एक बार में मिले करीब 3,000 लापता बच्चे

सोमवार, 7 मई 2018 (11:24 IST)
बच्चे की तस्वीरें हैं, लेकिन यह पता नहीं कि वह कहां, किस हाल में है। जिंदा भी है या फिर...भारत में हर साल लापता होने वाले हजारों बच्चे ऐसी कहानी बन जाते हैं। अब तकनीक इस निराशा को आशा में बदलती दिख रही है।
 
 
भारत में हर साल हजारों बच्चे गुम जाते हैं। शुरुआत में मां बाप, पुलिस की मदद से उन्हें खोजने की बहुत कोशिश करते हैं। लेकिन धीरे धीरे पुलिस सुस्त पड़ने लगती है। मां बाप अकेले संघर्ष करते हैं। अपने बच्चे को ढूंढने के लिए हर मुमकिन कोशिश करते हैं, लेकिन कुछ साल की नाकामी के बाद उनके पास भी यादें, उम्मीदें और बच्चे की तस्वीर भर रह जाती हैं।
 
लेकिन अब तकनीक नई उम्मीद जगा रही है। बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठन बचपन बचाओ आंदोलन ने अब फोटोग्राफिक डाटाबेस का सहारा लिया है। इस डाटाबेस में 60,000 गुमशुदा बच्चों की तस्वीरें थी। संगठन ने इस तस्वीरों को दिल्ली में गुमशुदा बच्चों की देखभाल करने वाले केंद्रों की तस्वीरों से मैच कराने की कोशिश की। कल्याण केंद्रों में गुमशुदा बच्चों की करीब 45,000 तस्वीरें थी।
 
 
चेहरा पहचानने वाले सॉफ्टवेयर (एफआरएस) में जब एक तरफ 60,000 और दूसरी तरफ 45,000 तस्वीरें डाली गईं, तो चार दिन के भीतर 2,930 तस्वीरें मैच कर गई। तस्वीरों के मैच करते ही बच्चों के लापता होने की कहानी और उनके परिवार की जानकारी सामने आ गई। इस तरह 2,930 बच्चे अपने परिवारों से मिल गए।
 
बचपन बचाओ आंदोलन के भुवन रिभू कहते हैं, "भारत में करीब दो लाख बच्चे गुमशुदा है और करीब 90 हजार बाल कल्याण संस्थाओं में हैं। ऐसे में हर एक संस्था में जाकर हाथ से तस्वीरों का मिलान करने की कोशिश करते हुए बच्चे को खोजना नामुमकिन है।"
 
 
रिभू के संगठन ने तकनीक की मदद से यह काम करने की कोशिश की। गुमशुदा बच्चों का डाटा पाने के लिए बचपन बचाओ आंदोलन ने दिल्ली हाई कोर्ट का रुख किया। हाई कोर्ट ने भी पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज लापता बच्चों का डाटा बेस संगठन को मुहैया कराने में अहम भूमिका निभाई। ट्रैकचाइल्ड नाम के डाटा के मिलते ही बचपन बचाओ आंदोलन ने फेशियल रिकॉगनिशन सॉफ्टवेयर का सहारा लिया और हजारों तस्वीरों की मैचिंग शुरू कर दी। छह अप्रैल से 10 अप्रैल 2018 के बीच ही करीब 3,000 बच्चों की तस्वीरें मैच कर गईं।
 
 
नई दिल्ली में इसके सफल परीक्षण के बाद संगठन को उम्मीद है कि दूसरे राज्यों की पुलिस के साथ भी ऐसे रिकॉर्ड का आदान प्रदान हो सकेगा। मुमकिन है कि भविष्य में एफआरएस तकनीक ट्रैकचाइल्ड सिस्टम को और बेहतर कर सकती है।
 
तकनीक की मदद से बच्चों को खोजने की यह पहल सराहनीय है। लेकिन इस सवाल का जवाब अभी नहीं मिला है कि आखिर भारत में हर साल इतने बच्चों क्यों खो जाते हैं। कई मामलों में गुमशुदा बच्चे हिंसा, अपराध, बाल मजदूरी और देह व्यापार का शिकार बनते हैं।
 
 
रिपोर्ट: ओंकार सिंह जनौटी

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