अष्टावक्र की डायरी

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मुझे इस बात का फख्र है कि सारे देश में मैं अकेला व्यक्ति हूँ जिसके पास भोजपत्र पर लिखित एक छोटा-सा कीमती दस्तावेज उपलब्ध है, जो भारत के गौरवशाली अतीत का एक स्वर्णिम अंश हमारे सामने रखता है और अब तक अंधकार में छिपे हुए एक रहस्य पर से परदा हटाता है। इस बीस पेजी दुर्लभतम किताब का नाम ऋषि अष्टावक्र की डायरी अर्थात आत्मकथा है।

इस डायरी को पढ़कर उनके वास्तविक जीवन के बारे में, पहली बार अमूल्य जानकारी मिलती है। किताब इतनी वेदना से भरी हुई है कि हजारों वर्षों बाद भी उसके पृष्ठ गीले हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मुनि श्रेष्ठ रोते जाते थे और बर्रु को अपनी भावनाओं के खून में डुबोकर लिखते जाते थे।

मैंने माता के गर्भ में ही जान लिया कि मेरा असल नाम अष्टसिद्धिलाल है। मगर मैं पैदा हुआ तो तीन दिनों तक नहीं रोया। नवजात शिशु का रोना शुभ होता है, भले ही बड़े होने पर उसके लिए वह अशुभ हो जाए। तो मेरे पिता चाहते थे कि मैं रोऊँ। उन्होंने मेरी पसली में कोंचा बल्कि एक चाँटा भी मारा, पर मैं नहीं रोया।
  मुझे इस बात का फख्र है कि सारे देश में मैं अकेला व्यक्ति हूँ जिसके पास भोजपत्र पर लिखित एक छोटा-सा कीमती दस्तावेज उपलब्ध है, जो भारत के गौरवशाली अतीत का एक स्वर्णिम अंश हमारे सामने रखता है और अब तक अंधकार में छिपे हुए एक रहस्य पर से परदा हटाता है।      


अंत में वे खुद रोते हुए बोलने लगे- चालीस हजार रो। चालीस हजार रो। मैं अचरज में डूब गया। चमत्कारों का जमाना था। बच्चे पेट में ही से बोलने लगते थे। मैंने शुद्ध संस्कृत में पूछा- 'पिताश्री आप क्यों कर रोते हैं और मुझे रुलाने के लिए 'चालीस हजार, चालीस हजार' क्यों कर बोलते हैं?'

पिता बोले- 'पुत्र, जब तू गर्भ में था, तभी 'बृहस्पति लिटिल एन्जिल स्कूलम्‌' में मैंने तेरा एडमिशनम्‌ कराने के लिए चालीस हजार का डोनेशनम्‌ दिया था। इतना पैसा इकट्ठा करने में मेरी कमर टेढ़ी हो गई और कूबड़ निकल आई। मैं इसी का हवाला देकर तुझे रुलाने का प्रयास कर रहा था।

मैं बोला- 'मगर मुझे पैदा हो तो जाने देते। यह क्या कि मैं पेट में था और तभी आपने कान्वेंटम्‌ में मेरा नाम बुक कर दिया।' पिता बोले- 'गलत नहीं किया, पुत्र। आजकल एडमिशन के लिए इतनी भीड़ चल रही है कि संतान का जन्म होते ही नर्सरी स्कूल उसका नाम लिखाने की सुविधा देती है।

एक स्कूल ने तो अलग से जचकी वार्ड खोल दिया है कि माताएँ वहीं बच्चा पैदा करें और डोनेशन भरकर, उसी क्षण उसका एडमिशनम्‌ करा दें। पुत्र, जिस स्कूल में तुम्हें भर्ती कराया गया है, वह युग चिंतन को देखते एक हाथ आगे निकली। उसने सुविधा दे रखी है कि जैसे ही कोई स्त्री गर्भवती हो, उसका पति खट् से भावी संतान का नाम स्कूल रजिस्टर में बुक करा ले, बल्कि संतान का नाम पहले रख ले और फिर शादी करे।'

'आपने मेरा नाम क्या लिखाया?' मैंने कहा।

'अष्टसिद्धिलाल।' पिताश्री बोले।

मैंने कहा- 'देखा!'

'क्या बात है, पुत्र?' पिता बोल पड़े।

'कुछ नहीं। निजी बात है।' मैंने कहा।

चालीस हजार के पहाड़ जैसा डोनेशन सुनकर वह भी वन-जंगल में रहने वाले कृशकाय-ऋषि से, मुझे रोना आ गया। रोते-रोते मैंने पूछा- 'पिताश्री, इतना रुपया आप कहाँ से लाएँ?' वे काँखकर बोले- 'एक ऋषि से उधार लिया था, बेटे। वे एक राजा के यहाँ आते -जाते थे।'

'और मेरे एडमिशनम्‌ में आपकी कूबड़ निकल आई?'

'सत्य है, तात।'

पिता का दुःख महसूस करके मेरा एक अंग वक्र हो गया।

आगे कुछ पन्नो इतने गल गए थे कि पढ़ा नहीं जाता था। कुछ पन्नो फटे हुए निकले। भोजपत्र नंबर नवम्‌ पर कुछ ऐसा लिपिबद्ध था। 'मैं छः मास का हुआ तो बेकैया बेकैया (यानी घुटने से चलकर) स्कूल जाने लगा। उस वक्त शासन और पालकों में बालक का ज्ञान बढ़ाने की ऐसी धुन थी कि मैं पाँच किलो का बस्ता लेकर भूमि पर खिसकता था।

शासन का और महत्वाकांक्षी पालकों का भला हो इससे मेरे कुछ अन्य अंग भी वक्र हो गए। आगे मेरी प्रोग्रेस रिपोर्टम्‌ में मुझे होनहार छात्र बताया गया। बल्कि इतना ही क्यों, स्कूल के वार्षिक समारोह में तो दंडकवन के सीएम ने मुझे सारे वन के श्रेष्ठतम छात्र का बाल पुरस्कार भी दिया। मेरा एक अंग पुरस्कार ग्रहण करते करते टेढ़ा हो गया!'

आगे कुछ पन्नो पुनः गलित, फटित! अगले एक पृष्ठ पर कुछ ऐसी एंट्री थी।

'हुआ यह कि मेरे पिता के चौबीस दिवसीय निराहार व्रत की रिपोर्ट सुनकर किष्किंधा के वानर नरेश ने उन्हें एक कलर टीवी भेंट में दिया। था, तो वह द्वितीय हस्त यानी सेकंड हैंड, पर खूब अच्छा चलता था। मैं उस पर आठों प्रहर, चौबीस घड़ी कार्टून फिल्म देखता था। देखते-देखते मजा आता तो मैं टीवी में ही घुसकर बैठ जाता। माता मुझे स्नान, ध्यान एवं भोजन के लिए पुकारती तो मैं कहता- 'सब कुछ यहीं प्राप्त है।' पिता कहते- 'टीवी कम देखो, बेटा। आँख में दूरबीन लगाना पड़ेगा।' पर मैं किसी की नहीं सुनता। माता-पिता का लाड़ला जो था।

कभी-कभी माताश्री मेरा चेचुवा पकड़ खींचतीं, तो मैं टीवी को पकड़कर जोर-जोर से रोने लगता है। वे वानर नरेश को कोसतीं और मेरे साथ-साथ खुद को भी पीटती। पर मैं हाथ छुड़ाकर टीवी में घुस जाता और रोते-रोते, आराम से, कार्टून देखा करता। पर लगातार एक बैठक में बैठने के कारण और पर्याप्त प्राणवायु न मिलने के कारण मेरे और भी अंग विकृत हो गए। मैं अब पंचावक्र हो गया।'

अगला इंदराज शिक्षा और परीक्षा वगैरह को लेकर था। ज्ञानी बालक ने सिलेसिलेवार प्वॉइंट्स दिए हैं।

'परीक्षा सर पर है। पर कोई ऋषि-छात्र नहीं जानता कि कोर्स में कौन-सी पुस्तक है। कौन-सी पुस्तक नहीं।' हम सारा दिन विश्व कोष पढ़ते रहते हैं। 'कोर्स बुक समिति रो-गाकर कोई पुस्तक तय करती है कि दंडकवन में किसी कोने से आंदोलन हो जाता है और किताब रद्द हो जाती है। एक सरकारी लेखक ऋषि कूटपाणि ने तो यह लिख दिया था कि भगवान राम श्रीलंका में पैदा हुए। बाद में एक इतिहासकार ने बताया कि वे हस्तिनापुर में पैदा हुए थे।'

'कल वनमानुष टाइम्स' में शासन, बोर्ड ऑफ स्कूल्स और पाठ्य पुस्तक समिति का सम्मिलित बयान हुआ है कि ज्ञान अनंत है। इसलिए छात्रों के अकादमिक विकास की चिंता करने वाले समस्त शैक्षिक घटकों का अधिकार है कि वे शिक्षा के सभी मुद्दों पर अनिश्चित रहें और छात्रों को निरंतर अनिश्चित रखकर उनके असीम ज्ञान की परीक्षा ले।'

'कल मैं पेपर देने गया और दवात में कलम डुबोकर प्रथम प्रश्न के उत्तर का प्रथम शब्द लिख ही रहा था कि सेंटर चेंज हो गया।' 'मैं वटवृक्ष पर बैठकर परचा शुरू कर ही रहा था कि आदेश आया, परीक्षा का पैटर्न गलत है। परीक्षा फिर से होगी।'

'मैं इतना परेशान हो गया कि फिर फेल होने के लिए ही परचे किए। विश्वास था कि अच्छे नंबर से फेल हो जाऊँगा और मुदित होकर परीक्षाफल का इंतजार किया। मगर जब परीक्षाफल दिवाली पर निकला तो मेरी आँख निकल आई। दुःख के कारण मैं रो पड़ा। ओ अम्मा रे!मैं तो मेरिट लिस्ट में आया था। बड़ा शर्मिंदा हुआ।'

'मेरे एक सहपाठी के पिता ऋषि बज्रदंत ने बोर्ड में शिकायत लगाई कि गुफा नंबर चार के सेंटर के उनके पुत्र ने, समस्त ध्यान-भंग के बाद, अच्छे पर्चे किए थे। वह फेल कैसे हो गया? राष्ट्रपति इसका पता करें, वर्ना वह न्यायालय की शरण में जाएगा।'

'इस पर बड़ी उथल-पुथल मची। कॉपियाँ फिर से जाँची गईं। 'अंक पुस्तिका में सिर्फ योग की त्रुटि थी' यह कहकर पल्ला झाड़ा गया। इसके बाद यह हुआ कि मेरा साथी मेरिट लिस्ट में आ गया और मैं भी मेरिट लिस्ट में ही रहा।'

'मैं घबड़ा गया कि अनिश्चित, अनिश्चित, दसों दिशाओं में अनिश्चित। कल मेरा भविष्य क्या होगा। मैं खुद को आईने में पहचान पाऊँगा या नहीं?' अंतिम वाक्य तो और भी मार्मिक है।

यह सब देखकर, सोचकर मेरे आठों अंग वक्र हो गए। मेरे अष्टावक्र होने की असल कथा यह है। आगामी पीढ़ियों के लिए सनद रहे कि मैं साबुत ही पैदा हुआ था। पर पालकों की महत्वाकांक्षा, झूठी, पुस्तक लदाऊ शिक्षा, चौबीसों घंटे के अनिवार्य होमवर्क, खेलकूद के घंटों का सर्वनाश, एक रात में अँगरेज बन जाने की धुन और पश्चिमानुरागी, अंधी सरकारों के कारण मेरा मन और शरीर सब टेढ़े हो गए। हाय। मैं अष्टसिद्धि लेकर पैदा हुआ था पर कहलाया-

अष्टावक्र! लोग इस नाम को भूल जाएँ बल्कि याद रखें- 'समूचा समाज, समूची सरकार सर्वांगवक्र!'

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