मध्य भारत के एक लाख वर्ग किलोमीटर के इलाके में हथियारबंद माओवादी सक्रिय हैं. लड़ाकों में ज्यादातर आदिवासी हैं, जो अपने संगठन द्वारा भी छले जाते हैं. पराजय की ओर बढ़ते संघर्ष में क्या आदिवासी लड़ाके अपनी जान बचा पाएंगे?
भारत में बिहार, उड़ीसा, तेलंगाना, मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के बीच दंडकारण्य जंगल। एक लाख वर्ग किलोमीटर में फैले इस इलाके में ज्यादातर जगहों पर घना जंगल है। यह माओवादियों का गढ़ है। 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से शुरू हुआ हिंसक माओवादी संघर्ष बंगाल में ज्यादा लंबा नहीं चल सका। 1972 आते आते माओवादियों को जान बचाने के लिए छितरना बितरना पड़ा।
इसी दौरान उनकी नजर मध्य भारत में जंगल से घिरे एक बड़े इलाके पर गई। यह इलाका दिल्ली-कोलकाता, कोलकाता मुंबई रेलवे लाइन के बीच पसरा था। 1977 से 1980 के बीच माओवादी नेताओं ने इस इलाकों को अपनी छुपने की जगह के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया। इन इलाकों में गरीबी, पिछड़ेपन और भेदभाव से जूझने वाला आदिवासी समुदाय था।
माओवाद और आदिवासी
सरकारी तंत्र द्वारा की जा रही अनदेखी, उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार और मानवाधिकारों का उल्लंघन, आदिवासी ये सब कुछ झेलते आ रहे थे। माओवादियों ने इसके खिलाफ और साथ में असमानता, भेदभाव, पूंजीवाद, अत्याचार व पिछड़ेपन के विरुद्ध नारे लगाए। क्षेत्रीय भाषा बोलने वाले आदिवासियों को बताया गया कि बंदूक के बल ही क्रांति आएगी। सत्ता को उखाड़ फेंकना होगा।
हिंसक माओवादी विचारधारा के फैलने के साथ साथ हथियार भी जंगलों तक पहुंचने लगे। संकट बड़ा होता गया। 1980 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इससे निपटने के लिए योजना बनाने की तैयारी की। दिसबंर 1984 में योजना को अमली जामा पहनाने की तैयारी थी, लेकिन दो महीने पहले ही इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई। उसके बाद माओवादी समस्या का शांतिपूर्ण हल खोजने की पहल करीब करीब बंद ही हो गई।
तब से लेकर अब तक माओवादी और प्रशासन बंदूकों और गोला बारूद के सहारे एक दूसरे को हराने की कोशिश कर रहे हैं। अलग अलग स्रोतों के मुताबिक बीते 30 साल में इस संघर्ष में करीब 15,000 लोग मारे जा चुके हैं। मृतकों में सबसे ज्यादा तादाद आम नागरिकों की है, छह हजार से आठ हजार के बीच।
जंगल में शांति कैसे आएगी
करीब चार दशकों से जारी संघर्ष के बीच सीजी नेट जैसे कुछ गैर सरकारी संगठन शांति बहाली की कोशिशें भी कर रहे हैं। लंबे वक्त तक अपने इलाके में छिड़े संघर्ष की रिपोर्टिंग करने के बाद छत्तीसगढ़ के शुभ्रांशु चौधरी ने कुछ सार्थक करने की ठानी। पत्रकारिता के दौरान शुभ्रांशु अपने पड़ोस के कई ऐसे युवकों से मिले जो या तो संघर्ष की बलि चढ़ गए या हाथ में बंदूक थामे हुए थे।
शुभ्रांशु कहते हैं, "जब मैंने उनके साथ वक्त बिताना शुरू किया तो मुझे अहसास हुआ कि वे अपने गांव या अपने इलाके की समस्याओं की वजह से परेशान थे। कोई हल निकलता न देख, उन्होंने हथियार उठाए। उन्हें बताया गया कि बदूंक ही एक मात्र उपाय है।" स्कूल, अस्पताल या पुलिस के दुर्व्यवहार से नाराज आदिवासी ऐसे झांसों में आ भी गए।
भाषाई और स्थानीय अस्मिता
शुभ्रांशु के मुताबिक छत्तीसगढ़ और उसके आस पास के इलाके में गोंड़ी भाषी लोगों की संख्या करीब 1.2 करोड़ है। इनमें से ज्यादातर आदिवासी हैं। उनकी भाषा में न साहित्य है, न समाचार। बहुत से गोंडी भाषी, हिंदी या अंग्रेजी जैसी भाषाएं नहीं जानते। शुभ्रांशु का मानना है कि भाषाई बाध्यता की वजह से गोंडी भाषी समाज बाहर के मुख्यधारा वाले समाज से कटा रहा। उन लोगों तक न नई जानकारियां पहुंचीं, न जागरूकता। रही सही कसर सरकारी तंत्र के आलसी व पलटवार करने वाले रवैये ने निकाल दी।
शुभ्रांशु कहते हैं, "कोई हैंडपंप में पानी न आने की वजह से नाराज था तो कोई स्कूल के लिए।" भाषाई बाध्यता के कारण ये नाराजगी बाहर तक नहीं आ पा रही थी। 2004 में शुभ्रांशु ने सीजी नेट संगठन की शुरुआत की। मकसद था गोंडी भाषी आदिवासियों के लिए आपसी संवाद का एक मंच तैयार करना। वक्त बीतने के साथ आदिवासी इलाकों में मोबाइल फोन भी पहुंचा। सिग्नलों के अभाव में मोबाइल फोन का इस्तेमाल ज्यादातर गाने सुनने के लिए किया जाता था। आपस में गानों का आदान प्रदान ब्लूटुथ के जरिए किया जाता था।
आदिवासियों का जिम्मेदार सोशल मीडिया
शुभ्रांशु ने इसी आदत का फायदा उठाते हुए आदिवासियों के लिए ब्लूटू कार्यक्रम शुरू किया। यह एक किस्म का सोशल मीडिया है, गोंडी भाषी सोशल मीडिया, जहां संयमित और जिम्मेदाराना ढंग से लोग अपने मुद्दे सामने रखते हैं। आदिवासी ब्लूटुथ नहीं बोल पाते थे, इसीलिए इसे ब्लूटू कहने लगे। ब्लूटू के सहारे अब कई गांवों के आदिवासी गोंडी भाषा में अपनी समस्याएं साझा करते हैं।
मसलन एक गांव के लोग अगर बताएं कि उनके यहां बहुत दिन से हैंडपंप खराब है तो ब्लूटुथ और शहरी कंप्यूटर सर्वरों के सहारे इस समस्या को दूर दूर तक पहुंचाया जाता है। अक्सर देखा गया कि कई गांवों में एक जैसी समस्याएं हैं। ब्लूटू पर ही लोग संभावित हल या सुझाव भी देते हैं। इन समस्याओं को दस्तावेज के तौर पर दर्ज करने के साथ ही प्रशासन तक भी पहुंचाया जाता है।
शुभ्रांशु चौधरी, सीजी नेट और ब्लूटू सोशल मीडिया को शांति पत्रकारिता करार देते हैं। आदिवासियों के मीडिया का असर अब प्रशासन पर भी दिखाई पड़ता है। कमियों पर पर्दा डालने के बजाए अब उन्हें दूर करने की कोशिश की जाती है। लेकिन यह कोशिशें माओवादियों के बूढ़े और शीर्ष नेतृत्व व निचले स्तर के सरकारी कर्मचारियों को कम पसंद आ रही हैं। माओवादी नेता बढ़ती चेतना से घबराते हैं और सरकारी कर्मचारी, माओवादी इलाकों में घुसने से।
संघर्ष और भविष्य
यह क्षेत्रीय स्थिति है। नई दिल्ली और राज्य की राजधानियों में बैठी सरकारें किसी और तैयारी में हैं। वे माओवादियों को जड़ से खत्म करना चाहती हैं। शुभ्रांशु के मुताबिक इसकी सीधी मार आदिवासियों पर भी पड़ेगी। माओवादियों के शीर्ष नेतृत्व को इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा।
माओवादियों के सेंट्रल पोलित ब्यूरो में एक भी आदिवासी नहीं है। न राज्य ईकाई में शीर्ष में कोई आदिवासी है। इन पदों पर दशकों पुरानी ब्राह्मणवादी सत्ता है। शीर्ष की यह सत्ता खुद बूढ़ी होकर मरने के कगार पर है। प्रशासन की कार्रवाई में उसे ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। मार सबसे ज्यादा जिला स्तर पर सक्रिय आदिवासी माओवादी पर पड़ेगी, जो सड़क, स्कूल, उत्पीड़न या हैंडपंप के चक्कर में लड़ाके बन गए।
इस खून खराबे को टालने के लिए शुभ्रांशु आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश कर रहे हैं। 2018 में गांधी जंयती के दौरान बस्तर डायलॉग नाम की राजनीतिक पहल भी शुरू की गई। 2019 में भी 12 और 13 जून को कोंटा में चार प्रदेशों से विस्थापित लोग शांति की पहल के लिए अपने ग्राम देवताओं के साथ आएंगे। शांति के लिए उन देवताओं का मिलन कराएंगे।
मीडिया में कई बार बारिश के लिए मेंढकों की शादियों का जो जिक्र होता है, वो आदिवासियों की परंपराओं का हिस्सा है। ऐसी परंपराओं की खिल्ली उड़ाना भी बताता है कि मुख्यधारा का समाज आदिवासियों के रीति रिवाजों को समझे बिना पूर्वाग्रह बनाने में कितना तेज होता है। आदिवासियों और शुभ्रांशु को उम्मीद है कि कोंटा की सभा शांति की दिशा में अहम कदम साबित होगी।