यूरोप में कारें बंद, मुफ्त सार्वजनिक परिवहन और दुनिया में कई चीजों की कीमतों का बढ़ना, यूरोप रूसी तेल का आयात धीरे-धीरे बंद करने वाला है जिसके नतीजे में यह सब हो सकता है। यूरोप में रूसी तेल का आना बंद हुआ तो क्या होगा।
यूरोपीय संघ के कार्यकारी आयोग ने छह महीने में रूसी तेल के आयात को धीरे-धीरे खत्म करने की योजना का प्रस्ताव पेश कर दिया है। यूरोप हर दिन ऊर्जा आयात के बदले 85 करोड़ अमेरिकी डॉलर का भुगतान रूस को करता है जिसे खत्म करने की कोशिश की जा रही है। मकसद है रूस को इस पैसे का इस्तेमाल यूक्रेन युद्ध में करने से रोकना।
हालांकि कई दशकों से रूसी तेल और गैस पर निर्भर 27 देशों के यूरोपीय संघ के लिए इसे खत्म करना इतना आसान नहीं है। सबसे पहले तो यूरोपीय देशों में ही इसे लेकर पूरी तरह से एकता नहीं है। संघ में शामिल हंगरी और स्लोवाकिया ने कह दिया है कि वे बॉयकाट का साथ नहीं देंगे। जमीनी सीमाओं से घिरे ये दोनों देश रूसी तेल का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करते हैं। आइए समझते हैं कि तेल प्रतिबंधों का यूरोप और बाकी दुनिया के लिए क्या मतलब होगा।
यूरोप ऊर्जा के लिए रूस को कितने पैसे देता है?
युद्ध का भारी विरोध करने के बावजूद रूसी तेल और गैस का यूरोपीय देशों में बहाव जारी है। यूरोपीय संघ हर दिन तेल के लिए 45 करोड़ डॉलर और गैस के लिए 40 करोड़ डॉलर रूस को देता है। ये आंकड़े ब्रसेल्स के थिंक टैंक ब्रुएगल के हैं।
जाहिर है कि ऊर्जा से होने वाली कमाई रूस के बजट को मजबूती दे रही है। इससे उसका विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ रहा है जो रूबल को मदद देने के साथ ही उसके लिए बड़ा सहारा है क्योंकि पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों के कारण देश के बाहर मौजूद विदेशी मुद्रा तो ज्यादातर जब्त हो गई है।
कितना तेल आता है यूरोप में
यूरोप रूसी कच्चे तेल का सबसे बड़ा खरीदार है। 2020 में रूस के 26 करोड़ टन कच्चे तेल के निर्यात में से 13.8 करोड़ टन यानी 53 फीसदी यूरोप में आया था। ये आंकड़े बीपी स्टैटिस्टिकल रीव्यू ऑफ द वर्ल्ड एनर्जी के हैं। यूरोप कच्चे तेल के अपने इस्तेमाल का लगभग पूरा हिस्सा आयात करता है जिसमें एक चौथाई उसे रूस से लेने की जरूरत पड़ती है।
कच्चे तेल को रिफाइन कर गर्मी और ड्राइविंग के लिए ईंधन हासिल किया जाता है साथ ही कई उद्योंगों के लिए कच्चा माल भी।
प्राकृतिक गैस की बजाय तेल पर ज्यादा ध्यान क्यों है?
प्राकृतिक गैस का वैकल्पिक स्रोत ढूंढना मुश्किल है क्योंकि इसकी सप्लाई पाइपलाइन के जरिए होती है। तेल के लिए वैकल्पिक स्रोत खोजना आसान है क्योंकि यह टैंकरों के जरिए आता है और पूरी दुनिया में इसे खरीदने, बेचने और एक जगह से दूसरी जगह ले जाने की व्यवस्था है। यही वजह है कि फिलहाल नेचुरल गैस के बायकॉट पर चर्चा नहीं हो रही है।
गैस का भारी इस्तेमाल करने वाले देश मसल जर्मनी का कहना है कि तुरंत गैस की सप्लाई रोकने से नौकरियां जाएंगी क्योंकि उद्योग संघ कांच और धातु से जुड़े कारोबार तुरंत बंद होने की चेतावनी दे रहे हैं। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि प्राकृतिक गैस और तेल दोनों का आयात बंद कर देने से यूरोप में मंदी आ सकती है।
रूसी तेल की सप्लाई रूकी तो क्या होगा?
यूरोप युद्ध शुरू होने के पहले हर दिन 38 लाख बैरल तेल आयात करता था। सैद्धांतिक रूप से यूरोपीय खरीदार इसे मध्यपूर्व के सप्लायरों से हासिल कर सकते हैं। फिलहाल मध्यपूर्व का तेल प्रमुख रूप से एशिया को जाता है। इसके साथ ही यूरोप के पास अमेरिका, लातिन अमेरिका और अफ्रीका से भी तेल खरीदने का विकल्प मौजूद है। इस बीच सस्ता रूसी तेल एशिया में मध्यपूर्व के तेल की जगह ले सकता है।
हालांकि मौजूदा व्यवस्था को बदलने में थोड़ा वक्त लगेगा। नई सप्लाई कहीं और से खोजनी होगी। मध्य और पूर्वी यूरोप की कई बड़ी रिफाइनरियां सोवियत जमाने के पाइपलाइनों से आने वाले तेल पर निर्भर हैं उन्हें गैसोलीन और दूसरे सामानों को बनाने के तेल का कोई और जरिया ढूंढना होगा।
ब्रुएगल के विशेषज्ञों का मानना है कि यूरोपीय देशों को तेल के इस्तेमाल में कटौती के लिए तैयार रहना चाहिए। सार्वजनिक परिवहन को मुफ्त करने के अलावा कार शेयरिंग को भी बढ़ावा देना होगा। अगर ये उपाय काम नहीं करते तो फिर ड्राइविंग रोकने के लिए ऑड इवेन नंबर जैसे तरीके आमजाने पड़ेंगे। 1973 में जब तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक ने ऑयल इमबार्गो लगाया था तब जर्मनी में कार फ्री संडे का नियम लागू किया गया था।
रूस यूरोप के ट्रकों और कृषि उपकरणों के लिए डीजल का प्रमुख सप्लायर है। जाहिर है कि तेल की सप्लाई कम होने पर खाने-पीने से लेकर तमाम दूसरी चीजों की कीमतें बढ़ेंगी।
तेल के वैश्विक बाजार पर क्या असर होगा?
आशंका है कि तेल की कीमतें हर किसी के लिए बढ़ेंगी क्योंकि तेल एक वैश्विक उत्पाद है। इसका मतलब है कि पंपों पर तेल की कीमत बढ़ने के साथ ही घरों को गर्म रखने का खर्च भी बढ़ेगा और आण परिवारों के पास दूसरे खर्चों के लिए कम पैसे होंगे। सम्मिलित रूप से इसका असर कोविड-19 की महामारी से उबरने की कोशिश कर रही अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।
अपना सबसे बड़ा खरीदार खोने के बाद रूस कम तेल का उत्पादन और निर्यात करेगा। रूस के लिए सारे निर्यात को यूरोप से दूरदराज एशिया तक ले जाना इतना आसान नहीं है। माल ढुलाई के लिए शिपिंग लेकर तमाम दूसरे तरह की समस्याएं सामने होंगी। दुनियाभर में कच्चे तेल के प्रवाह पर इसके बड़े नतीजे होंगे।
भारत और चीन पश्चिम के प्रतिबंधों की आशंका से रूसी तेल से दूर जा सकते हैं। पश्चिमी ग्राहक पहले ही रूसी तेल का त्याग कर रहे है क्योंकि वो इस देश के साथ कारोबार करना नहीं चाहते दूसरे उनके लिए ऐसे बैंक या इंश्योरेंस कंपनी ढूंढने की समस्या होगी जो इन सौदों में साथ आ सकें।
दूसरी तरफ कुछ एशियाई देश डिस्काउंट पर रूसी तेल खरीदने के लिए आगे आ सकते हैं। खासतौर से जबकि इस तेल के कारोबार को हिसाब में ना रखा जाए। जैसा कि कुछ मामलों में होता दिख रहा है।
ओपेक के कार्टेल का नेतृत्व सऊदी अरब के हाथ में है जो गैर सदस्य सहयोगी देशों के साथ उत्पादन का स्तर तय करता है। उसने साफ कर दिया है कि वह रूस के बायकॉट के कारण होने वाली सप्लाई में कमी को पूरा करने के लिए उत्पादन का स्तर नहीं बढ़ाएगा। गुरुवार को ओपेक की फिर से बैठक है।
ऊर्जा रिसर्च करने वाली राइस्टाड एनर्जी को उम्मीद है कि हर दिन 15 से 20 लाख बैरल तेल का नुकसान हो सकता है और इसकी वजह से इस साल के आखिर तक कच्चे तेल की कीमत 120 से 130 डॉलर प्रति बैरल तक जाएगी।
एक और आकलन किया गया है कि अगर यूरोप का छोड़ा तेल ऊर्जा के भूखे देश खरीद लेते हैं और प्रतिबंधों में हिस्सा नहीं लेते तो हर दिन 10 लाख बैरल तेल का नुकसान होगा। तब तेल की कीमतें जून में 100 डॉलर प्रति बैरल तक होगी जो इस साल के आखिर तक घट कर 60 डॉलर प्रति बैरल तक चली जाएगी।
बायकॉट का रूस पर कितना असर होगा
रूसी बजट का प्रमुख स्तंभ ऊर्जा है। रूसी सरकार को 2011 से 2020 के बीच अपनी आय का 43 फीसदी तेल और प्राकृतिक गैस से मिला। हालांकि यह इतना सरल नहीं है। यूरोप को रूसी तेल के एक्सपोर्ट का बेंचमार्क यूराल क्रूड, अंतरराष्ट्रीय बेंचमार्क ब्रेन्ट की तुलना में 35 डॉलर प्रति बैरल तक नीचे चला गया है। हालांकि तेल की ऊंची कीमतों के कारण रूस के राजस्व में नुकसान अब तक कम ही रहा है। विदेशी मुद्राओं की यही कमाई प्रतिबंधों के दौर में रूस का सहारा बन रही है।
जानकार यह भी कह रहे हैं कि यूरोपीय संघ का रूसी तेल पर धीरे-धीरे प्रतिबंध लगाना एक जोखिम वाला जुआ है। मुमकिन है कि कुछ समय के लिए यह रूसी राजस्व बढ़ा दे। इतना ही नहीं यूरोपीय संघ और दुनिया को इसके नतीजे में ऊंची कीमतों का सामना करना भी पड़ सकता है। एक आशंका यह भी है कि तेल की बिक्री में कटौती से नाराज रूस गैस की सप्लाई में कटौती शुरू कर दे। - एनआर/आरपी (एपी)