बाढ़, गरमी और बीमारीः जलवायु परिवर्तन का स्वास्थ्य पर असर पहले से ही महसूस किया जाने लगा है। जानकारों के मुताबिक, धरती की सेहत और हमारी अपनी सेहत के बीच एक संबंध बनाकर हम जलवायु कार्रवाई को अंजाम दे सकते हैं।
जलवायु परिवर्तन और मनुष्य के स्वास्थ्य के बीच जुड़ाव को देश अब धीरे धीरे स्वीकार करने लगे हैं। लेकिन वैश्विक गरमी के प्रतिकूल प्रभावों से निपटने के लिए वित्तीय मदद की कमी से गरीब देश जूझ रहे हैं। जानकारों के मुताबिक वहां स्वास्थ्य के प्रतिकूल प्रभाव देखे जा रहे हैं, चाहे वो कुपोषण हों या मच्छरों से होने वाली बीमारियां।
विश्व स्वास्थ्य संगठन में जनस्वास्थ्य, पर्यावरण और सामाजिक निर्धारकों की निदेशक मारिया नाइरा ने डीडब्ल्यू को बताया, "स्वास्थ्य के बारे में पहले चर्चा ही नहीं होती थी और अब इसी की सबसे ज्यादा चर्चा है। लोग कहते हैं कि हमें धरती को बचाना है लेकिन हमें दरअसल खुद को बचाना है। धरती हमसे बहुत बड़ी है, वो हमें सह लेगी।"
डब्ल्यूएचओ ने आगाह किया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण कुपोषण, मलेरिया, डायरिया और गर्मी या लू जैसे प्रभाव देखे जाने लगे हैं जिनसे हर साल करीब ढाई लाख अतिरिक्त मौतें हो सकती हैं। अगर ग्लोबल वॉर्मिंग को डेढ़ डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने का तरीका ढूंढने में, देश सफल भी हो जाएं तो दुनिया भर में अरबों लोगों की सेहत पर गंभीर असर पड़ना तय है।
स्वास्थ्य संबंधी देखरेख और बुनियादी ढांचे की कमी के अलावा पैसों की कमी से जूझ रहे विकासशील देशों पर सबसे अधिक गाज गिरेगी। नाइरा कहती हैं, "इन देशों को फंडिंग की जरूरत है। गरीब देशों के स्वास्थ्य केंद्र पहले से ही भारी दबाव में काम कर रहे हैं और वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी से पानी और खाद्यान्न उत्पादन कम हो रहा है जिसके चलते और बीमारियों से उन्हें निपटना पड़ रहा है।"
पहले से बिगड़ती सेहत
जलवायु परिवर्तन की वजह से दुनिया भर में स्वास्थ्य में गिरावट आ रही है। मिसाल के लिए, स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन पर लांसेट काउंटडाउन रिपोर्ट 2021 के मुताबिक, 65 साल के ऊपर के लोगों में 2019 के दरमियान स्वास्थ्य संबंधी कारणों से, अनुमानतः 345,000 की रिकॉर्ड मृत्यु दर दर्ज की गई थीं। लेकिन अप्रत्यक्ष असर भी होते हैं। ज्यादा गीले, ज्यादा गरम मौसम में बैक्टीरिया को पनपने का अवसर मिल जाता है जिससे हैजा जैसी बीमारियां होती हैं। डेंगू और मलेरिया के मच्छरों के पनपने के लिए भी ये आदर्श स्थितियां होती हैं।
दुनिया में गरमी बढ़ने के साथ साथ बीमारी फैलाने वाले कीड़े भी नये इलाकों में फैलेंगे। नाइरा कहती हैं, "एशिया के कुछ इलाकों में 35 फीसदी आबादी डेंगू के खतरे से घिरी है। इन आंकड़ों के बारे में हमें बहुत ध्यानपूर्वक विचार करने की जरूरत है क्योंकि ये एक लिहाज से 20 से 30 साल पीछे लौटने की तरह है।" कुछ असर तो छिपे हुए होते हैं। मलावी जैसे देश में कृषि श्रमशक्ति का 85 फीसदी हिस्सा महिलाओं से बनता है। और बढ़ते सूखे का मतलब है कि अपने परिवारों का पेट पालने और पानी जमा करने के लिए उन्हें लंबी दूरियां तय करनी पड़ेंगी। यह कहना है, मलावी राष्ट्रीय युवा जलवायु परिवर्तन नेटवर्क के राष्ट्रीय समन्वयक डोमिनिक आमोन न्यासुलु का।
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि इसकी वजह से लोगों में "बहुत सारी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं आ जाती हैं और तमाम तरह की लैंगिंक हिंसाएं भी सर उठाने लगती हैं।" लेकिन परिवार अपने बच्चों का ख्याल रखने में वे जितने कम सक्षम होंगे, बाल विवाह में बढ़ोत्तरी होगी। तो ऐसे में न्यासुलु के मुताबिक लड़कियों को अनचाहे और जबरन रिश्ते बनाने पड़ेंगे। वह कहते हैं, "वे एचआईवी और एड्स जैसे यौन संक्रमण के खतरों से घिर जाती हैं।"
स्वास्थ्य देखरेख में मजबूती
कॉप26 में बांग्लादेश, इथियोपिया और नीदरलैंड्स जैसे करीब 50 देशों के समूह ने स्वास्थ्य पर हो रहे प्रतिकूल प्रभावों से निपटने के लिए जलवायु के लिहाज से लचीली या जलवायु-उन्मुख स्वास्थ्य प्रणालियां अपने अपने यहां विकसित करने की प्रतिबद्धता जताई है। इन उपायों में स्वास्थ्य देखरेख से जुड़े कार्यबल को मजबूत करना, अस्पतालों का निर्माण और बाढ़ आदि से निपटने के लिए बुनियादी ढांचे के विकास जैसे उपाय शामिल हैं।
और भी देश स्वास्थ्य के लिहाज से सोचने लगे हैं। डब्लूएचओ की स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन वैश्विक सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक, पेरिस समझौते के तहत ये देश अपनी अपनी राष्ट्रीय जलवायु योजनाओं में, उत्सर्जन में कटौती के लाभों से लेकर हेल्थकेयर सिस्टम के अनुकूलनों को प्राथमिकता दे रहे हैं।
स्वास्थ्य देखरेख के नये तरीकों के तहत शहरों को ठंडा रखने के प्रभावशाली तरीके तैयार करना भी शामिल है ताकि बेतहाशा गरमी से होने वाली बीमारी और मृत्यु को टाला जा सके। इसके अलावा बाढ़ के दौरान पीने के पानी को दूषित होने से बचाने वाली जल आपूर्ति और सैनिटेशन सिस्टम भी बनाए जा सकते हैं।
सर्वे ने पाया कि देशों ने फंडिंग की कमी को अपने यहां जलवायु और स्वास्थ्य योजनाओं के अमल में एक अवरोध की तरह देखा है। डब्लूयूएचओ का एक अन्य विश्लेषण कहता है कि सिर्फ 0.5 प्रतिशत बहुपक्षीय जलवायु वित्त ही स्वास्थ्य परियोजनाओं को हासिल हो पाता है।
वीमन लीडर्स फॉर प्लेनिटरी हेल्थ की संस्थापक और कार्यकारी निदेशक निकोल डे पाउला ने डीडब्ल्यू को बताया कि उसी दौरान एक करोड़ डॉलर से कुछ ज्यादा की रकम हर मिनट पर, फॉसिल ईंधन की सब्सिडी में निकल जाती है। वह कहती हैं, "हमें हर हाल में राष्ट्रीय बजटों को पेरिस समझौते की प्राथमिकताओं के लिहाज से ढालना होगा।"
जलवायु कार्रवाई के स्वास्थ्य लाभ
संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में पहली बार, डब्ल्यूएचओ को भी एक पैविलियन मिला जहां उसने पूरे दो हफ्ते का प्रोग्राम चलाया। इसका लक्ष्य धरती और इंसानी सेहत के बीच के संबंध की ओर लोगों का ध्यान खींचना था।
डब्ल्यूएचओ से जुडीं नाइरा कहती हैं कि जलवायु कार्रवाई और इंसानी सेहत के परस्पर जुड़ाव को रेखांकित करने से ग्लोबल वॉर्मिंग पर काबू पाने के लिए जिस बदलाव की जरूरत है, उसे गति मिल सकती है। वह कहती हैं, "मैं तो यहां तक कहूंगी कि जलवायु परिवर्तन की लड़ाई के इरादे और रफ्तार में जो बदलाव चाहिए, वो भी इसी से आएगी।"
उदाहरण के लिए, डब्ल्यूएचओ के मुताबिक वायु प्रदूषण हर साल करीब 70 लाख मौतों का कारण बनता है लेकिन फॉसिल ईंधन के इस्तेमाल में कटौती करने वाली जलवायु कार्रवाई से ग्लोबल वॉर्मिंग भी कम होगी और हवा की गुणवत्ता भी सुधरेगी। लोगों की जिंदगियां बचाई जा सकेंगी और दमा जैसी बीमारियों के मरीजों की सेहत में भी सुधार आएगा।
'प्लेनिटरी हेल्थ' अभियान का हिस्सा बनीं निकोल डे पाउला कहती हैं कि मानव स्वास्थ्य और स्वस्थ पर्यावरण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और परस्पर गुंथे हुए हैं। डे पाउला के मुताबिक, "हम लोग सिर्फ अलग-थलग हुए ध्रुवीय भालुओं की बात नहीं कर रहे हैं। जीवन के सबसे बुनियादी संसाधन अगर ठीक से काम नहीं करेंगे तो इंसानी सेहत की हिफाजत भी नहीं की जा सकती है। और ये संसाधन हैं- स्वस्थ जलवायु, स्वस्थ मिट्टी, स्वस्थ जंगल।"