डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर टैरिफ लगाकर उसे चीन और रूस जैसे पश्चिम के प्रतिस्पर्धी देशों की लिस्ट में पहुंचा दिया। ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने इन टैरिफ की तारीफ की और यूरोप के अन्य देशों से भी भारत के खिलाफ ऐसे कदम उठाने को कहा। पश्चिम के देशों में दबे छिपे भारत पर टैरिफ को लेकर खुशी जाहिर की जाती रही।
एक और ऊंचा टैरिफ जो पश्चिम की ही एक शानदार इकोनॉमी पर लगा है, उसे लेकर हालांकि उतना हो-हल्ला नहीं दिख रहा। यह है स्विट्जरलैंड। डॉनल्ड ट्रंप ने स्विट्जरलैंड पर 39 फीसदी टैरिफ लगा रखा है। अमेरिका का स्विट्जरलैंड से करीब 48 अरब डॉलर का व्यापार घाटा है। डॉनल्ड ट्रंप की थियरी कहती है कि व्यापार घाटे का मतलब है कि स्विट्जरलैंड, अमेरिका को लूट रहा है। लेकिन स्विट्जरलैंड के मामले की तह में जाएं तो कहानी कुछ और है।
अमेरिका को सोना बेचने की सजा मिली
स्विट्जरलैंड और अमेरिका के बीच जिन चीजों का सबसे ज्यादा व्यापार होता है। वो हैं सोना, दवाएं और लक्जरी आइटम्स। सोना इसलिए क्योंकि स्विट्जरलैंड में सोने की बड़े स्तर पर प्रॉसेसिंग होती है, उसके बाद इसे दुनिया भर में बेचा जाता है। स्विट्जरलैंड और सोने का ऐतिहासिक रिश्ता है, आपने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान स्विट्जरलैंड में सोने के खजानों को सुरक्षित किए जाने के किस्से सुने होंगे।
डॉनल्ड ट्रंप ऊंचे टैरिफ लगाकर स्विट्जरलैंड को दंडित कर रहे हैं क्योंकि अमेरिका, स्विट्जरलैंड से कीमत में ज्यादा सामान खरीदता है और बेचता कम है। दरअसल वैश्विक आर्थिक और राजनीतिक हालातों के बीच दुनियाभर के बैंक भारी मात्रा में सोना खरीदने में जुटे हैं। ऐसे में अमेरिका के फेडरल रिजर्व ने भी साल 2024 में भारी मात्रा में सोना खरीदा। इस साल स्विट्जरलैंड से खरीदा गया सोना ही 12 अरब डॉलर से ज्यादा का था। इस सोने ने स्विट्जरलैंड और अमेरिका के बीच व्यापार घाटे को बढ़ाने में अहम रोल निभाया। लेकिन ऐसे लेन-देन का खामियाजा अब स्विट्जरलैंड को भुगतना पड़ रहा है।
अमेरिका ने स्विट्जरलैंड से होने वाले आयातों पर 39 फीसदी का टैरिफ लगा रखा है लेकिन अपने लिए जरूरी चीजों सोने और दवाओं को इन टैरिफ से बाहर रखा है। स्विट्जरलैंड के पास अमेरिका को देने के लिए कुछ खास नहीं है। वो पहले ही अमेरिका से होने वाले आयात पर मामूली टैरिफ लगाता है। ऐसे में ट्रंप को टैरिफ के लिए मनाने गई स्विट्जरलैंड की राष्ट्रपति कारिन केलर शुटर को खाली हाथ अमेरिका से वापस लौटना पड़ा। वो ट्रंप को कोई ऐसी डील नहीं दे सकीं, जो एक बड़ी हेडलाइन बनाने के लिए पर्याप्त हो और दिखाती हो कि कैसे दुनिया डॉनल्ड ट्रंप के सामने डील के लिए गिड़गिड़ा रही है।
टैरिफों के प्रभावों से बचा नहीं रहेगा अमेरिका
पिछली तिमाही में अमेरिका की अर्थव्यवस्था में 3 फीसदी से ज्यादा की ग्रोथ देखी गई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अमेरिका से व्यापार करने वाले देश टैरिफों के प्रभावी होने से पहले ज्यादा से ज्यादा सामान को अमेरिका भेज देना चाहते थे। अभी तक टैरिफों का असर अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर स्पष्ट दिखना नहीं शुरू हुआ है लेकिन अलग-अलग अनुमानों में बताया गया है कि टैरिफों के प्रभावी होने के बाद एक औसत अमेरिकी परिवार का सालाना खर्च 2 हजार से 2.5 हजार डॉलर तक बढ़ जाएगा।
अमेरिका, पूरी तरह से टैरिफ के प्रभावों से बच जाएगा ऐसा होने से रहा। ज्यादातर देश लंबे समय तक नुकसानदेह संधियों में फंसे रहना चाहेंगे, ऐसा भी नहीं होगा। यूरोपीय संघ में तो ऐसी आवाजें उठने भी लगी हैं। इसके अलावा क्या डॉनल्ड ट्रंप एक संधि भर हो जाने से अपना रुख बदल लेंगे। क्या व्यापार संधि हो जाने से वो यूरोपीय संघ के सभी देशों के प्रति दोस्ताना हो जाएंगे। क्या वो और उनका प्रशासन इन देशों की आंतरिक राजनीति में दखल देना बंद कर देगा और अब से यूरोप के धुर-दक्षिणपंथी चेहरों का समर्थन नहीं करेगा। ऐसा होना मुश्किल है। ट्रंप ने कई बार साबित किया है कि अनप्रिडेक्टेबल होना ही उनका असल पॉलिटिकल असेट है। जाहिर है ऐसे में पश्चिम के अन्य देशों का सतर्क बने रहना जरूरी होगा।
कई आर्थिक गतिविधियां तेज कर रहे ट्रंप
डॉनल्ड ट्रंप खुद को विजेता के तौर पर पेश करना पसंद करते हैं और वो चाहते हैं कि टैरिफ की कहानी में उन्हें एक विजेता माना जाए लेकिन सच यह है कि एक ओर ट्रंप ने अपने सबसे करीबी सहयोगी यूरोपीय संघ के देशों के साथ अविश्वास पैदा किया है, वहीं ब्रिक्स की अहम अर्थव्यवस्थाओं को चरम प्रतिस्पर्धी की श्रेणी में ला दिया है। ऐसे में वो कम विश्वास करने वाले और बिल्कुल विश्वास ना करने वाले देशों से घिरे हुए हैं। भारत की टांग खींचने के लिए उन्होंने हाल ही में पाकिस्तान के साथ आर्थिक संबंधों को अच्छा बनाने की घोषणा की लेकिन क्या वो पाकिस्तान और चीन की गाढ़ी दोस्ती के बीच ऐसा करने में सहज होंगे?
दरअसल दुनिया आर्थिक संक्रमण के एक अहम दौर से गुजर रही थी, डॉनल्ड ट्रंप उसके कैटलिस्ट हैं। वो रिजर्व करेंसी के तौर पर डॉलर की अहमियत गिराने, बिटकॉइन को स्थापित करने, नए आर्थिक समूहों का निर्माण करने, अमेरिका से बाहर बाजार तलाशने और अलग-अलग देशों की अपनी जनता की क्रय शक्ति बढ़ाने की घरेलू राजनीति जैसे आर्थिक मोर्चों पर काम को तेज करेंगे। ब्रिक्स देशों के बड़े नेता अमेरिका से बाहर बाजार तलाशने की बात शुरू कर चुके हैं। बड़ी बात नहीं कि नरेन्द्र मोदी ने चीन जाने का फैसला किया।
आगामी वर्षों में भारत को अमेरिका से टैरिफ समझौता ना हो पाने से भारी आर्थिक नुकसान होगा लेकिन अमेरिकी कंपनियों को भी भारत का मार्केट खोना पड़ सकता है, जहां अब भी करोड़ों ऐसे ग्राहक हैं, जो महंगे से महंगा अमेरिकी सामान खरीद सकते हैं। डॉनल्ड ट्रंप के कदमों के असर का पूरा आकलन तो अभी कई वर्षों बाद हो सकेगा लेकिन अभी भी ये जरूर कहा जा सकता है कि अमेरिका इनकी भारी कीमत जरूर चुकाएगा। साथ ही ट्रंप के बाकी कार्यकाल में बिना किसी मजबूरी के आंख मूंद अमेरिका पर भरोसा करने वाले दोस्तों की गिनती उंगलियों पर की जा सकेगी और दोस्तों की जरूरत सिर्फ कमजोर देशों को नहीं होती।