स्मृ‍तियों के धुँधले साये में पिताजी

रामस्वरूप मूँदड़ा
ND
यदि यह अंदाज लगाया जाए कि मनुष्य बचपन की किस उम्र की घटनाओं को याद रख सकता है तो मुमकिन है कि ये आँकड़ा पाँच से नौ वर्ष का निकले। हम यदि स्मृतियों में पीछे घूमें तो पाएँगे कि हमें हमारे पाँच से नौ वर्ष की उम्र की कुछ घटनाएँ धुँधली होकर भी याद हैं। स्मृति का इतना भी विस्तार प्रकृति की देन है क्योंकि जीने के लिए 'भूलना' जरूरी है। जीवन जितनी भी कड़वी सचाइयों से होकर गुजरता है, उन्हें सबका सब याद रखना दुःख और गमों को हमेशा अपने पास बनाए रखना है जो हमसे जीने की सकारात्मकता छीन सकते हैं।

इसीलिए कहते हैं कि 'समय सबसे बड़ी दवा है।' बड़े से बड़े हादसे भी कुछ समय उपरांत भुला दिए जाते हैं और मन फिर सकारात्मकता से परिपूर्ण होकर जीवन की तलाश में निकल पड़ता है, लेकिन बावजूद इतना सब होने के कुछ घटनाएँ जीवन में ऐसी घट जाती हैं जिन्हें मन से निकालना नामुमकिन और असंभव होता है। यद्यपि समय के प्रभाव से उसकी यादें कुंद जरूर हो जाती हैं।

कल्पना कीजिए उस जगह जहाँ उम्र का 8वाँ और 9 वाँ वर्ष गुजारा हो वहाँ लगभग 40 वर्ष बाद पुनः जाना कैसा लगेगा? याद आएँगी खट्टी-मीठी यादें। रह-रहकर वह घर-आँगन देखने को जी चाहेगा जहाँ बचपन की यादें सिमटी हुई हैं। इसी जन्माष्टमी को जब मैं अपने गाँव की ओर रवाना हुआ तो यादों का एक गुमनाम सोता ही फूट पड़ा।

वह घर, वह मंदिर, वह बाड़ा, वह जीन, वह गलियाँ, यादों का एक अटूट सिलसिला जेहन में उतरने लगा। उस समय के संगी-साथी, स्कूल और खेलकूद का कारवाँ आँखों में आकर ठहर गया। साथ ही सुख-दुःख की मिली-जुली घटनाएँ भी घटाटोप बनकर स्मृतियों को कुरेदने लगीं।

ट्रेन के डिब्बे में पूरा परिवार था। सभी वो लोग, जिन्हें वहाँ की यादें थीं-अपनी-अपनी घटनाओं का जिक्र कर हँसी-ठिठोली कर रहे थे। इस हँसी-ठिठोली में वे मुझे भी शामिल करना चाह रहे थे लेकिन इस तरह मैं चुप था मानो एक सयाना अधेड़ आदमी अपने ही बचपने को फिर से जीने की कोशिश कर रहा हो।

सभी लोग स्मृतियों और यादों का उजाला पक्ष ही बयान कर रहे थे। किसी के जेहन में नाचते मोर की तस्वीर थी तो कोई बचपन में मंदिर में खेलने के क्षणों को ताजा कर रहा था। सब जानते थे कि इन स्मृतियों से एक बेहद स्याह पक्ष भी जुड़ा है लेकिन मैं देख रहा था कि सब उसे नजरअंदाज कर रहे थे। मेरा ध्यान उसी घटना की तरफ लगा हुआ था। बेहद धुँधली यादें थीं। आठ साल का कुल जमा मेरा बचपन और 45-50 साल के मेरे पिता की आकस्मिक मौत का हादसा, मुझे हर पल रूलाई दे रहा था।

पिताजी बावड़िया कॉटन मिल्स, हुगली (कोलकाता) में सेल्स मैनेजर के उच्च पद पर कार्यरत थे। अपनी प्रतिभा, मेहनत और ईमानदारी के लिए पूरे स्टाफ में उनका अलग ही सम्मान था। छुट्टियों के दौरान अपने गाँव आए थे, लेकिन फिर कभी न जा सके कोलकाता। और हमारा तो जीवन ही बदल गया था। कहाँ उस समय के कोलकाता में बिताए हुए आलीशान दिन और कहाँ मध्यप्रदेश के कोने में स्थित ग्राम जावद की वे ऊबड़खाबड़ पगडंडियाँ।

खैर...घर पहुँचते ही, सभी हँसी-उल्लास से भर गए। रह-रहकर उन चीजों पर जाकर नजरें टिक जाती थीं, जिनमें अपना बचपन संजोया था। एक बार फिर पूरे घर में पुरानी यादों का शोर समा गया। मैं चुपचाप उस कमरे की ओर बढ़ चला जो पिताजी की स्मृतियों से भरा पड़ा था।

मैं वहाँ रखी एक-एक चीजें उलट-पुलटकर देखने लगा। मुझे पिताजी के बारे में उतना ही मालूम था जितना मैंने घर के लोगों से सुना था। पिता को समझने के लिए आठ वर्ष आखिर होते ही कितने हैं। तभी मेरे हाथों में एक बड़ा लिफाफा लगा। मैं उत्सुकता से वह लिफाफा खोलने लगा। उस बड़े लिफाफे में कई छोटे लिफाफे रखे हुए थे। उनमें से एक लिफाफा निकालकर उसमें रखे पत्र को मैं पढ़ने लगा। अँगरेजी में लिखा था - His guidance and association was much more valuable in my life and on account of this sudden demise i am put to irreparable loss.

ND
मैं समझ गया कि वे सब वे शोकपत्र हैं जो मेरे पिताजी की मृत्यु के बाद उन्हें जानने वाले मित्र, परिजनों ने भेजे थे। बस फिर क्या था? एक-एक कर लिफाफे खुलते रहे और मैं आँखों में आँसू भरकर उन्हें पढ़ता रहा। हर पत्र से उनका सुदर्शन चेहरा जितना भी मुझे याद था, झाँक रहा था। अधिकतर पत्र अँगरेजी में थे जो कि उनके अनन्य मित्रों, वरिष्ठ ऑफिसरों ने लिखे थे।

आज 48-49 साल बाद जाकर मानो मैं अपने पिताजी को पहचान पाया। चिट्ठियाँ घड़ी कर मैं पुनः लिफाफे में डालने लगा। मन अंदर से पूरी तरह टूटा हुआ और दुःखी था। आँखें आँसुओं से भरी पड़ी थीं। तभी एक आवाज आई- 'राम, कहाँ हो। चलो भोजन तैयार है।' मैंने रूमाल निकालकर आँसू पोंछे।

नीचे चौक में आकर धीरे से सभी के साथ भोजन करने बैठ गया। मेरी स्मृतियों ने मुझे फिर झकझोरा। यही वह जगह थी जहाँ मृत्यु के बाद मेरे पिताजी का पार्थिव शरीर रखा था। मेरी पानी भरी आँखों में श्माशान का वह दृश्य भी एकाएक तैर गया। बड़े भाई साहब उस समय कोलकाता में ही थे। इसलिए उनकी अनुपस्थिति में मैंने और मेरे जुड़वाँ भाई लखन ने पिताजी की चिता को अग्नि दी थी। साथ में किसी संबंधी की गोद में तीन साल का कन्हैया भी था।

उस समय तो मैं समझ नहीं पाया था कि आठ वर्ष की उम्र में वह आघात कितना गहरा था। आज मुझे लग रहा है कि किस्मत ने कैसा क्रूर मजाक किया था हमारे साथ। रोटी का एक-एक कोर मेरे लिए असहाय हो गया। मुझे लग रहा था मानो मैं अभी बाबूजी को श्मशान में अग्नि के हवाले कर लौटा हूँ...।

वेबदुनिया पर पढ़ें