धरती की 'सनस्क्रीन' बर्फ न रहे तो क्या होगा?

रविवार, 29 जनवरी 2023 (08:44 IST)
जनेट स्विंक
जर्मनी और फ्रांस से लेकर चेक गणराज्य तक, यूरोप के बहुत से स्की रिसॉर्टो में इस सीजन सर्दियों की अद्भुत छटा नजर नहीं आ रही। उसकी बजाय खाली ढलानों पर जहां-तहां नकली बर्फ बिखरी हुई है।
 
फॉसिल ईंधनों को जलाने से होने वाले उत्सर्जनों से जलवायु का बदलना जारी है, तापमान इतना गरम हो रहा है कि बर्फ टिकती ही नहीं। कई जगहों पर बर्फबारी की जगह बारिश हो रही है। उसके नतीजे विंटर स्पोर्ट्स तक सीमित नहीं हैं। पानी की सप्लाई और जैव विविधता को भी नुकसान पहुंच रहा है।
 
कम बर्फ का मतलब गर्मियों में कम पानी : ईटीएच ज्युरिख यूनिवर्सिटी में ग्लेसियोलॉजिस्ट, डेनियल फारीनोती कहते हैं, "जल चक्र में बर्फ एक अहम भूमिका निभाती है। वो एक निश्चित समय के लिए पानी को बचाए रखती है। बर्फ में जमा पानी तत्काल ही नहीं बह जाता बल्कि पहले गर्मियों में बहता है।" जब बर्फ पिघलती है, तो पिघला हुआ पानी धीरे धीरे आसपास की झीलों, नदियों और भूजल में चला जाता है।
 
बर्फ एक तरह की स्टोरेज का काम करती है और जब वो कम हो जाती है या नहीं रहती, तो उस साल के आखिर में हमें कम पानी मिलता है। आंशिक रूप से बर्फ के पिघले पानी से भरने वाली नदियों का जलस्तर भी कम रह जाता है। यूरोप के सबसे महत्वपूर्ण जलमार्गों में से एक, राइन नदी भी इस कमी का शिकार है।
 
बर्फ की किल्लत शिपिंग और बिजली सप्लाई के लिए भी बुरी : राइन के लिए पिघली हुई बर्फ के जलाशय अहम हैं क्योंकि उनकी बदौलत वो गर्मियों के सूखे हालात झेलती है। इंटरनेशलन कमीशन फॉर द हाइड्रोलॉजी ऑफ द राइन बेसिन के एक अध्ययन के मुताबिक, "पिघलते ग्लेशियर और कम बर्फ, बाजेल से लेकर उत्तरी सागर तक राइन में जलस्तर की कमी को और गंभीर बना सकते हैं। अध्ययन के मुताबिक पिघली बर्फ से बने पानी की कमी की भरपाई, बारिश नहीं कर पाएगी। और उथली होती जाती राइन नदी उन सभी पर असर डालेगी जो उस रास्ते का इस्तेमाल करते हैं।
 
रिपोर्ट के अनुसार सदी के आखिरी वर्षों में, मालवाहक जहाज साल में दो महीने से ज्यादा की औसत अवधि में कई बार बुरी तरह बाधित हो सकते हैं। बिजली उत्पादन बाधित हो सकता है। पेयजल आपूर्तिकर्ताओं और किसानों को तीखी, सूखी गर्मियों में और ज्यादा किल्लत का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा, जब पानी की मांग बढ़ जाती है।
 
बर्फ की किल्लत से सामंजस्य बैठाने की जरूरत : इटली के साउथ टाइरोल स्थित यूराक रिसर्च नाम के एक इंटरडिसिप्लीनरी शोध केंद्र में जलवायु वैज्ञानिक, मार्क सेबिश के मुताबिक, बर्फ के पिघलाव में आ रही कमी से पैदा पानी की किल्लत से निपटने के लिए, सर्दियों में बारिश के पानी को जमा करने वाले कृत्रिम भंडार वाले बेसिनों की जरूरत है। लेकिन उसका मतलब होगा प्राकृतिक पर्यावरण में बदलाव। ऐसे बेसिनों के लिए पहाड़ों में जगह भी सीमित है।
 
इसीलिए, सेबिश के मुताबिक, सूखे का खतरा जब बढ़ता है, तो जहां कहीं संभव है हमें पानी बचाना होगा।" सेबिश कहते हैं कि दक्षिणी आल्प का कृषि सेक्टर अभी भी काफी पानी यूं ही बहा देता है। जैसे कि, खेतों में फव्वारों का इस्तेमाल होता है जिससे कि एक महत्वपूर्ण संसाधन वाष्प बनकर उड़ जाता है और रिस जाता है।
 
ऑस्ट्रिया की इन्सब्रुक यूनिवर्सिटी में जियोग्राफर और टूरिज्म रिसर्चर रॉबर्ट श्टाइगर कहते हैं कि किसानों को भविष्य के और अधिक सूखे पर्यावरण में उगाने लायक फसलों के बारे में सोचना होगा। वे कहते हैं, "इटली की पो घाटी में, बहुत कम चावल उगाने की योजना है क्योंकि उसमें बहुत पानी खर्च होता है।" पिछली गर्मियों में पो करीब करीब सूख ही गया था। बेतहाशा गर्मी और सूखे की अवधि से जूझने के अलावा, इटली को पिछली सर्दियों में बर्फ और बारिश के अभाव से भी जूझना पड़ा था। दोनों चीजों की किल्लत से यूरोप की कई नदियों का जलस्तर काफी नीचे चला गया था।
 
पहाड़ों को नुकसान पहुंचाता बर्फ का अभाव  : पर्वतीय इलाकों में भी गायब होती बर्फ के दुष्परिणाम महसूस किए जा रहे हैं। जब बर्फबारी के बदले भारी बारिश होती है, तो श्टाइगर कहते हैं, भूस्खलन का खतरा भी बढ़ जाता है। बर्फ का पिघलाव और भारी बारिश अगर एक साथ हो तो स्थिति और बिगड़ जाती है। ईटीएच ज्युरिख से जुड़े फारीनोती कहते हैं कि कम बर्फबारी से ईकोसिस्टम भी बदल जाते हैं। उनके मुताबिक, "बर्फ के बिना, ईको प्रणालियों का कम्पोजिशन अलग हो जाएगा क्योंकि दूसरी प्रजातियां माइग्रेट कर जाएंगी।"
 
पिघली हुई बर्फ पहाड़ों की मिट्टी को बारिश के पानी की अपेक्षा ज्यादा लंबे समय तक नम रखती है क्योंकि वो लंबी अवधि में धीरे धीरे पानी छोड़ती है ना कि एक झटके में। वसंत ऋतु में दूसरी चीजों के अलावा, पौधों की वृद्धि के लिए भी ये नमी महत्वपूर्ण होती है। पानी की कमी से कीट भी पनपते हैं। साउथ टाइरोल में सेबिश ने बार्क बीटल (गुबरैला) के संक्रमण में बढ़ोतरी दर्ज की थी। सूखे, कमजोर पेड़ों को ये कीड़े मजे से चट करते जाते हैं। 
 
बर्फ के बिना प्रकाश के रिफलेक्शन में कमी : बर्फ की सतह, अलबेडो प्रभाव का एक अहम हिस्सा है। प्रकाश को परावर्तित करने की, किसी सतह की क्षमता को अलबेडो अफेक्ट कहा जाता है। प्रकाश को परावर्तित कर सफेद बर्फ, धरती के तापमान को कम बनाए रखने में मदद करती है। ध्रुवीय इलाकों में ये खासतौर पर महत्वपूर्ण है, समन्दर पर फैली बर्फ और स्कैंडिनेविया और साइबेरिया के बर्फ से ढके विशाल ट्रुंडा वनों के बारे में जरा सोचिए। सेबिश कहते हैं, "बर्फ धरती का सनस्क्रीन हैं। वो वॉर्मिंग से हिफाजत करती हैं।"
 
निचली पर्वत ऋंखलाओं में, बर्फ का अभाव वैश्विक अलबेडो अफेर्ट में बड़ी भूमिका नहीं निभाता है। लेकिन उसका एक उल्लेखनीय स्थानीय असर तो पड़ता ही है। प्रकाश को रिफलेक्ट करने वाली बर्फ के बगैर, मिट्टी तेजी से गरम हो जाती है और सूखने लगती है। बारिश का पानी जमीन में रिसने के बजाय ऊपर ही ऊपर सूख जाता है, जो आगे चलकर जंगल में आग का खतरा भी बढ़ा सकता है क्योंकि ज्यादा सूखा पर्यावरण ज्यादा ज्वलनशील होता है।
 
नयी नयी बर्फ ग्लेशियरों के लिए भी बहुत जरूरी है। पानी धरती पर आइस के रूप में तभी जमा रह सकता है जबकि पूरे साल भर आसमान से फाहों की तरह गिरकर वायुमंडलीय भाप, उसके ऊपर बर्फ की तरह न जमी रहे। सेबिश कहते हैं, "अगर बर्फ न रही तो ग्लेशियर भी खत्म समझो।"
 
नकली बर्फ और प्लास्टिक के तिरपाल नहीं काम आ सकते : बर्फ यानी हिम को बदलना या स्टोर करना कतई नामुमकिन है। श्टाइगर कहते हैं कि ऐसा करना बहुत महंगा सौदा है और किन्हीं खास ठिकानों पर ही ऐसा संभव है जहां कोई आर्थिक दलील जुड़ी हो जैसे कि विंटर खेलों को लेकर। कृत्रिम बर्फ तैयार करने के लिए बहुत सारी ऊर्जा और पानी की जरूरत है। विशेषज्ञों के मुताबिक कई इलाकों में नकली बर्फ के लिए भी एक रोज बहुत ज्यादा तपिश भरी स्थिति हो जाएगी।
 
बर्फ को सफेद प्लास्टिक तिरपाल से बचाए रखना भी कोई आसान काम नहीं। कुछ लोगों ने ग्लेशियरों पर ये आजमाया है। श्टाइगर कहते हैं, "तिरपाल की चद्दरों को खोलकर बिछाने में कई हफ्ते लग जाते हैं और उन्हें हटाने में भी उतना समय लगता है। ये भी पता चला है कि तिरपाल पर्यावरण में माइक्रोप्लास्टिक भी छोड़ते हैं।"
 
फारीनोती के मुताबिक दुनिया के बर्फविहीन या हिमविहीन होने से रोकने के लिए, एक ही काम है जो हम लोग कर सकते हैं। और वो है सीओटू उत्सर्जन में कटौती करते हुए जलवायु परिवर्तन को रोकना। फारनोती कहते हैं, "मैं मानता हूं कि वैसा करना, इन तमाम तकनीकी उपायों की अपेक्षा, ज्यादा आसान और उचित होगा।"
 

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