हाल के समय में केरल में वायनाड के भूस्खलन की ही तरह भारत के अलग-अलग हिस्सों में पर्यावरणीय आपदाओं की कई बड़ी घटनाएं हुई हैं। ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि क्या भारत को जलवायु परिवर्तन को और गंभीरता से नहीं लेना चाहिए?
केरल के वायनाड जिले में 30 जुलाई को हुई भूस्खलन की विनाशकारी घटना में जीवित बचे प्रसन्ना कुमार ने अपनी बहन और उसके परिवार को पानी के तेज बहाव में बहते हुए देखा। कई अन्य लोग जो सो रहे थे, वे भी पानी के तेज बहाव में बह गए।
राहत शिविर में रह रहे कुमार ने डीडब्ल्यू को बताया, "मैंने इस क्षेत्र में कई भूस्खलन देखे हैं, लेकिन यह काफी विनाशकारी था। एक पल में ही धरती हिलने लगी और मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गई। इसके बाद चारों ओर मौत और तबाही का भयावह मंजर था।”
संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र
कुमार के रिश्तेदार सहित करीब 200 लोग अब भी लापता हैं। इनकी खोज के लिए लंबे समय तक बचाव अभियान चलाया गया, लेकिन अब यह अभियान भी बंद हो रहा है। इस प्राकृतिक आपदा ने 300 से अधिक लोगों की जान ले ली। काफी ज्यादा संपत्ति और बुनियादी ढांचे को नुकसान पहुंचा। इस आपदा ने यह भी सोचने पर मजबूर किया है कि क्या भारत को भविष्य में पर्यावरणीय आपदाओं से बचने के लिए और कदम उठाने चाहिए।
नई दिल्ली में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की निदेशक सुनीता नारायण ने कहा कि हिमालयी क्षेत्र में आने वाली प्राकृतिक आपदाएं इस बात का उदाहरण हैं कि वनों की कटाई और बिना सोचे-समझे किए जा रहे निर्माण कार्य जैसी नुकसानदेह गतिविधियों को पर्यावरण सहन नहीं कर सकता।
पिछले साल, उत्तराखंड के जोशीमठ शहर के धंसने' की खबर आयी थी। शहर की इमारतों और सड़कों में दरारें पड़ गई थीं। अक्टूबर में सिक्किम में एक हिमनद झील वाला बांध टूट गया था। नवंबर में हिमालय की सिलक्यारा सुरंग का कुछ हिस्सा धंसने के कारण 40 से अधिक भारतीय मजदूर 17 दिनों तक फंसे रहे थे।
नारायण ने डीडब्ल्यू से कहा, "यह हमारी नासमझी का सिर्फ एक उदाहरण यह है कि हम किस तरह हिमालय के संवेदनशील क्षेत्र में जल विद्युत परियोजनाएं बना रहे हैं। क्या यह तय करने के लिए बेहतर योजना नहीं होनी चाहिए कि लोगों और पारिस्थितिकी के लिए क्या अच्छा है? सबसे अहम बात यह है कि इन संकटग्रस्त क्षेत्रों के लोगों के पास आजीविका के अच्छे विकल्प होने चाहिए।”
विशेषज्ञों की सिफारिशों को अधिकारियों ने किया नजरअंदाज
केरल के जिस पश्चिमी घाट में भूस्खलन की विनाशकारी घटना हुई वह क्षेत्र भी पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील है। वहां पर्यावरणविदों के सुझावों को नजरअंदाज किया गया। खतरनाक और गलत जगहों पर खदानों की खुदाई और वनों की कटाई की गई।
पर्यावरण वैज्ञानिक माधव गाडगिल के नेतृत्व में एक विशेषज्ञ पैनल ने 2010 में सिफारिश की थी कि पश्चिमी घाट के 1,29,037 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के 75 फीसदी हिस्से को पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील घोषित किया जाना चाहिए, क्योंकि वहां घने जंगल हैं और कई स्थानीय प्रजातियां मौजूद हैं। हालांकि, एक अन्य पैनल की सिफारिशों के आधार पर इसे तीन साल बाद ही घटाकर 50 फीसदी कर दिया गया।
मातृभूमि समाचार पत्र ने गाडगिल की रिपोर्ट का हवाला देते हुए लिखा है कि केरल में 5,924 खदानें हैं। इनमें कुछ खदानें पारिस्थितिक रूप से सबसे ज्यादा संवेदनशील इलाकों में भी हैं। हालांकि, सभी खदानों के लिए सरकार से मंजूरी नहीं मिली है, लेकिन बिना परमिट वाले खदानों के ऊपर शायद ही कार्रवाई की जाती है।
गाडगिल ने कहा कि भूस्खलन की यह भयावह घटना इसलिए हुई है कि केरल सरकार ने पारिस्थितिकी से जुड़ी अहम सिफारिशें लागू नहीं की। उन्होंने मीडिया को बताया, "कठोर चट्टान के उत्खनन और भूस्खलन के रूप में ढलान के टूटने के बीच सीधा संबंध है, खासकर वायनाड जैसे क्षेत्र में।”
भारत की मौसम चेतावनी प्रणाली कितनी अपडेटेड है?
केरल का लगभग आधा हिस्सा पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्र है जहां ढलान 20 डिग्री से अधिक है। भारत के भूस्खलन एटलस के मुताबिक, 1998 से 2022 के बीच देश के 17 राज्यों में हुई भूस्खलन की करीब 81,000 घटनाओं के आधार पर हाल में किए गए आकलन से पता चला है कि केरल में भूस्खलन की 6,039 घटनाएं हुईं। यह गैर-हिमालयी राज्यों में सबसे ऊपर था यानी यह हिमालयी राज्यों के बाद सबसे अधिक प्रभावित राज्य है।
इंसानी गतिविधियों की वजह से हो रहा जलवायु परिवर्तन पहले से ही भारत में चरम मौसम की घटनाओं को बढ़ा रहा है जिसमें गर्म लहरें और बाढ़ शामिल हैं। ऐसी घटनाओं से केरल की खड़ी ढलानों जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में आपदाओं के बढ़ने की आशंका है। हालिया आपदा से पहले, वायनाड में सिर्फ 48 घंटों में असामान्य रूप से 572 मिलीमीटर बारिश हुई थी जिससे बड़े पैमाने पर भूस्खलन हुआ।
ब्रिटेन स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग के मौसम विज्ञान विभाग और नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक साइंस के मौसम विज्ञानी अक्षय देवरस ने जलवायु में हो रहे नाटकीय बदलाव को देखते हुए भारत से अपनी मौजूदा चेतावनी प्रणाली को बदलने की मांग की है।
देवरस ने कहा, "अलग-अलग रंगों के जरिए चेतावनी दिखाने वाली मौजूदा प्रणाली और चेतावनी या पूर्वानुमान में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा कितनी असरदार है, इस बारे में फिर से विचार किया जाना चाहिए। इसके लिए, मीडिया, आम लोग, आपदा राहत बल और राज्य सरकारों से बातचीत की जानी चाहिए और उनकी राय लेनी चाहिए। ऐसी घटनाओं के लिए आपदा प्रबंधन के पारंपरिक तरीके काम नहीं करेंगे।”
उन्होंने सुझाव दिया कि भारत में डॉपलर रडार एवं उपग्रहों के इस्तेमाल, वास्तविक समय में की जा रही निगरानी और आम लोगों से सीधे बातचीत करके शुरुआती चेतावनी प्रणाली को ज्यादा मजबूत बनाया जाना चाहिए।
उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "मौसम पूर्वानुमान मॉडल को बेहतर बनाने पर भी ध्यान देने की जरूरत है। मौसम विज्ञानियों को सशक्त बनाया जाना चाहिए, ताकि वे लोगों को सीधे सचेत कर सकें। इससे अलर्ट जारी करने के लिए राज्य सरकारों या स्थानीय अधिकारियों पर निर्भरता कम होगी। अमेरिका में तूफानों का अनुमान लगाने और चेतावनी देने के लिए बहुत विकसित प्रणाली है। भारत भी इस तरह की प्रणाली को अपनाकर अपने मौसम पूर्वानुमान को बेहतर बना सकता है।”