भारत में बिजली की गंभीर कमी होने की बात कही जा रही है। विद्युत मंत्री जहां कोयले कमी की को नकार रहे हैं, वहीं प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से पावर प्लांट में कोयले की कमी का निरीक्षण कराए जाने की खबरें हैं।
कई पावर प्लांट्स में बिजली उत्पादन के लिए बिल्कुल भी कोयला न होने की खबरें हैं। इसके लिए मॉनसून के दौरान कोयला खनन में आई गिरावट और कोरोना की दूसरी लहर के बाद बढ़ी बिजली की मांग को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। हालांकि सरकार की ओर से अब तक इस मामले पर जो प्रतिक्रिया आई है, वह उलझाने वाली है। विद्युत मंत्री ने कोयले की कमी की होने की बात को पूरी तरह नकार दिया था। वहीं मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से थर्मल पावर प्लांट में कोयले की कमी का निरीक्षण किया जा रहा है।
कोयले की कमी की खबरों में कितनी सच्चाई है, इसे समझने के लिए डीडब्ल्यू ने 'कोयला घोटाले' के नाम से मशहूर कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाले के मामले में मुख्य याचिकाकर्ता रहे छत्तीसगढ़ के वकील और एक्टिविस्ट सुदीप श्रीवास्तव से बात की। इस मामले में भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर, 2014 में कोयल ब्लॉक आवंटन को मनमाना और गैरकानूनी ठहराया था। सुदीप इस मुद्दे पर भी सुप्रीम कोर्ट में लड़ाई लड़ रहे हैं कि चूंकि भारत के 15 फीसदी से भी कम हिस्से में घने वन बचे हैं, इसलिए कोयले की मांग को पूरा करने के लिए इसे नहीं छुआ जाना चाहिए।
वह दावा करते हैं, "भारत में कोयले की पर्याप्त मौजूदगी है और राज्यों के अंतर्गत आने वाले पावर प्लांट्स में इसकी कमी की अलग-अलग वजहें हैं।" वह यह भी कहते हैं, "भारत के किसी भी कोने में पावर प्लांट हो, कोयला पहुंचाने में अधिकतम तीन दिनों का समय लगेगा। बाकी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के पावर प्लांट्स में यह कुछ घंटों में पहुंचाया जा सकता है, ऐसे में यह डर बेवजह बनाया गया है।"
बिजली कमी में कितनी सच्चाई?
सुदीप श्रीवास्तव के मुताबिक, पिछले साल अप्रैल से सितंबर के बीच छह महीनों में कोयले का उत्पादन 28।2 करोड़ टन था। इस साल यह 31।5 करोड़ टन रहा है। यानी इसमें 12 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। कोरोना काल में इस पर ज्यादा असर नहीं पड़ा है क्योंकि इस दौरान सरकारी कंपनियां काम कर रही थीं। आम तौर पर मॉनसून के दौरान उत्पादन में कमी आती है लेकिन आंकड़े स्पष्ट कर रहे हैं कि इस बार पिछले साल से ज्यादा उत्पादन हुआ है। साल भर को पैमाना मानें तो भी 2019-20 के मुकाबले कोयला उत्पादन में खास कमी नहीं है।
कोल इंडिया के एक अधिकारी ने भी नाम न छापने की शर्त पर डीडब्ल्यू को बताया, "राज्य सरकारों के अंतर्गत आने वाले पावर प्लांट और एनटीपीसी जैसी सरकारी कंपनियों को कोयले की सप्लाई फ्यूल सप्लाई अग्रीमेंट (FSA) के तहत होती है। इसके बाद कोयले की सप्लाई पहले ही कर दी जाती है और भुगतान बाद में लिया जाता है। कई राज्यों ने समय से भुगतान नहीं किया है, जिसके चलते कोल इंडिया ने इनकी सप्लाई रोक दी है।" ऐसा करने वाले चार बड़े राज्य उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और राजस्थान हैं।
'जान-बूझकर बनाया खतरा'
जानकार मानते हैं कि कोल इंडिया की आपूर्ति रुकने के बाद भी चिंता नहीं होनी चाहिए। सुदीप श्रीवास्तव के मुताबिक, "भारत के पास जल, सौर और पवन ऊर्जा के जरिए करीब 1।4 लाख मेगावाट बिजली उत्पादन क्षमता है। बिजली वितरण कंपनियों से इसका इस्तेमाल करने के लिए क्यों नहीं कहा जा रहा? भारत की कुल बिजली उत्पादन क्षमता में कोयला और लिग्नाइट का हिस्सा 56 फीसदी है। लेकिन कुल बिजली उत्पादन का 76 फीसदी इनसे आता है। यानी हम अन्य स्रोतों की आधी क्षमता का भी इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं।"
वह कहते हैं, "भारत की कुल उत्पादन क्षमता करीब 3।9 लाख मेगावाट है। लेकिन बिजली की अधिकतम मांग अब तक 2 लाख मेगावाट से ज्यादा नहीं रही है। ऐसे में तब तक खतरा नहीं होना चाहिए, जब तक उसे जान-बूझकर न खड़ा किया जाए।" वह मानते हैं कि इसके पीछे कई स्तर पर प्राइवेट कंपनियों का हाथ है। ऐसा माहौल इन कंपनियों के लिए कानूनी छूट का प्रबंध करने के लिए बनाया जा रहा है। इसलिए विद्युत मंत्रालय ऐसे पावर प्लांट्स की लिस्ट नहीं जारी कर रहा, जिनके पास सिर्फ चार दिनों का कोयला बचा हुआ है।"
कोल ब्लॉक भी चाह रही हैं कंपनियां
सुदीप बताते हैं, "प्राइवेट कंपनियां अच्छी कोयला क्षमता वाली जमीनों को हथियाना चाह रही हैं। ये कंपनियां कोल बियरिंग एरियाज एक्विजीशन एंड डेवलपमेंट एक्ट, 1957 के तहत भी आना चाह रही हैं। इस कानून के तहत किसी जमीन पर रहने वाले लोगों को मुआवजा देने से पहले ही वहां कोयले का खनन शुरू किया जा सकता है। अभी तक कोल इंडिया जैसी कंपनियों को इस कानून के तहत कोयला खनन का अधिकार है। अब प्राइवेट कंपनियां भी चाहती हैं कि यह कानून उन पर लागू हो।"
ऐसा ही एक मामला छत्तीसगढ़ के हसदेव जंगलों में आने वाले पारसा कोल ब्लॉक का भी है। राजस्थान सरकार के अंतर्गत आने वाली विद्युत कॉरपोरेशन कंपनी राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को हजारों किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ में यह कोल ब्लॉक दिया गया था। उसने फिलहाल इसे खनन के लिए अडानी इंटरप्राइजेज को दे दिया है। यानी अपनी ही आवंटित जमीन से राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड बहुत महंगा कोयला खरीद रहा है।
सुदीप कहते हैं, "ये प्राइवेट कंपनियां, बिजली बेचने के दौरान खुले बाजार की बातें करती हैं लेकिन कोल ब्लॉक आवंटन जैसे मामलों में सरकारी छूट चाहती हैं। इनका ऐसा दोहरा रवैया क्यों है।"
लोगों को चुकाने होंगे ज्यादा पैसे
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सरकार की ओर से टाटा पावर और अडानी पावर को एक्सचेंज पर राज्यों को और बिजली बेचने का निर्देश दिया गया है। ऐसा एक्सचेंज पर बिजली के दाम औसतन 16 रुपये प्रति यूनिट तक चले जाने के बाद किया गया है। बिजली एक्सचेंज पर बिजली खरीदी-बेची जा सकती है। यहां मांग-आपूर्ति के हिसाब से बिजली का दाम तय होता है, यानी इसके दामों में बढ़ोतरी और गिरावट होती रहती है।
इस निर्देश के बाद अडानी पावर और टाटा पावर अपने आयातित कोयला आधारित गुजरात के प्लांट्स में एक या दो दिनों में बिजली उत्पादन शुरू कर सकते हैं। जानकार मानते हैं, जाहिर है कि इससे दामों में बहुत थोड़ी ही कमी होगी।
खास असर न होने की एक वजह यह भी है कि अब तक भारत में ज्यादातर आयातित कोयले से चलने वाले पावर प्लांट्स काम नहीं कर रहे हैं क्योंकि अंतरराष्ट्रीय कोयला बाजारों में कोयले के दाम 150 डॉलर प्रति टन तक के स्तर पर पहुंच चुके हैं। अडानी पावर और टाटा पावर देश के कई राज्यों से बिजली बेचने का करार भी कर रहे हैं। जानकार कहते हैं सभी बातें इस दिशा में बढ़ रही हैं कि जल्द ही भारत में बिजली उत्पादन और वितरण के क्षेत्र में प्राइवेट कंपनियों की भूमिका बढ़ने वाली है और लोगों को बिजली के लिए ज्यादा पैसा चुकाना होगा।