगेंगे।
चेर्नोबिल परमाणु विभीषिका से हुए मानवीय नुकसानों जितना ही कठिन है आर्थिक और सामाजिक नुकसानों का सही अनुमान लगा सकना। तत्कालीन संयुक्त राष्ट्र महाचिव ख़ावियेर पेरेज़ दे क्वेल्यार के नाम एक पत्र में तत्कालीन सोवियत वित्तमंत्र ने अनुमान लगाया था कि इस दुर्घटना से सोवियत संघ को 1989 तक 12 अरब 60 करोड़ डॉलर के बराबर प्रत्यक्ष नुकसान हुआ था। परोक्ष नुकसान तो अभी सदियों तक होता रहेगा।
सबसे अविश्वसनीय बचकानापन : सबसे अविश्वसनीय और बचकानी बात तो यह रही कि चेर्नोबिल बिजलीघर के ब्लॉक 4 वाले रिएक्टर में इस अपूर्व विस्फोट का मलबा आनन-फ़ानन में जमा करने और रिएक्टर को एक विकिरणरोधी कामचलाऊ ''ताबूत'' (विकिरण सुरक्षा ढाँचे या आवरण) में दफना देने के बाद बचे हुए तीनों रिक्टरों को फिर से चालू कर दिया गया। सोवियत अधिकारियों का समझना था कि ब्लाक 4 को ''दफ़ना'' देने के बाद बिजलीघर के कर्मचारियों को अब कोई विकिरण-ख़तरा नहीं है। अक्टूबर1991 में रिएक्टर ब्लॉक 2 में भी आग लग गयी और तब उसे भी बंद कर देना पड़ा। सोवियत संघ से अलग हो कर स्वतंत्र देश बनने के बाद यूक्रेन की सरकार ने यूरोपीय संघ और जी-7 देशों के कहने पर बाकी दोनो रिएक्टर भी नवंबर 1996 और दिसंबर 2000 में बंद कर दिये।
रिएक्टर ब्लॉक 4 के ताबूत में इंधन की छड़ों से निकल कर बिखरा और भीषण गर्मी से पिघल कर जम गया यूरेनियम और प्लूटोनियम तथा ग्रेफ़ाइट और बालू का 150 से 180 टन तक भारी मिश्रण बंद है। यह ताबूत क्योंकि कामचलाऊ है, इसलिए अंतरराष्ठ्रीय सहायता से इस ताबूत के ऊपर अब एक नया ताबूत बनेगा, जिससे आशा की जाती है कि वह अगले 100 वर्षों तक मलबे से निकल रहे विकिरण को झेल सकेगा। यह भी आशा की जा रही है कि हो सकता है कि तब तक वैज्ञानिकों को रेडियोधर्मी परमाणु कचरे के स्थायी निपटारे का कोई तकनीकी रास्ता मिल जाये, ताकि इस बला से किसी दिन पूरी तरह छुटकारा मिल सके।
इस्पात और सीमेंट-कंक्रीट का नया ताबूत : नया ताबूत इस्पात और सीमेंट-कंक्रीट का बना, एक मीटर से भी अधिक मोटा एक ऐसा भारी-भरकम ढाँचा होगा, जिसके निर्माण पर एक अरब 60 करोड़ डॉलर का ख़र्च आयेगा। उसे 2013 तक ही बन जाना चाहिये था, लेकिन पैसे की कमी के कारण 2016 पहले बन कर तैयार होने की संभावना नहीं है। कई देशों ने इसके लिए धन देने का आश्वासन दिया है, लेकिन अप्रैल 2011 के मध्य तक केवल तीन-चौथाई धनराशि जुटाई जा सकी थी। इस कारण यूरोपीय संघ ने अपने अंशदान को क़रीब 15 करोड़ डॉलर और बढ़ा देने का वचन दिया है।
नया ढाँचा अपने ढंग का संसार का सबसे बड़ा ढाँचा होगा। उसकी मेहराब 100 मीटर ऊँची, 160 मीटर चौड़ी और 250 मीटर लंबी होगी। दुर्घटनाग्रस्त रिएक्टर के पास रेडियोधर्मी विकिरण अब भी इतना अधिक है कि इस ढाँचे को ठीक वहीं बनाने के बदले वहाँ से कुछ दूर बनाया जायेगा और विशेष प्रकार की रेल-पटरियों पर रख कर वहाँ तक पहुँचाया जायेगा। अधिकांशतः उच्चकोटि के इस्पात के बने इस दैत्याकार ढाँचे का भार 29 हज़ार टन होगा। ज़रा सोचिये, 29 हज़ार टन इस्पात और सीमेंट-कंक्रीट चाहिये 180 टन रेडियोधर्मी कचरे को ढकने के लिए!
मोह तब भी भंग नहीं हुआ : होना तो यह चाहिये था कि चेर्नोबिल की परमाणु विभीषिका से परमाणु ऊर्जा के प्रति मनुष्य का मोह भंग हो जाता, उसके स्वच्छ और सस्ता होने का भ्रम टूट जाता। किंतु, ऐसा न तो हुआ और न निकट भविष्य में होने की संभावना है। ऐसा लगता है, मानो परमाणु बिजलीघर वाले सभी देशों की सरकारें एकमत हैं कि इन बिजलीघरों से पैदा होने वाले ख़तरों को छिपाना और जनता को भरमाना न केवल उनका स्वाभाविक अधिकार है, परम कर्तव्य भी है। उन्हें आम जनता से अधिक परमाणु ऊर्जा लॉबी के हितों की चिंता सताती है।
चेर्नोबिल दुर्घटना के बाद केवल दो प्रमुख देशों-- इटली और ऑस्ट्रिया-- ने परमाणु बिजलीघरों से पिंड छुड़ाने का निश्चय किया। इटली ने 1987 में अपने सभी परमाणु बिजलीघर बंद कर दिये, हालाँकि कुछ समय पहले अब वहाँ की सरकार ने भी फ्रांस के सहयोग से आठ नये परमाणु बिजलीघर बनाने का समझौता किया है।। ऑस्ट्रिया ने उन्हीं दिनों बन कर तैयार हुए अपने पहले और एकमात्र पमाणु बिजलीघर को चालू करने की कभी अनुमति ही नहीं दी। यह बिजलीघर आज ऐसे जिज्ञासुओं के लिए म्यूज़ियम का काम करता है, जो जानना चाहते हैं कि परमाणु बिजलीघर भीतर से होता कैसा है। ऑस्ट्रिया अपने परमाणु-परहेज़ पर अब भी अटल है।
जर्मनी का आपदा प्रबंधन : जर्मनी ने अपने परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को बंद करने या घटाने के बदले नागरिकरक्षा तंत्र और आपदा प्रबंधन को और अधिक चुस्त-दुरुस्त करने का कार्यक्रम बनाया। अपनी सवा आठ करोड़ जनता के लिए जर्मनी ने 319 ऐसे ABC-टोही वाहन बनाए हैं, जो किसी भी परमाणविक, जौविक या रासायनिक दुर्घटना की दूर से ही टोह लेकर आपदा प्रबंधन अधिकारियों को तुरंत सूचित कर सकते हैं।
जर्मन जनता के लिए रेडियोधर्मी विकिरण का ख़तरा होने पर 323 ऐसे ''डी-कंटैमिनेशन ट्रक'' उपलब्ध रहेंगे, जो विकिरणरोधी ओवरऑल पहने विशेष बचावकर्मियों को, उनके सारे साज-सामान के साथ, दुर्घटनास्थल पर पहुँचायेंगे। ये बचावकर्मी लोगों को आयोडीन की गोलियाँ देंगे और उन्हें पानी के फ़ौव्वारे से विकिरणकारी कणों वाली धूल या राख से मुक्त करेंगे। हर ट्रक के पास प्रतिघंटे 50 लोगों को विकिरण-मुक्त करने की क्षमता है। ताकि बचावकर्मी स्वयं भी विकिरण से मुक्त रह सकें, जर्मनी की केंद्र और राज्य सरकारों ने उन के लिए 53 हज़ार विकिरणरोधी विशेष सूट ख़रीदे हैं।
जापान भ्रम को पालता रहा : भारत सहित अधिकांश देशों ने यह भी नहीं किया है। उनकी सरकारें अब भी यही माने बैठी हैं कि उनके यहाँ चेर्नोबिल जैसी किसी बड़ी दुर्घटना की गुंजाइश ही नहीं है। 65 साल पहले हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराये गये अमेरिकी परमाणु बमों की प्रलयलीला झेल चुका जापान भी इसी भ्रम को पालता रहा है। सभी जानते हैं कि जापानी भूमि भूकंप के झटकों से थरथराने के लिए प्रसिद्ध है। दैत्याकार समुद्री लहरों को ''त्सुनामी'' नाम जापानी भाषा ने ही दिया है। तब भी वहाँ 55 परमाणु बिजलीघर देश की 30 प्रतिशत बिजली पैदा कर रहे थे। कई नये बनने वाले हैं, ताकि यह अनुपात 2020 तक बढ़ कर 40 प्रतिशत हो जाये।
जापानी ऊँट को भी पहाड़ दिखाई पड़ा : गत मार्च महीने के मध्य में एक महाशक्तिशाली भूकंप ने जब जापान के फुकूशिमा बिजलीघर को अंधेरे में डुबा दिया और उस के दो रिकक्टरों से रेडियोधर्मी विकिरण फैलने लगा, तब जापानी ऊँट को भी पहाड़ दिखाई पड़ने लगा। चार सप्ताहों तक टालमटोल करने के बाद जापान को भी मानना पड़ा कि फुकूशिमा परमाणु दुर्घटना भी, इस तरह की दुर्घटनाओं के गंभीरता-सूचक अंतरराष्ट्रीय पैमाने के अनुसार, उसी सर्वोच्च सातवीं श्रेणी की दुर्घटना है, जो चेर्नोबिल दुर्घटना की भी गंभीरता-सूचक थी।
फुकूशिमा में रिएक्टर-विस्फोट उतना एकबारगी और प्रचंड भले ही न था, जितना चेर्नोबिल में था, और वह अगले 25 वर्षों में उतने प्रणों की बलि भी शायद नहीं लेगा, जितनी गत 25 वर्षों में चेर्नोबिल ने ली है, पर लोगों के स्वास्थ्य और देश की अर्थव्यवस्था के लिए उसके दूरगामी परिणाम भी कम गंभीर नहीं हैं। सबसे बड़ा अनिश्चय तो यह है कि वहाँ के दुर्घटनाग्रस्त रिएक्टरों की अंदरूनी हालत अभी भी कोई नहीं जानता। अभी भी पुनः कोई धमाका हो सकता है। यह भी नहीं पता कि दुर्घटना पर काबू पाने की लड़ाई अभी कब तक चलेगी। कुछ जानकारों का मानना है कि इस में 6 से 12 महीने तक लग सकते हैं।
फुकूशिमा के आस-पास के 20 किलोमीटर चौड़े क्षेत्र को भी वर्जित क्षेत्र घोषित करना पड़ा है। वहाँ से हटाये गये एक लाख 30 हज़ार लोग हफ्तों से स्कूलों और जिम्नैस्टिक हॉलों जैसे शरण-स्थानों पर रह रहे हैं। उन के लिए 72 हज़ार नये आवास बनाने पड़ेंगे। रोज़ी-रोटी की व्यवस्था करनी पड़ेगी। उनके तन-मन को क्या भुगतना पड़ रहा है, वे ही जानते हैं। बिजलीघर की मालिक कंपनी प्रति व्यक्ति लगभग केवल 10 हज़ार डॉलर क्षतिपूर्ति देगी।
परमाणु बिजली से अब भी दूरी नहीं : तब भी, न तो जापान की सरकार ने एक बार भी ऐसा संकेत दिया है कि परमाणु बिजली से अब दूरी बनायी जायेगी और न जनता की ओर ही ऐसी कोई ज़ोरदार माँग हो रही है। ईस्टर वाले रविवार (24अप्रैल) को फुकूशिमा दुर्घटना के कारण टोकियो में हुए अब तक के सबसे बड़े विरोध प्रदर्शन में केवल तीन हज़ार लोगों ने भाग लिया। उस से पहले के एक प्रदर्शन में केवल 30 लोग आये थे। दुनिया आत्मघाती आतंकवादियों की निंदा करती है। यहाँ तो हम देख रहे हैं एक पूरा देश परमाणविक आत्मघात (जापानी भाषा में हाराकिरी) पर उतारू है।
जर्मनी की राजनीति में भूकंप : फुकूशिमा परमाणु दुर्घटना से जापान से कहीं अधिक उससे आधी दुनिया दूर जर्मनी की राजनीति में भूकंप आया हुआ है। सरकार को देश के 17 परमाणु बिजलीघरों में से 7 को तुरंत बंद करने का आदेश देना पड़ा। पुराने बिजलीघरों का जीवनकाल बढ़ाने के छह ही महीने पुराने क़ानून को निरस्त करना पड़ा। देश के सभी परमाणु बिजलीघर कितने सुरक्षित या असुरक्षित हैं, इसकी जाँच कर तीन महीने के भीतर रिपोर्ट पेश करने की घोषणा करनी पड़ी।
इस जाँच में रिएक्टरों और उनके भवनों की बनावट के तकनीकी पक्षों के अलावा यह भी देखा जायेगा कि वे किस शक्ति तक के भूकंप सह सकते हैं, क्या आतंकवादियों के बमप्रहारों, उनके द्वारा अपहृत हवाई जहाज़ों तथा कंप्यूटर वायरसों के हमलों को भी झेल सकते हैं। कुछ जानकारों का मत है कि जर्मनी के कई परमाणु बिजलीघर इस परीक्षा फ़ेल हो सकते हैं।
जनता के संतोष के लिए जर्मन सरकार को दबी ज़बान यह भी कहना पड़ा कि रिपोर्ट के बाद परमाणु ऊर्जा का पूरी तरह परित्याग भी असंभव नहीं है। तब भी, देश के दो प्रमुख राज्यों में मार्च के अंत में हुए विधानसभा चुनावों में परमाणु ऊर्जा समर्थक वहाँ की अब तक की सत्तारूढ़ पर्टियों की लुटिया डूब गयी। जर्मनी के इतिहास में पहली बार परमाणु ऊर्जा की कट्टर विरोधी ग्रीन पार्टी का एक नेता किसी राज्य का मुख्यमंत्री बनने जा रहा है। ग्रीन पार्टी परमाणु ऊर्जा की अर्थी उठते देखना चाहती है। जनमत सर्वेक्षणों में वह अपनी लोकप्रियता के पिछले सारे रेकॉर्ड तोड़ रही है।
परमाणु विरोध की सबसे लंबी परंपरा : जर्मनी में परमाणु अस्त्रों ही नहीं, परमाणु ऊर्जा के विरोध की भी संसार की संभवतः सबसे लंबी परंपरा रही है। इस तरह के विरोध प्रदर्शनों, धरनों और रैलियों का होना 1980 वाले दशक के आरंभ से ही शुरू हो गया था। शांतिवादी युवाओं की एक नयी राजनैतिक संकृति पनपने लगी थी। उन्हीं युवा आन्दोलनकारियों के बीच से बाद में जर्मनी की आज की पर्यावरण-प्रेमी और शांतिवादी ग्रीन पार्टी का जन्म हुआ। उन दिनों पुरानी पार्टियाँ '' ग्रीन्स'' की खिल्ली उड़ाती थीँ। उन्हें बचकाना और अधकचरा बताती थीं। उनसे अछूतों जैसी दूरी रखती थीं। जर्मन राजनीनैति की यही अछूत पार्टी आज देश की तीसरी सबसे बड़ी वोट-बटोर पार्टी है।
आँकड़े बताते हैं कि 1986 में चेर्नोबिल दुर्घटना के तीन वर्ष बाद तक बिजली पैदा करने वाले परमाणु रिएक्टरों की संख्या पूरे संसार में अपेक्षाकृत तेज़ी से बढ़ रही थी। 1989 में संसार भर में यह संख्या 423 थी। इसके बाद वृद्धिदर कुछ धीमी पड़ गयी। 2002 में 444 रिएक्टरों की रेकॉर्ड संख्या के बाद 2009 में वह घट कर 436 हो गयी। 2008 के बाद से कहीं कोई नया संयंत्र चालू नहीं हुआ।
इस समय संसार भर में 37 नये रिएक्टर बन रहे हैं, हालाँकि एक नये सर्वे के अनुसार बिजली उत्पदक रिएक्टरों की कुल संख्या 2030 तक 30 प्रतिशत घटेगी। ऐसा बहुत पुराने पड़ गये रिएक्टरों को बंद करने और पानी, धूप तथा हवा जैसे अक्षय स्रोतों वाली वैकल्पिक ऊर्जा का अनुपात बढ़ने से होगा।
रिएक्टर विस्फोट की दुबारा मार भी बेकार : तब भी, सबसे बड़ा तथ्य यही है कि चेर्नोबिल के बाद 25 वर्षों में ही फुकूशिमा में भीषण रिएक्टर विस्फोट की दुबारा मार सहने के बावजूद परमाणु ऊर्जा से पूरी तरह परहेज़ करने की मानसिकता, जर्मनी और उसके जर्मनभाषी पड़ोसी ऑस्ट्रिया को छोड़ कर, संसार के किसी और देश में नहीं देखने में आ रही है। सब जगह की सरकारें अपनी जनता को परमाणु ऊर्जा के दूरगामी दुष्परिणामों के प्रति अंधेरे में रखने और मीडिया के माध्यम से यह पट्टी पढ़ाने में सफल मालूम पड़ रही हैं कि परमाणु ऊर्जा सस्ती, पर्यावरण के लिए साफ़-सुथरी और तकनीकी दृष्टि से सुरक्षित है।
हम भी तो प्रश्न नहीं उठाते : यह प्रश्न कोई नहीं उठाता कि क्या हमारे पास लाखों वर्षों तक विकिरणकारी परमाणु कचरे के ऐसे सुकक्षित भंडारण की कोई स्थाई जगह भी है, जहाँ वह 100-200 नहीं, कम से कम लाख-दो लाख वर्षों तक पड़ा रहे और हर प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं को भी झेल सके। यह कचरा तो हर समय निकलता है, तब भी, जब कोई दुर्घटना नहीं होती।
कोई नहीं पूछता कि परमाणु बिजलीघर इतने ही सुरक्षित हैं, तो संसार की कोई बीमा कंपनी उनका बीमा करने को क्यों नहीं तैयार होती। दुर्घटना होने पर बीमा कंपनी को ही पीड़ितों को क्षतिपूर्ति देनी होती, हम करदताओं के पैसों से चलने वाली सरकार को नहीं।
इसी तरह यह भी कोई नहीं पूछता कि यदि परमाणु कचरे के भंडारण और दुर्घटना के दशकों बाद तक चलने वाले दुष्परिणामों का ख़र्च परमाणु बिजलीघर के संचालकों को देना पड़ता, तो क्या तब भी उनकी बिजली उतनी ही सस्ती रहती, जितना सस्ता होने का दावा किया जाता है।
सबसे सूक्ष्म ही सबसे विराट है : हम न तो इस तरह के प्रश्न पूछते हैं और न अभी तक समझ और स्वीकार कर पाये हैं कि सबसे सूक्ष्म ही सबसे विराट है। वही परम शक्तिशाली है। पदार्थ जगत में परमाणु ही सबसे सूक्ष्म है, इसलिए वही सबसे विराट, सबसे शक्तिशाली और सबसे विनाशकारी भी है। उसके साथ छेड़-छाड़ अंततः प्रगति नहीं, दुर्गति ही सिद्ध होगी। उन्नति का भ्रम पैदा कर अवनति के गर्त में ही ले जायेगी।
चेर्नोबिल भी कभी प्रगति का प्रतिमान हुआ करता था। आज वीरान और सुनसान है। हम उसकी सुनसानी की चीख को सुनना नहीं चाहते। हमारी सरकारें खुश हैं कि हम अपने मीडिया में हॉलीवुड, बॉलीवुड, क्रिकेट और जब-तब भ्रष्टाचार की चटखरेदार सुपाच्य कहानियों का मज़ा गरिष्ठ प्रश्नों की दुरूह चर्चा से किरकिरा नहीं करना चाहते।