बच्चों के लिए कितनी देर फोन देखना है सुरक्षित?

DW

बुधवार, 3 सितम्बर 2025 (09:18 IST)
-आना कार्टहाउज
काफी रिसर्च और अध्ययन के बावजूद भी अभी तक यह साफ नहीं हो पाया है कि बच्चों के लिए कितनी स्क्रीन टाइम सुरक्षित है और इसके लिए कोई अंतरराष्ट्रीय मानक भी नहीं है। जैसे हर बच्चा अलग होता है, वैसे ही उनकी जरूरतें भी अलग होती हैं। जब तक विज्ञान सही राय देने के लिए पर्याप्त डाटा जुटा पाता है। तब तक तकनीक और समाज कई कदम आगे बढ़ चुका होता है।
 
ऐसे में डॉक्टर, मनोवैज्ञानिक, नशा विशेषज्ञ और मीडिया शिक्षा से जुड़े लोग कुछ बुनियादी सिद्धांतों पर सहमत हैं। यह सिद्धांत बच्चों की उम्र और उनके विकास के चरणों से जुड़े होते हैं और दुर्घटना से "सावधानी बेहतर है” वाले नियम पर चलते हैं। मतलब, बाद में पछताने से बेहतर है कि पहले से ही यह मानकर चला जाए कि इलेक्ट्रॉनिक उपकरण नुकसान पहुंचा सकते हैं।
 
दुनिया को जानने-समझने के लिए होते हैं जीवन के शुरुआती साल : जर्मनी में बच्चों के लिए एक ही नारा है, "तीन साल तक स्क्रीन से दूरी है जरूरी।” बच्चों के लिए मीडिया गाइडलाइंस बनाने वाली बाल रोग विशेषज्ञ, उलरीके गैसर कहती हैं कि इस उम्र में बच्चों को स्क्रीन की कोई जरूरत नहीं होती है।
 
हालांकि, विश्व स्वास्थ्य संगठन इस पर थोड़ा नरम रुख अपनाता है। उनके अनुसार दो साल से ऊपर के बच्चों के लिए स्क्रीन टाइम एक घंटे से ज्यादा नहीं होना चाहिए, बल्कि जितना कम हो तो उतना अच्छा है।
 
जीवन के पहले एक से दो साल में बच्चों के लिए अपने आसपास की चीजों को देखना, छूना और समझना जरूरी होता है क्योंकि इस दौरान उनके ध्यान केंद्रित करने की क्षमता विकसित होती है। यह तभी संभव हो सकता है, जब वे खुद ध्यान लगाना सीखें, न कि किसी स्क्रीन जैसी चीज के सामने बैठकर।
 
गैसर मानती हैं कि बच्चों को यह भी सिखाना जरूरी है कि उनकी जरूरतें तुरंत पूरी नही हो सकती है। जैसे रोने और माता-पिता से खाना मिलने के बीच थोड़ा समय लगता है। बच्चे के लिए यह समझना जरूरी है कि दुनिया को एक स्वाइप या बटन दबाकर बदला या गायब नहीं किया जा सकता है। इंतजार करना और स्वीकार करना जिन्दगी की कुछ बुनियादी सीखों में से एक है।
 
बच्चों के विकास का समय छीनती है स्क्रीन : येना यूनिवर्सिटी की बाल मनोवैज्ञानिक, यूलिया असब्रांड कहती हैं, "बच्चे दुनिया को काफी अलग तरीके से देखते हैं।” यह बात फिल्मों और सोशल मीडिया पर भी लागू होती है। छोटे बच्चे जो कुछ भी वे देखते हैं, वह उन्हें सच लग सकता है। जिससे वे डर भी सकते हैं। इसलिए माता-पिता का बच्चों से पूछना जरूरी है कि "तुमने अभी क्या देखा?” और "क्या तुम्हें उसके बारे में कोई सवाल है?”
 
विशेषज्ञों की चिंता यह है कि स्क्रीन पर बिताया गया समय बच्चों के असली विकास के समय को छीन लेता है यानी वह समय जिसमें उन्हें अपनी शारीरिक क्षमताओं को विकसित करना चाहिए, लोगों से मिलना-जुलना और सामाजिक अनुभव लेना चाहिए था।
 
हाल में शोध दिखते हैं कि स्क्रीन के सामने बिताए गए हर एक मिनट में बच्चे अपने माता-पिता के मुकाबले औसतन छह शब्द कम सुनते हैं। लंबे समय में यह बड़ी कमी पैदा कर देती है।
 
जितना ज्यादा समय बच्चे अकेले स्क्रीन के सामने बैठेंगे, उतनी ही उनकी भाषा कौशल बाद में कमजोर हो सकती है। स्क्रीन टाइम कम करने से बच्चों की भाषा, ध्यान, सामाजिक व्यवहार और हाथ-पैरों की बारीक गतिविधियों में सुधार देखा जा सकता है।
 
किंडरगार्टन: मेलजोल और कल्पना की दुनिया : बच्चे जब तक स्कूल नहीं जाते, तब तक उनके लिए यह बहुत जरूरी है कि वे अपने आसपास की दुनिया को देखे, चीजों को महसूस करें, जगह को समझें और दूसरों के साथ मेलजोल बढ़ाये। गैसर कहती हैं कि बच्चों को हर दिन कुछ घंटों तक ऐसा अनुभव मिलना चाहिए। जिसमें खेल के दौरान बच्चे सीखे कि दूसरों के विचार अलग भी हो सकते हैं और ऐसे में उन्हें बातचीत, जिद या समझौते का सहारा लेना पड़ सकता है और कभी-कभी कोई भी तरीके काम नहीं करते हैं।
 
यह समय बच्चों की कल्पना शक्ति विकसित करने के लिए जरूरी है। ताकि बच्चे दुनिया को समझना और गढ़ना सीख सके ताकि वह खुद अपनी कल्पना से दुनिया बना सके। ऐसे में अगर उन्हें बार-बार स्क्रीन पर बनी बनाई चीजें दिखाई जाएंगी, तो उनकी कल्पना धीरे-धीरे कमजोर हो सकती है। इसलिए गैसर सलाह देती हैं कि इस उम्र में स्क्रीन टाइम को अधिकतम 30 मिनट तक ही सीमित रखना जरूरी है।
 
प्राथमिक स्कूल में मूल्यों की सीख : लगभग छह से नौ साल की उम्र के बीच बच्चे पहली बार अपने अंदर नैतिक दिशा-निर्देश विकसित करना शुरू करते हैं। ऐसे में गैसर पूछती है कि "क्या हम यह जिम्मेदारी इंटरनेट पर छोड़ना चाहते हैं?” क्योंकि यही उम्र है, जब बच्चे अनुशासन, मेहनत, ज्ञान हासिल करने और खुद पर भरोसा करना सीखते हैं, न कि सिर्फ इंटरनेट पर मिली जानकारी पर निर्भर रहना। जर्मनी में इस उम्र के लिए सलाह दी जाती है कि बच्चों को अधिकतम 30 से 45 मिनट का स्क्रीन टाइम, वह भी माता-पिता की निगरानी में ही दिया जाए।
 
हालांकि, कम स्क्रीन टाइम हमेशा बेहतर है, लेकिन आजकल बहुत सी बातचीत डिजिटल प्लेटफॉर्म पर होती है। जैसा बाल मनोवैज्ञानिक, असब्रांड कहती हैं, "आपको एक के बदले दूसरी चीज से सौदा करना पड़ता है।” उदाहरण के लिए, अगर बच्चा अपनी क्लास के व्हाट्सऐप ग्रुप में नहीं है, तो उसे अलग-थलग किया जा सकता है। खासकर आने वाले जीवन में यह स्थिति बच्चों के लिए और भी मुश्किल हो सकती है, इसलिए इसे पूरी तरह से नजरअंदाज करना भी ठीक नहीं है।
 
किशोरों की निगरानी मुश्किल : विशेषज्ञ मानते हैं कि बच्चों को स्मार्टफोन से पूरी तरह दूर रखना अब संभव नहीं है। इसलिए अब असली सवाल यह है कि मीडिया के बेहतर उपयोग की परिभाषा क्या हो सकती है। जर्मनी में डॉक्टर सलाह देते हैं कि 9 से 12 साल के बच्चों के लिए फुर्सत के समय में अधिकतम 45 से 60 मिनट स्क्रीन टाइम हो सकता है, 12 से 16 साल के बच्चों के लिए अधिकतम 1 से 2 घंटे और 16 से 18 साल के लिए लगभग 2 घंटे हो सकता है।
 
बच्चों का बढ़ता स्क्रीन टाइम कैसे करें काबू : इस उम्र में बच्चे अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश करते हैं इसलिए माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों से खुलकर सवाल पूछें और उन्हें यह दिखाने का मौका दें कि वे ऑनलाइन क्या देख रहे हैं। असब्रांड कहती हैं, "सबसे बड़ी समस्या तब होती है, जब बच्चे छुपकर कुछ करते हैं। जिस कारण उन्हें ग्रूमिंग जैसी खतरनाक स्थितियों का सामना करना पड़ सकता है।” ( ग्रूमिंग यानी जब कोई वयस्क बुरी नीयत से बच्चे का विश्वास जीतने की कोशिश करता है) कभी-कभी बच्चे माता-पिता से यह बात साझा करने की हिम्मत नहीं कर पाते, क्योंकि उन्हें डर होता है कि "मुझे यह नहीं करना चाहिए था।”
 
तकनीक अपने आप में कोई बुरी चीज नहीं : गैसर कहती हैं, "हम खुद भी जानते हैं कि जितना उपाय हम सुझाते हैं, उसे पूरी तरह मान पाना मुश्किल है।” इसलिए समय से भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि बच्चे क्या देख रहे हैं और उससे कैसे निपट रहे हैं।
 
नशा-सम्बंधी शोध के नजरिए से असब्रांड कहती हैं कि सबसे जरूरी बात यह है कि स्क्रीन का इस्तेमाल लत न बन जाए। हर बच्चा, हर माध्यम और हर तरह की सामग्री अलग होती है और हर तरह की परिस्थिति के लिए ठोस वैज्ञानिक सबूत मौजूद नहीं हैं।
 
ऐसे में गैसर याद दिलाती हैं कि "इंटरनेट पर काफी शानदार चीजें भी हैं!” स्कूल में टैबलेट और दूसरे उपकरण बच्चों को भाषाएं सीखने, दोस्त बनाने और अपनी आवाज विकसित करने में मदद कर सकते हैं।
 
निजी जीवन में भी सोशल मीडिया फायदेमंद हो सकता है। यह दादा-दादी या काम पर बाहर गए माता-पिता से संपर्क बनाए रखने में मदद करता है। कभी-कभी यह काफी अच्छे नए संपर्क भी बना सकता है। गैसर बताती हैं कि उनकी एक मरीज ऑनलाइन एक ध्रुवीय शोधकर्ता से जुड़कर विचारों का आदान-प्रदान करती है।
 
क्या कर सकते हैं माता-पिता : माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को जितना हो सके अकेला स्क्रीन के सामने न छोड़ें। बच्चों से मीडिया के इस्तेमाल पर बात करें और यह देखे कि वे क्या देख रहे हैं। गैसर कहती हैं कि अच्छे माता-पिता-बच्चे के रिश्ते में आजादी और भरोसा दोनों जरूरी है। साथ ही, माता-पिता को यह भी पता होना चाहिए कि डिजिटल मीडिया कितना लत लगाने वाला हो सकता है। अगर बच्चा खुद को अलग करने लगे, बाकी गतिविधियां छोड़ दे या हमेशा उदास और परेशान दिखे, तो माता-पिता को सतर्क हो जाना चाहिए।
 
तकनीकी तौर पर भी कुछ कदम कामगार हो सकते हैं। प्लेटफार्म इस्तेमाल की सीमा तय कर साफ नियम बना सकते हैं, जिन्हें माता-पिता खुद भी लागू करें। जैसे कि रात 8 बजे सभी उपकरणों को स्लीप मोड पर डाल देना, जिसमें माता-पिता के फोन और टेबलेट भी शामिल हो।

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