भारत में विकलांगों पर होने वाले अपराधों के विरुद्ध दंडात्मक कानूनी प्रावधानों को लचीला बनाने का प्रस्ताव है। कड़े प्रावधान आपराधिक श्रेणी से हटाने की तैयारियों के बीच मानवाधिकार संगठनों का आरोप है कि यह बेरहमी है। सरकार की दलील है कि इससे व्यावसायिक गतिविधियां सुगमता से चलाई जा सकेंगी और अदालतों पर भी बोझ कम होगा। समाचार रिपोर्टों के मुताबिक सरकार यह भी मानती है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के पास विकलांगों के खिलाफ अपराधों का कोई ब्योरा नहीं है, तो कड़ी सजा के प्रावधान की जरूरत भी नहीं है।
वैसे सरकार के मुताबिक विकलांग व्यक्तियों की जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 2.68 करोड़ है और वे देश की कुल जनसंख्या के 2.21 प्रतिशत हैं। विकलांग व्यक्तियों की श्रेणी में दृष्टिबाधित, श्रवणबाधित, वाक् बाधित, अस्थि विकलांग और मानसिक रूप से विकलांग व्यक्ति शामिल हैं।
विकलांगों के अधिकारों से जुड़े कई संगठनों ने इन प्रस्तावों का कड़ा विरोध करते हुए आरोप लगाया है कि ये संशोधन विकलांगों के अधिकारों का न सिर्फ दमन करते हैं, बल्कि सार्वजनिक जगहों में उनकी आवाजाही और उपस्थिति को भी असुरक्षित बनाते हैं। आंदोलनकारियों का आरोप है कि फीडबैक के लिए सिर्फ 10 दिन का समय दिया गया है, जो कि बहुत कम है। डेडलाइन 10 जुलाई की है।
एक और शिकायत है कि सिर्फ अंग्रेजी न रखकर इसे तमाम क्षेत्रीय भाषाओं में भी प्रसारित प्रकाशित किए जाने की जरूरत थी ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक संदेश पहुंचता। फिर ऐसे भी लोग हैं, जो न देख सकते हैं, न सुन सकते हैं और न बोल सकते हैं- उनके फीडबैक का क्या? और अभी तो कोरोना महामारी का अभूतपूर्व संकट भी कायम है।
सूचना का अधिकार कानून के साथ भी यही हुआ था। कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों का आरोप है कि सेवा शर्तों, चयन और सूचना हासिल करने से जुड़ी नियमावलियों में ऐसे संशोधन कर दिए गए हैं कि उस कानून की मूल भावना ही गायब हो गई है। अब विकलांगों के अधिकारों से जुड़े इस कानून की बारी है।
शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्तियों या विशेष सक्षमता वाले व्यक्तियों के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 'दिव्यांग' शब्द के प्रयोग का आग्रह किया था। आलोचना भी हुई कि आखिर विकलांगता में कैसी दिव्यता? सरकार 2016 में एक एक्ट लेकर आई जिसे नाम दिया गया, दिव्यांग अधिकार अधिनियम 2016। लेकिन अंग्रेजी में नाम है राइट्स ऑफ पर्सन्स विद डिसेबिलिटीज एक्ट।
'दिव्यांग' शब्द के सुझाव और विकलांगों के अधिकारों पर कैंची चलाने जैसी कार्रवाइयों के बीच अपने इरादों और फैसलों के लिए चर्चित न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डेर्न का सहसा ही ध्यान आता है जिन्होंने 2018 में अपने कार्यालय में साप्ताहिक प्रेस ब्रीफ्रिंग के लिए दुनिया में पहला साइन लैंग्वेज इंटरप्रेटर नियुक्त किया था। उनका कहना है कि सरकार के निर्णयों और नीतियों की सूचना मूक-बधिर दर्शकों तक भी हर हाल में पहुंचनी चाहिए। ध्यान रहे, कोविड महामारी से खुद को मुक्त घोषित कर देने वाला न्यूजीलैंड दुनिया का पहला देश भी है।
क्या है प्रस्तावित संशोधनों में?
एक्ट की धारा 89, 92 (अ) और 93 के तहत पेनल्टी में कटौती का लक्ष्य रखा गया है जिसके तहत कुछ अपराध समाधेय यानी दंड की परिधि में नहीं आते हैं। कानून के उल्लंघन के लिए 5 लाख रुपए तक का जुर्माना निर्धारित किया गया है और बदसलूकी या सार्वजनिक रूप से अपमानित करने के लिए 5 साल तक की जेल की सजा का प्रावधान है। ये प्रावधान निकाले गए तो विकलांग व्यक्तियों के लिए स्थिति और विकट हो सकती है।
'न्यू इंडियन एक्सप्रेस' अखबार की वेबसाइट पर प्रकाशित बयान में डिसेबिलिटी राइट्स एलायंस की एक्टिविस्ट वैष्णवी जयकुमार के मुताबिक, 'अधिनियम का इस्तेमाल तो पहले ही सीमित है और ये संशोधन विकलांगों के अधिकार को और कमजोर कर सकता है।'
आरपीडब्लूडी एक्ट का मूल मकसद था रोजगार और शिक्षा में समान अवसरों से वंचित रहने वाले विकलांगों की गरिमा बहाल करना। इसी एक्ट के तहत सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में उनके लिए सीटें आरक्षित हैं, उनके लिए सुगम और सहज ढांचा मुहैया कराने का प्रावधान है और एक समावेशी पर्यावरण का निर्माण करने की बात है जिससे उनका विकास और समाज में भागीदारी निर्बाध बनी रहे।
निजी उद्यमों में विकलांगों के लिए सहज, अनुकूल, भेदभावरहित और न्यायोचित माहौल का निर्माण करने में भी यह एक्ट कुछ हद तक महत्वपूर्ण रहा है। लेकिन जिन धाराओं को कमजोर किया जा रहा है या संभवत: हटाया भी जाया सकता है, वह उपरोक्त अधिकारों पर वज्रपात से कम नहीं होगा।
कोरोना संकट के बीच शारीरिक रूप से असमर्थ लोगों के लिए वैसे ही कठिन चुनौतियां हैं, आम समाज के रोजमर्रा के जीवन-यापन के अलावा हाशियों में बसर करते या जेलों, कारागारों में बंद सजायाफ्ता विकलांग व्यक्तियों, विचाराधीन कैदियों के जीवन को भी ये संशोधन निर्णायक रूप से प्रभावित कर सकते हैं। न्यूजक्लिक डॉट इन वेबसाइट की एक रिपोर्ट के मुताबिक आधे से अधिक राज्यों ने एक्ट को अधिसूचित भी नहीं किया है।
22 राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालयों में से 12 विश्वविद्यालय अपने यहां विकलांग अभ्यर्थियों को 5 प्रतिशत आरक्षण नहीं देते हैं, सिर्फ 9 राज्यों ने अपने यहां विकलांगता पर सलाहकार बोर्डों का गठन किया है और सिर्फ 6 राज्य हैं जिन्होंने विकलांगता के लिए राज्य फंड को व्यवस्थित रख पाने में कुछ प्रगति की है। सरकारी स्तर पर यह हाल है तो निजी कंपनियों और उद्यमों में क्या होता होगा, उसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं। बताया जाता है कि देश की टॉप कंपनियों की नौकरियों में विकलांग व्यक्तियों की भागीदारी नगण्य है- 0.5 प्रतिशत!
समाज में कोई भी दायित्व में आनाकानी न करे और समानुभूति बनाए रखे, इसके लिए पारिवारिक और सामाजिक आदर्शों का पालन जरूरी है। उद्योग जगत की संस्थाओं को भी इस बारे में साथ लाने की जरूरत है। अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो अगर विकलांगों पर अपराध का आंकड़ा नहीं रखता, जैसा कि कहा जा रहा है तो यह काम अविलंब शुरू होना चाहिए और एक श्रेणी इसकी भी बननी चाहिए।
अच्छा होता कि प्रस्तावित संशोधनों का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया जाता और यह साफ-साफ बताया जाता कि वे कौन से मामले होंगे, जो अपराध या उल्लंघन की परिधि में नहीं आएंगे। स्पष्टता के अभाव का अर्थ है कार्यप्रणाली में पारदर्शिता और संवेदना का अभाव।
'दिव्यांग' शब्द देने के पीछे मंशा यही थी कि विकलांगों में हीनभावना न आए। लेकिन बात इस भावना की ही नहीं, उनके अधिकारों की भी है। वह एक्ट के अनुपालन में दिखे, तभी सही मायनों में उनकी गरिमा की हिफाजत और उनके स्वाभिमान की कद्र होगी।