लड़कियों को सरकार द्वारा मुफ्त सैनिटरी पैड देने की मांग पर एक आईएएस अधिकारी ने जो जवाब दिया, उससे सरकार की मुख्यमंत्री किशोरी स्वास्थ्य योजना की हकीकत की कलई खुल गई। लैंगिक असमानता मिटाने वाली सरकारी योजनाओं की जानकारी बच्चियों को देने के उद्देश्य से आयोजित एक वर्कशॉप में स्कूल गर्ल्स को सरकार द्वारा मुफ्त सैनिटरी पैड देने की मांग पर कार्यक्रम में उपस्थित एक आईएएस अधिकारी ने जो जवाब दिया, उसकी कल्पना भी बच्ची ने नहीं की होगी।
अधिकारी के अप्रत्याशित जवाब पर एक ओर जहां हंगामा मच गया, वहीं दूसरी ओर सरकार की मुख्यमंत्री किशोरी स्वास्थ्य योजना की हकीकत की कलई भी खुल गई। इसके साथ ही शुरू हुई बहस ने यह सोचने को विवश कर दिया कि स्कूल जाने वाली बच्चियां कितना कुछ झेलने को विवश हैं।
कारण उनके सरकारी स्कूलों में शौचालय या तो है नहीं, अगर है भी तो उसकी स्थिति इस्तेमाल करने लायक नहीं है। जी हां, मौका था राजधानी पटना में महिला एवं बाल विकास निगम द्वारा यूनिसेफ, प्लान इंटरनेशनल व सेव द चिल्ड्रेन नामक संस्था के साथ 'सशक्त बेटी, समृद्ध बिहार : टुवार्ड्स एनहांसिंग द वैल्यू ऑफ गर्ल चाइल्ड' विषय पर आयोजित वर्कशॉप का।
इसी कार्यक्रम के दौरान स्लम बस्ती की एक बच्ची ने महिला एवं बाल विकास निगम की एमडी व भारतीय प्रशासनिक सेवा (आइएएस) की अधिकारी हरजोत कौर बमराह की मुखातिब होते हुए अपने स्कूल के शौचालय की दुर्दशा बयान करते हुए कहा कि यह टूटा हुआ है, अक्सर लड़के भी घुस जाते हैं। इसका इस्तेमाल नहीं करना पड़े, इसलिए कम पानी पीते हैं।
इस पर एमडी ने कहा, तुम्हारे घरों में अलग-अलग शौचालय है क्या। हर जगह अलग से मांगोगी तो कैसे चलेगा। एक अन्य बच्ची ने उनसे पूछा, सरकार बहुत कुछ देती है तो क्या स्कूल में 20 रुपए का सैनिटरी पैड नहीं दे सकती? इस पर उनका जवाब था, ऐसी मांग का कोई अंत है। कल को जींस-पैंट मांगोगी, परसों सुंदर जूते और फिर परिवार नियोजन के साधन।
बच्ची ने कहा, जो सरकार को देना चाहिए वह तो दे। इस पर एमडी ने हिदायत देते हुए उसकी सोच गलत होने की बात कही और खुद भी कुछ करने को कहा। बच्ची प्रतिवाद करते हुए बोली, सरकार को इसके लिए पैसा इसलिए देना चाहिए किवह हमसे वोट लेने आती है।
इस पर एमडी ने इसे बेवकूफी की इंतिहा बताते हुए उसे पाकिस्तान चले जाने की सलाह दे डाली। हालांकि, उन्होंने बच्चियों से यह भी कहा कि उन्हें अपनी सोच बदलनी होगी। उन्हें यह तय करना होगा कि भविष्य में वे खुद को कहां देखना चाहतीं है। यह निर्णय उन्हें ही करना होगा। यह काम सरकार नहीं कर सकती है।
कार्यक्रम का वीडियो वायरल होने के बाद इस पर राजनीति शुरू हो गई। सरकार ने भी हस्तक्षेप किया और जांच के बाद कार्रवाई की बात की। एमडी बमराह ने भी अपनी ओर से सफाई दी कि वर्कशॉप का मकसद उनकी निर्भरता की बेडिय़ों को तोडक़र स्वतंत्र रूप से जीने के लिए प्रोत्साहित करना था। लेकिन, अगर मेरी बातों से किसी बच्ची को ठेस लगी हो तो मै खेद व्यक्त करती हूं।
मुख्यमंत्री किशोरी स्वास्थ्य योजना के तहत 300 रुपए का प्रावधान
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हरजोत कौर के खिलाफ जांच का आदेश दिया है। राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी जवाब तलब किया है। बहुत संभव है कि एमडी के खिलाफ कार्रवाई हो और उसके बाद पिछले अन्य वाकये की तरह समय के साथ यह मामला भी लोगों के जेहन से निकल जाए।
लेकिन,यक्ष प्रश्न तो यह है कि अगर सरकार की ओर से स्कूलों में सैनिटरी पैड के वितरण का प्रावधान है, तो इसकी जानकारी उस छात्रा को क्यों नहीं थी। उसे अब तक स्कूल में यह क्यों नहीं मिला।
बिहार सरकार ने 2015 में लड़कियों को स्वास्थ्य व स्वच्छता के प्रति जागरूक करने तथा ड्रॉप आउट को कम करने के उद्देश्य से मुख्यमंत्री किशोरी स्वास्थ्य योजना की शुरुआत की थी, जिसके तहत सरकारी स्कूलों में आठवीं से दसवीं कक्षा तक की लड़कियों को सैनिटरी पैड की खरीद के लिए सालाना 150 रुपए की राशि देने का प्रावधान किया गया था, जिसे बढ़ाकर 300 रुपए कर दिया गया है। आंकड़ों के अनुसार सरकारी स्कूलों की करीब 40 लाख छात्राओं को इस योजना का लाभ मिल रहा है।
सैनिटरी पैड के लिए नहीं मिले पैसे
एमडी बम्हारा से 20 रुपए की सैनिटरी पैड सरकार द्वारा देने की मांग करने वाली लडक़ी रिया कुमारी का कहना है कि वह और उसकी तरह की अन्य लड़कियों के लिए उसने यह मांग की थी, क्योंकि उसे और उसके साथियों को सैनिटरी पैड खरीदने के लिए कभी भी पैसे नहीं मिले।
इसके साथ ही यह सुझाव देना चाहती थी कि स्कूलों में एक सैनिटरी पैड बॉक्स लगे और जरूरत पड़ने पर लड़कियां उसे ले सके। स्कूल जाने वाली लड़कियों के लिए यह काफी गंभीर मामला है। पत्रकार अमित रंजन कहते हैं कि बच्ची कुछ भी गलत नहीं बोल रही।
अगर उसे एक बार भी इसके लिए पैसे मिले होते तो वह इस व्यवस्था से अनभिज्ञ नहीं होती। दरअसल, यह योजना भी भ्रष्टाचार की चादर में लिपट गई है। याद कीजिए सारण जिले के मांझी प्रखंड अंतर्गत हलखोरी साह हाईस्कूल के मामले को, जिसमें वर्ष 2016-17 में स्कूल के 7 लडक़ों को भी सैनिटरी नैपकिन के लिए पैसे दे दिए गए थे।
इस प्रकरण पर डॉक्टर अनामिका कहती हैं कि टॉयलेट और सैनिटरी नैपकिन जैसे महत्वपूर्ण इश्यूज पर और मुखर होने की जरूरत है। ये दोनों सीधे इंसान की जिंदगी से जुड़े हैं। एक वरिष्ठ अधिकारी को इस इश्यू पर बच्चियों का उचित मार्गदर्शन करना चाहिए, अन्यथा ऐसे मुद्दों पर विमर्श से बच्चियां परहेज करने लगेंगी। जो कतई उचित नहीं है।
तीन सदस्यीय कमिटी ने भी दी थी शौचालय की बदतर स्थिति की रिपोर्ट
वर्कशॉप के दौरान पटना के जिस मिलर स्कूल के शौचालय का मामला बच्ची ने उठाया था, उसके एक शौचालय के दरवाजे का निचला हिस्सा टूटा था और एक दरवाजे की छिटकनी गायब थी। इसे 7 दिनों के अंदर दुरुस्त करने का निर्देश जिला शिक्षा अधिकारी ने दे भी दिया है। उसे तय अवधि में दुरुस्त भी कर दिया जाएगा, किंतु प्रश्न यह है कि राज्य के सरकारी स्कूलों में शौचालय की दशा आखिर है कैसी। यह कोई पहला मामला नहीं है।
ऐसे ही मामले सामने आने पर पटना हाईकोर्ट ने मार्च 2021 में सरकारी स्कूलों के शौचालयों के बुनियादी ढांचे की वास्तविकता जानने के लिए 3 सदस्यीय कमिटी का गठन किया था, जिसने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा था कि इन स्कूलों में छात्राओं के लिए शौचालय या अन्य आवश्यक बुनियादी ढांचे है ही नहीं और यदि हैै तो फिर फंड की कमी या फिर सफाई कर्मियों की कमी के कारण बहुत खराब स्थिति में है।
पटना के दीघा स्थित एक स्कूल की छात्राओं का कहना था कि हमारे स्कूल में टॉयलेट है, लेकिन वह दोहरे ताले में बंद रहता है। बाउंड्री नहीं होने के कारण स्कूल में दिनभर असामाजिक तत्वों का जमावड़ा लगा रहता है। शायद इसलिए भी सर जी ने दोहरे ताले में बंद किया हो।
वैसे कई स्कूलों में, जहां शौचालय है भी, तो उसका लाभ बच्चों को नहीं मिल पाता है। टॉयलेट गंदा न हो, यह सोचकर शिक्षक ताला लगा देते है ताकि उन्हें इस्तेमाल करने में परेशानी नहीं हो। ग्रामीण गुड्डू पासवान कहते हैं कि स्कूल की केवल इमारत खड़ी कर दी गई है, सुविधाओं की चिंता किसी को नहीं है, क्योंकि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकतर बच्चे गरीब घरों से आते हैं और गरीब के बारे में सोचता कौन है? उनकी सुविधाओं की याद तो केवल चुनाव के समय ही आती है।
प्रिया नाम की जिस बच्ची ने शौचालय की स्थिति एमडी से बताई थी, वह स्लम बस्ती में रहती है। वहां सार्वजनिक शौचालय का एक बार इस्तेमाल करने पर 5 रुपए देने पड़ते हैं, इसलिए वह स्कूल के शौचालय के भरोसे रहती है। स्कूल में भी शौचालय ठीक नहीं है, इसलिए मजबूरी में वह काफी कम पानी पीकर आती है।
दूरदराज के इलाकों की बात तो छोड़िए, राजधानी पटना के आसपास के सरकारी स्कूलों में शौचालय नहीं होने या फिर बदतर स्थिति में होने के कारण जरूरत पड़ने पर उन्हें घर भागना पड़ता है। पीरियड्स आने पर तो उन स्कूलों की 6ठी से 8वीं की बच्चियों को तो छुट्टी ही लेनी पड़ जाती है। शौचालय नहीं होने के कारण बच्चे भी स्कूल नहीं आना चाहते है।
ऐसे ही एक स्कूल के हेडमास्टर नाम नहीं प्रकाशित करने की शर्त पर कहते है कि कई बार इसके लिए विभाग को लिखा, लेकिन कुछ हुआ नहीं। रटा-रटाया जवाब हर बार मिलता है कि निदान के उपाय किए जा रहे हैं। शौचालय के रखरखाव के लिए सफाईकर्मी के मद में कोई फंड स्कूल के पास नहीं है।
आखिर करें तो क्या? सामाजिक कार्यकर्ता रामप्रवेश राय कहते हैं कि सभी को वास्तविक स्थिति की जानकारी है, लेकिन बच्चे-बच्चियों के दर्द का अहसास नहीं है। नीति बनाने वाले मंत्रियों-अफसरों के कक्ष के साथ ही उनका शौचालय अटैच होता है तो नेचुरल कॉल की वेदना उन्हें कैसे महसूस होगी? दौड़ लगानी पड़े तो सब समझ में आ जाएगा।
जाहिर है, जब सड़कें बन सकती हैं, बिजली की विकराल समस्या का समाधान हो सकता है तो स्कूलों में बुनियादी ढांचों को क्यों नहीं दुरुस्त किया जा सकता है। नौकरशाहों, राजनीतिज्ञों व आमजन को बच्चों के इस दर्द को समझना होगा, अन्यथा इसी बहाने मानवीय क्षमता की बर्बादी भी होती रहेगी।
Edited by: Ravindra Gupta