पांच साल का माइको, उन खुशकिस्मत 85 लोगों में शामिल है, जिसे बर्लिन की एक कंपनी 2014 से ही हर महीने 1,000 यूरो देती आयी है। ये कोई दान नहीं, उधार भी नहीं, बल्कि यूनिवर्सल बेसिक इनकम के एक प्रयोग के लिए दी जा रही रकम है।
माइको के जैसे 10 बच्चों को मिलाकर कुल 85 लोग चुने गए हैं। इन्हें चुना है माइन ग्रुंडआइनकॉमेन (मेरी बेसिक आय) नाम की स्टार्ट अप कंपनी ने। इन्हें सन 2014 से ही कंपनी मासिक वेतन देती आयी है। इसके संस्थापक मिषाएल बोमायर जर्मनी की जनता के सामने यह बात सिद्ध करना चाहते थे कि यूनिवर्सल बेसिक इनकम का आइडिया बकवास नहीं है।
31 साल के बोमायर कहते हैं, "मेरे पहले स्टार्ट अप के कारण मेरी नियमित कमाई होने लगी थी। तब से मेरा जीवन ज्यादा सृजनात्मक और सेहतमंद हो गया। इसीलिए मैं चाहता था कि इससे जुड़ा एक सामाजिक प्रयोग किया जाए।"
बेसिक इनकम के आइडिया को परखने वालों में वे अकेले नहीं थे। ऐसे करीब 55,000 दाता सामने आए जिन्होंने प्रयोग के अंतर्गत लोगों को बांटी जाने वाली रकम इकट्ठी की। यह एक तरह का "क्राउडफंडिंग" मॉडल था, जिसमें रकम पाने वालों को एक तरह की लॉटरी से चुना गया।
ऐसे ही लॉटरी से चुने गए बच्चे माइको की मां बिरगिट काउलफुस बताती हैं कि माइको "ज्यादा कुछ समझता नहीं। लेकिन पूरा परिवार उसके चुने जाने से खुश था।" जब माइको चुना गया तो परिवार ने ज्यादा "आराम से जीना" शुरु किया और पहली बार साथ में छुट्टियां मनाने भी जा पाए।
बोमायर कहते हैं, "हर कोई चैन से सो पाता है और कोई कामचोर भी नहीं बनता।" यह रकम पाने वालों के जीवन में वित्तीय चिंताएं दूर हुईं और कई लोगों के जीवन की दिशा ही बदल गयी।
बेसिक इनकम पाने वाली वेलेरी रुप कहती है, "रोजाना दबावों के बिना, आप कहीं ज्यादा क्रिएटिव हो सकते हैं और नयी चीजें ट्राई कर सकते हैं।" रुप उन पैसों से अपने बच्चों की अच्छी देखभाल कर पायीं और एक डेकोरेटर के रूप में अपने करियर को भी निखार पायीं। जबकि इस दौरान माली से आये उनके पति जर्मन भाषा की क्लास कर रहे थे।
कई लोगों ने बहुत कम कमाई वाली अपनी नौकरियां छोड़ दीं और टीचर जैसी नौकरी के लिए खुद को तैयार किया। कई लोगों ने अपनी गंभीर बीमारियों से लड़ने के लिए समय पाया, तो किसी ने शराब या सिगरेट की अपनी बुरी लत से छुटकारा पाया। कई लोग बच्चों को अच्छी शिक्षा दे पाये और अपना समय भी। बेसिक इनकम पाने वाली आस्ट्रिड लोबेयर कहती हैं, "यह अपने आप में एक तोहफा है और बदलाव लाने के लिए एक असरदार कारक भी।"
बोमायर के इस सामाजिक प्रयोग की न केवल सोशल मीडिया पर चर्चा है बल्कि जर्मनी में यूनिवर्सल इनकम के आइडिया को इससे बल भी मिल रहा है। फिनलैंड में भी एक फ्लैगशिप प्रोग्राम के तहत 2,000 बेघर लोगों को बेसिक इनकम देने का परीक्षण चल रहा है। 2009 में जर्मन संसद में करीब 50,000 याचिकाकर्ताओं की तरफ से बेसिक इनकम के लिए पेश ऐसी याचिका अस्वीकार कर दी गयी थी।
हाल के सर्वे दिखाते है कि इस समय करीब 40 फीसदी जर्मन जनता को बेसिक इनकम के इस आइडिया में भरोसा है। सितंबर में होने वाले जर्मन आम चुनावों में इस मुद्दे को जगह दिलाने के लिए बाकायदा एक बेसिक इनकम फेडरेशन बन चुका है। हालांकि अब तक किसी बड़ी पार्टी ने इस मुद्दे को नहीं उठाया है। इसके विरोधी ज्यादा संगठित दिखते हैं जो इसे "आलसीपन का ईनाम" बताकर रद्द करते हैं।
खुद इस स्टार्ट अप की आलोचना में बताया जाता है कि इसके 20 कर्मी बजट का "60 फीसदी" खा जाते हैं। इसे बोमायर मानते भी हैं। विरोधी कहते हैं कि जब लोगों को बिना काम के पैसे मिलने लगेंगे तो कोई भी शौक से कूड़ा बीनने जैसे काम नहीं करेगा। इस पर समर्थकों का तर्क है कि ऐसे काम रोबोटों से करवाए जाएंगे। फिर जवाब आता है कि रोबोट शायद काम कर भी दें, टैक्स तो नहीं भरेंगे। इस तर्क का जवाब अभी किसी के पास नहीं है।