बिहार विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया जैसे-जैसे आगे बढ़ रही है, वैसे-वैसे सभी राजनीतिक दलों को बगावत से जूझना पड़ रहा है। कभी उनके अपने रहे ये बागी चुनौती का सबब बनते जा रहे हैं। बिहार में 3 चरणों में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। सभी पार्टियों में टिकट वितरण का कार्य पूरा हो चुका है। प्रत्याशियों के नाम सामने आते ही लगभग सभी बड़ी पार्टियों में टिकट के दावेदार रहे बगावत का झंडा उठा ले रहे हैं। भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) हो या राजद की अगुवाई वाला महागठबंधन, सभी दलों के लिए बागी परेशानी का कारण बन गए हैं। कांग्रेस भी इस समस्या से दो-चार हो रही है।
विकल्पों की भरमार
दरअसल, इस बार के चुनाव में एक तरह से विकल्पों की भरमार है। इस बार राज्य में चार गठबंधन प्रमुख भूमिका में हैं। एनडीए व महागठबंधन के अलावा पूर्व सांसद राजेश रंजन यादव व पप्पू यादव की अगुवाई वाला प्रगतिशील डेमोक्रेटिक एलायंस (पीडीए) व पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा वाला ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्यूलर फ्रंट भी चुनाव मैदान में है। इनके अलावा एनडीए से दोस्ताना लड़ाई की मुद्रा में पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वर्गीय रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) भी वहां ताल ठोक रही है जहां जदयू के उम्मीदवार हैं।
ऐसे तो कोई पार्टी किसी दल के बागी को टिकट देने से गुरेज नहीं कर रही, यदि उस व्यक्ति की जीत की संभावना किसी भी समीकरण के अनुरूप थोड़ी सी भी शेष रह गई हो। संभावनाओं के इस खेल में जिसे जहां टिकट की संभावना दिख रही, वह वहां चला जा रहा है। लोजपा बागियों के लिए पनाहगार बन गई है। बागियों के लिए भी यह पहली पसंद है जिसकी वजह इस पार्टी के पास इसका अपना पांच प्रतिशत पुख्ता वोट बैंक का होना है।
भाजपा से आए नौ तथा जदयू से आए दो लोगों को लोजपा ने अपना उम्मीदवार बनाया है। लोजपा में आए बागियों में सबसे प्रमुख नाम भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे राजेंद्र सिंह व पूर्व विधायक रामेश्वर चौरसिया का है। सब्र की परीक्षा में आखिरकार ऐसे प्रमुख सिपहसालारों की राजनीतिक आस्था भी जवाब दे गई। इनके अलावा राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) नीत गठबंधन ने जदयू के दो बागी नेताओं को तो राजद ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) व रालोसपा के एक-एक बागी नेताओं को अपना प्रत्याशी घोषित किया है।
जदयू के वरिष्ठ नेता व पूर्व मंत्री श्रीभगवान सिंह कुशवाहा व चंद्रशेखर पासवान को लोजपा ने टिकट दिया है तो रालोसपा ने जदयू के रणविजय सिंह तथा भाजपा के अजय प्रताप सिंह को उम्मीदवार बनाया है। इसी तरह राजद के अति पिछड़ा प्रकोष्ठ के पूर्व महासचिव सुरेश निषाद को लोजपा ने टिकट दिया है।
गठबंधनों ने बदला परिदृश्य
दरअसल इस बार गठबंधनों के बदले परिदृश्य के कारण ही यह स्थिति उत्पन्न हुई है। हर हाल में जीत के समीकरणों को ध्यान में रखते हुए सभी पार्टियां अपने-अपने प्रत्याशी तय कर रही है। 2015 में भाजपा 157 सीटों पर लड़ी थी लेकिन इस बार महज 110 पर ही लड़ेगी। इस परिस्थिति में तो 47 नेताओं को टिकट से स्वाभाविक तौर पर वंचित होना ही था। जदयू के साथ भी कमोबेश यही स्थिति है। राजद ने भी अपने कोटे की 144 सीटों में 18 विधायकों को टिकट से वंचित कर दिया है।
आंकड़ों में देखा जाए तो 2015 की तुलना में इस बार राजद में 29 नए चेहरे दिखेंगे। इसी चक्कर में सभी बड़े राजनीतिक दलों ने अच्छी-खासी संख्या में वर्तमान विधायकों का टिकट काट दिया है। किसी भी दल का दामन थामने के अलावा अच्छी-खासी संख्या उन उम्मीदवारों की भी है जो बतौर निर्दलीय मैदान में हैं। इनमें विधायक रहे सुनील पांडेय (तरारी, भोजपुर), गुलजार देवी (फुलपरास, मधुबनी), ददन पहलवान (डुमरांव, बक्सर), अनिल शर्मा (बिक्रम, पटना),श्रीकांत निराला (मनेर, पटना) तथा हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष रहे धीरेंद्र कुमार मुन्ना व बछवाड़ा (बेगूसराय) के दिवंगत विधायक रामदेव राय के पुत्र शिव प्रकाश प्रमुख हैं जो बिना किसी दल के अपने बूते चुनाव मैदान में हैं।
इनके अलावा भी कई पार्टियों के संगठन के लोग भी बगावत कर मैदान में कूद चुके हैं। कहा जा रहा है कि केवल कोसी क्षेत्र (सीमांचल के साथ) में ही भाजपा के करीब दो दर्जन नेता उन सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं जो समझौते के तहत जदयू के खाते में चली गई हैं। ऐसा नहीं है कि पार्टियों ने इनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की है। इन्हें निलंबित या निष्कासित कर दिया गया है किंतु कार्रवाई का डर भी महत्वाकांक्षा पर भारी नहीं पड़ रहा।
कई जगहों पर पार्टियों ने मान-मनौव्वल के बाद बागी हुए अपनों को मनाने में कामयाबी भी पाई है। कुछ जगहों पर पार्टियों ने भी विरोध के बाद उम्मीदवार बदला है। हालांकि अंतिम चरण के मतदान के लिए नामांकन अवधि पूर्ण होने तक बागियों की संख्या में इजाफा ही होने के आसार हैं। फिलहाल पहले चरण की करीब चालीस से अधिक सीटों पर बागी उम्मीदवारों की उपस्थिति से जबरदस्त चुनावी मुकाबला होने की संभावना है।
बदस्तूर जारी रहा पाला बदल का खेल
प्रदेश की सभी पार्टियां दल-बदल के खेल का शिकार हुईं। दरअसल ध्येय तो किसी भी कीमत पर टिकट पाने का होता है, इसलिए इसमें किसी भी तरह का संशय उन्हें पाला बदलने के लिए प्रेरित करता है। तब दलीय प्रतिबद्धता या राजनीतिक आस्था महज दिखावे की वस्तु रह जाती है। इस खेल में कई लोगों को तो मुकाम मिल जाता है, जबकि कई दल बदलने के बाद भी उद्देश्य में कामयाब नहीं हो पाते और जिन्हें क्षेत्र में किए काम से अपनी जीत का पूरा भरोसा होता है वे बिना किसी दल के ही रणभूमि में उतर जाते हैं।
चूंकि पार्टियों का लक्ष्य भी येन-केन-प्रकारेण चुनाव में विजयश्री हासिल करना होता है, इसलिए उन्हें भी दल-बदल के खेल से गुरेज नहीं होता। स्थिति तो यहां तक आ जाती है कि पिता किसी दल में होता है और पुत्र किसी और पार्टी में। खगड़िया के लोजपा सांसद चौधरी महबूब अली कैसर के पुत्र मो. युसूफ सलाउद्दीन ने राजद का दामन थाम लिया है।
कांग्रेस को छोड़कर बाहुबली नेता आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद अपने पुत्र चेतन आनंद के साथ राजद में शामिल हो गईं। मां-बेटे, दोनों को राजद ने अपना प्रत्याशी भी बना दिया। देखा जाए तो 2015 में चुनाव जीत चुके एक दर्जन से अधिक विधायकों ने अपना घर बदल लिया। अब जो किसी न किसी वजह से पार्टी बदलकर चुनाव लड़ेंगे वे तो बागी की ही संज्ञा पाएंगे।
पटना के बिक्रम विधानसभा क्षेत्र से एक बार लोजपा से तथा दो बार भाजपा से विधायक रहे अनिल शर्मा कहते हैं, जब विधायक रहा तब तो काम किया ही इसलिए तीन टर्म चुना गया किंतु 2015 में जब पराजित होने के बाद भी पूरे पांच साल तक भाजपा के प्रतिनिधि के रूप में क्षेत्र की जनता के हर सुख-दुख में भागीदार बना, तन-मन-धन से लगा रहा। इसके बावजूद पार्टी ने मेरा टिकट काटकर पैराशूट उम्मीदवार को प्रत्याशी घोषित कर दिया।
इससे जनता बौखला गई और उन्हीं की मांग पर मैं निर्दलीय चुनाव मैदान में आया। वहीं मधुबनी जिले के फुलपरास से जदयू विधायक रही गुलजार देवी कहतीं हैं, पार्टी ने अंतिम समय तक आश्वासन के बाद टिकट नहीं दिया जबकि मैंने क्षेत्र पार्टी का मान बढ़ाया और जनता का विश्वास जीता है। इसलिए अब जनता की मांग पर ही निर्दलीय लड़ रही हूं।
हर हाल में जीतने की रणनीति
पत्रकार रवि रंजन कहते हैं, दरअसल राजनीतिक दलों द्वारा टिकट वितरण में अपने आधार मतों के नेताओं को प्राथमिकता देने तथा दूसरी पार्टी के वोट बैंक में सेंध लगाने की प्रवृत्ति दल-बदल को बढ़ावा देती है। यह काफी हद तक सही है। सिद्धातों की पार्टी होने का दावा करने वाले जदयू ने भी शायद इसी वजह से टिकट बांटने में अपने लव-कुश (कुर्मी-कोईरी) के साथ राजद के माई (मुस्लिम-यादव) समीकरण को भी ध्यान में रखा। इसी को ध्यान में रखकर मंत्रियों तक के चुनाव क्षेत्र में भी बदलाव किया गया।
रणक्षेत्र में हर हाल में विजय प्राप्त करना ही किसी सेनापति का उद्देश्य होता है किंतु बागियों की मौजूदगी भीतरघात की संभावना को भी बढ़ा देती है। वैसे भी छोटे-छोटे गठजोड़ों ने भी चुनाव में पार्टियों की मुश्किलें और मतदाताओं के लिए फैसले की जटिलता बढ़ा ही दी है। चुनाव के नंबर गेम में कौन आगे होगा और कौन पीछे यह तो समय बताएगा किंतु बिहार के इस महासंग्राम में उन प्रत्याशियों के लिए जीत की राह उतनी भी आसान नहीं रह जाएगी, जहां बागी उन्हें ललकार रहे हैं। रिपोर्ट : मनीष कुमार, पटना