शोधार्थीजी

- यशवंत कोठारी

ND
शोधार्थीजी विश्वविद्यालय के बाहर ही मिल गए। चेहरे पर शोध के कारण शोथ (मुँह फूला हुआ) थी। वे बिलबिला रहे थे और शोध की अर्थी निकालने पर उतारू थे। मैंने पूछा क्या हुआ? बोल पड़े, 'होना क्या था, मेरा सिनोपसिस उस लड़की को दे दिया, अब मैं क्या करूँ?'

मैंने उन्हें दिल छोटा ना करने की सलाह दी और कहा‍- सिनोपसिस का क्या है? और लिख लेना। आजकल रिसर्च के बाजार में बाजारवाद हावी है। जितने चाहिए उतने सिनोपसिस ले लो। हिन्दी हो या कैमेस्ट्री, कोई फर्क नहीं पड़ता। अचानक वे फिर बोल पड़े 'मगर यार ये गाइड ससुरे इतने उतावले क्यों होते हैं? इधर लड़की देखी और उधर सिनोपसिस ही नहीं, पूरी थिसिस लिखकर दे दी।'

अरे भाई यह परंपरा है जब ये तुम्हारे गाइड रिसर्च कर रहे थे तब उनके गाइड भी इतने ही उतावले थे। वे जिंदगी भर गाइड के घर सब्जी लाते रहे। रेलवे हवाई जहाज के‍ टिकट बनवाते रहे, बच्चों को स्कूल छोड़ते रहे, स्कूल से लाते रहे। घर वालों को बाजार ले जाते रहे तब न जाकर पीएचडी हुए हैं।
  शोधार्थीजी विश्वविद्यालय के बाहर ही मिल गए। चेहरे पर शोध के कारण शोथ (मुँह फूला हुआ) थी। वे बिलबिला रहे थे और शोध की अर्थी निकालने पर उतारू थे। मैंने पूछा क्या हुआ? बोल पड़े, 'होना क्या था, मेरा सिनोपसिस उस लड़की को दे दिया, अब मैं क्या करूँ?'      


पीएचडी कोई मामूली चीज है क्या? तुम्हें तो अभी काफी पापड़ बेलने हैं गाइड के घर जाओ, आटा रखकर आओ, फिर भले विभाग में मत आना। शोधार्थीजी को बात जम गई। झोला कंधे पर डाला गुरु के नाम पर कुछ गालियाँ दीं और गाइड के घर की तरफ दौड पड़े।

शाम को वापस मिले। मैंने पूछा, 'गुरु तुम्हारी सिनोपसिस का क्या हुआ?' बोले, 'होना क्या था, तुम्हारा नुस्खा काम कर गया। अब गाइड सिनोपसिस लिख रहे हैं और मैं थड़ी पर बैठकर चाय पी रहा हूँ।'

आखिर विश्वविद्यालयों में शोध की हालत इतनी खराब क्यों है? सैकड़ों थिसिसें विश्वविद्यालय के भंडार में धूल खा रही हैं। छपे हुए पेपर्स आगे जाकर दूसरों के साबित हो जाते हैं। एक ही विश्वविद्यालय की थिसिस किसी दूसरे विश्वविद्यालय में भी दूसरे छात्र को पीएचडी दिला देती हैं।

एक ही टॉपिक पर कई पीएचडी हो जाते हैं। शोध का मतलब ही बदल गया है। एक प्रोफेसर ने स्पष्ट कहा- असली शोध तो यह है कि कुलपति तुम्हें जानता है या नहीं, राजभवन से संबंध अच्छे बनाना ही पोस्ट डॉक्टरल शोध है। असली शोध, अच्छा शोध पत्र और अच्छी पीएचडी बीते जमाने की बात हो गई है। अब अपराधी, मंत्री, अफसर, व्यापारी आदि शोध करते हैं और उनके नाम से शोध निबंध जमा हो जाते हैं। वे डॉक्टर हो जाते हैं और असली शोध लेखक टापता रह जाता है।

शोध लेखन की दरें तक तय हो जाती हैं। अकसर गंभीर अध्येता जिंदगी भर रोते रह जाते हैं और उनका शोध कार्य कोई अन्य छपवाकर मशहूर हो जाता है। पैसे ‍में बिकती शोध का स्तर गिरना स्वाभाविक है। जो शोध के गिरते स्तर को लेकर चिंतित हैं उनसे विनम्र निवेदन है कि इस पर एक सेमिनार करें। वैसे भी मेरे शोधार्थी मित्र का कहना है कि यदि एक मर्डर फ्री करने की इजाजत हो तो वह अपने गाइड का मर्डर करना चाहेगा।

शोध निबंध की दशा पर शायर का कहना ह
"दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगाकर बैठ गए"