उत्तर भारत के बहुतायत हिस्सों में दशहरे से पहले होने वाली रामलीलाओं में मंचन के दौरान आमतौर पर पात्रों के संवाद हिन्दी में होते हैं। बीच-बीच में रामचरित मानस की चौपाइयों का गायन भी होता है। कहीं-कहीं पात्रों के बीच संवाद अदायगी राधेश्याम रामायण के दोहों के जरिए भी होती है जिसमें हिन्दी, अवधी और ब्रज के साथ-साथ उर्दू के भी शब्द होते हैं।
दिल्ली से लगे हरियाणा के फरीदाबाद और पलवल में होने वाली कुछ रामलीलाओं में रामायण के पात्र जब उर्दू या फिर पाकिस्तान की कुछ स्थानीय भाषाओं में संवाद बोलते हैं, तो यह इस मंचन को एक अलग कलेवर देता है।
देश विभाजन के बाद पाकिस्तान के इलाकों से आए लोग
"हो न अंधे इस कदर इस मोह के जंजाल में, इक दिन आना पड़ेगा काल के गाल में। इस रुखे ताबां पे होगी मुदार्नी छाई हुई, तेरी शान होगी वक्त की ठोकर से ठुकराई हुई।" इस तरह के संवाद किसी मुशायरे में पढ़े जाने वाले शेर का आभास करा सकते हैं, लेकिन ये उन्हीं संवाद अदायगी का एक उदाहरण है जो इन रामलीलाओं के पात्र करते हैं।
फरीदाबाद की श्री श्रद्धा रामलीला कमेटी के मंच पर राम-लक्ष्मण, सीता, रावण, हनुमान और अंगद का किरदार निभाने वाले कलाकार इस समय ऐसी ही संवाद अदायगी कर रहे हैं। हिन्दी-उर्दू शब्दों के मिश्रण से बने संवादों के इस्तेमाल की यह परंपरा काफी पुरानी है।
इसकी वजह ये है कि यहां न सिर्फ रामलीला में हिस्सा लेने वाले ज्यादातर कलाकार पाकिस्तान के अलग-अलग जगहों से आए हुए हैं, बल्कि स्थानीय लोगों में भी ज्यादातर ऐसे हैं जो बंटवारे के समय 1948 से 1950 के बीच (मौजूदा) पाकिस्तान के बन्नू, डेरा इस्माइल खान, कोहाट, पेशावर जैसे शहरों से आकर यहां बस गए थे। ये लोग ज्यादातर फरीदाबाद के न्यू इंडस्ट्रियल टाउन (एनआइटी) और पड़ोसी जिले पलवल में जवाहर नगर कैंप में रहते हैं।
विभाजन की त्रासदी
विभाजन के समय पाकिस्तान से बड़ी संख्या में आई हिंदू आबादी को फरीदाबाद में बसाया गया था। उन्हीं के साथ ये उर्दू-भाषी रामलीला भी यहां आई। विभाजन को सात दशक हो गए, लेकिन यहां की रामलीलाओं का अंदाज बहुत ज्यादा नहीं बदला है। जिन लोगों ने इसकी शुरुआत की थी, अब उनकी तीसरी पीढ़ी भी इस परंपरा को आगे ले जा रही है।
ऐसी ही एक रामलीला के आयोजकों में शामिल दीनानाथ बताते हैं कि उनके पूर्वज बंटवारे से पहले पाकिस्तान में उर्दू शब्दों की बहुलता वाले संवाद ही रामलीला में सुनाया करते थे क्योंकि यह भाषा वहां आम थी और सभी लोग समझते थे। विभाजन की त्रासदी में लाखों लोग इधर से उधर हो गए, घर-बार छूट गए, लेकिन लोगों ने अपनी सांस्कृतिक विरासत नहीं छोड़ी। भारत आने पर यहां भी वह शैली जारी रही।
फरीदाबाद की 'श्री श्रद्धा रामलीला कमेटी' के निदेशक अनिल चावला पेशे से व्यापारी हैं। रामलीला में वह लक्ष्मण की भूमिका निभाते हैं। उनके दो छोटे भाई रामलीला में रावण और हनुमान की भूमिका निभाते हैं। अनिल चावला बताते हैं कि पिछले कुछ सालों से उनकी यह उर्दू-बहुल रामलीला फरीदाबाद की सीमाओं के बाहर भी मंचन करने लगी है।
भारत में और भी जगहों पर हुआ मंचन
अनिल चावला के मुताबिक, साल 2017 में मुंबई के मशहूर पृथ्वी थिएटर में भी रामलीला का मंचन किया गया। वह बताते हैं, "पृथ्वी थिएटर में दो-दो घंटे के तीन सत्रों में रामलीला का मंचन हुआ था। इसके बाद साल 2018 में दिल्ली के ध्यानचंद स्टेडियम में आयोजिक 'जश्न-ए-रेख्ता' कार्यक्रम में भी उर्दू रामलीला का मंचन हुआ। साल 2018 में ही दिल्ली उर्दू अकादमी की तरफ से भी इसका आयोजन किया गया था। दर्शकों ने इसे काफी सराहा था।"
उर्दू रामलीला की लोकप्रियता न सिर्फ फरीदाबाद में है, बल्कि दिल्ली से भी कई लोग इसे देखने यहां आते हैं। आयोजकों के मुताबिक, शुरुआत में कलाकारों को उर्दू भाषा के संवाद समझने में थोड़ी कठिनाई हुई, लेकिन धीरे-धीरे कई दिनों के अभ्यास के बाद वे पारंगत होते गए। रामलीला में दशरथ की भूमिका निभाने वाले अजय खरबंदा बताते हैं कि यह किरदार वो पिछले 15 साल से निभा रहे हैं। वह बताते हैं कि पहले तो शब्दों का अर्थ भी समझ नहीं आता था, लेकिन धीरे-धीरे सब समझ में आ गया।
अजय खरबंदा एक उदाहरण के जरिए बताते हैं कि जब हनुमान जी अशोक वाटिका में पहुंचते हैं, तो सीता जी को दंडवत प्रणाम करने के बाद अपना परिचय कुछ इस तरह देते हैं, "मां! आप कतई फिक्र न करें। मैं आपको हिफाजत के साथ भगवान राम के पास ले जाऊंगा। मुझे तो अभी भगवान राम का हुक्म नहीं है, वर्ना मैं आपको अभी वापस ले जाता... इन शैतानों से दूर।"
बन्नूवाली भाषा में रामलीला
फरीदाबाद में ही ऐसी ही एक और रामलीला समिति है, जागृति रामलीला कमेटी। इस रामलीला में पात्र बन्नूवाली भाषा (बोली) में संवाद करते हैं। यह पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वाह के बन्नू इलाके में बोली जाती है। विभाजन के बाद इन लोगों के साथ बन्नूवाली भाषा भी यहां पहुंची और अभी भी जिंदा है। हालांकि, आयोजक समिति के महासचिव गुरुचरण सिंह भाटिया बताते हैं कि इस भाषा को बोलने और समझने वाले बहुत कम रह गए हैं, इसलिए अब सिर्फ एक ही अध्याय का मंचन इस भाषा में होता है, बाकी हिन्दी भाषा में।
डीडब्ल्यू से बातचीत में गुरुचरण सिंह भाटिया कहते हैं, "1960 में हमारे पिता जी और दूसरे लोगों ने मिलकर इसे शुरू किया था, लेकिन बाद में यह रामलीला बंद हो गई। साल 2012 में हम लोगों ने इसे फिर शुरू किया। पहले तो यह पूरी-की-पूरी बन्नूवाली में ही होती थी। अब सिर्फ एक एपिसोड, या तो सीता स्वयंवर या फिर अंगद संवाद ही बन्नूवाली में करते हैं। बाकी पूरी रामलीला हिन्दी और उर्दू में होती है। कुल 14 दिन तक होती है हमारे यहां की रामलीला।"
इसका कारण स्पष्ट करते हुए गुरुचरण सिंह भाटिया बताते हैं कि नई पीढ़ी के बच्चों को यह भाषा नहीं आती। एक अन्य पक्ष यह भी है कि रामलीला के कई पात्र सिर्फ उन्हीं के समुदाय के लोग नहीं, बल्कि बिहार-उत्तर प्रदेश से आए लोग भी हैं। उन्हें यह भाषा नहीं आती। गुरुचरण सिंह भाटिया बताते हैं कम-से-कम एक प्रसंग का मंचन बन्नूवाली में इसलिए किया जा रहा है, ताकि भाषा को यहां जिंदा रखा जा सके। बन्नूवाली भाषा पंजाबी से मिलती-जुलती है और इसमें उर्दू के शब्द हैं।