होली और रंगपंचमी दोनों का ही रंगारंग समापन हो चुका है, लेकिन रंगों की उमंग और भंग की तरंग के महामंथन से कुछ 'विचार रूपी रत्न' भी प्राप्त हुए हैं। समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत तो देवताओं ने बांट लिया था, लेकिन बिना किसी भेदभाव के विचार रत्न आप सबके लिए प्रस्तुत हैं...
जिस तरह राष्ट्र की रक्षा नीति, शिक्षा नीति, खेल नीति या खनन नीति होती है उसी तरह हमारी मांग है कि राष्ट्र की 'होली नीति' होना चाहिए। इस नीति के तहत भांग को राष्ट्रीय पेय, रंग बरसे को राष्ट्रीय गीत (राष्ट्र गान नहीं), भ्रष्टाचार को वैकल्पिक राष्ट्रीय धर्म और चीर हरण को राष्ट्रीय तमाशा घोषित किया जाना चाहिए। व्यापक बहस और जनता से रायशुमारी करने के बाद हम इन मांगों पर पहुंचे हैं। एसएमएस और ईमेल के माध्यम से हमने जनता से अपनी राय मांगी थी। हमें केजरीवाल जी से अधिक संख्या में प्रतिक्रियाएँ एवं मत प्राप्त हुए हैं।
भांग को राष्ट्रीय पेय की मांग इससे प्राप्त होने वाले असंख्य लाभों को ध्यान में रखकर की गई है। भांग जो खाई भी जा सकती है और पी भी जा सकती है, एक स्वास्थ्यवर्धक हर्बल आयुर्वेदिक पेय है। आदि काल से इसका सेवन किया जाता रहा है। देवों एवं असुरों में समान रूप से लोकप्रिय यह पेय सेवन करने वाले को धरती की सतह से ऊपर उठाकर कुछ देर के लिए ही सही, सम्राट बना देता है। यह हर्बल पेय स्वयं भगवान शिव का प्रसाद है। अतः गांधीजी को भी कोई आपत्ति नहीं थी तथा इस पेय को ड्राय डे से भी मुक्त रखा गया है। इसे पीने या खाने के लिए किसी मयखाने की आवश्यकता नहीं होती। सड़क चलते मुंह में गोली दबा सकते हैं। इसके सेवन के प्रसार से पेप्सी, कोला और विदेशी शराब पर खर्च होने वाली महंगी विदेशी मुद्रा की बचत होगी।
देश और विदेश की चिंता में डूबे कलमचियों और संपादकों के लिए यह पेय बहुत सेहतमंद सिद्ध हुआ है। भांग मस्तिष्क को विचार शून्य करती है जिस अवस्था को ध्यान योग से भी इतनी आसानी से प्राप्त नहीं किया जा सकता। पीने के बाद पीने वाला शहंशाहत्व को प्राप्त करता है। अतः हमारा आग्रह है कि इसे शीघ्र राष्ट्रीय पेय घोषित किया जाए। इस प्राचीन पेय को पुनर्स्थापित करने का सुझाव एवं आग्रह स्वयं नामचीन योग गुरु द्वारा चलाई गई मुहिम के अनुकूल है जिसमें देशी एवं हर्बल उत्पादनों के उपभोग की महत्ता का महाप्रचार किया जा रहा है।
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‘रंग बरसे’ लोक संगीत पर आधारित, होली की मस्ती में लिखा गया, कर्णप्रिय धुन पर सजाया गया एक लोकप्रिय होली गीत है। इस गीत के स्तर को लेकर श्री हरिवंशराय बच्चन की आलोचनाएं भी बहुत हुई थीं किन्तु उसके बाद तो खटिया, लुंगी, बगल में जूता जैसे अनेक घटिया गीत भारतीय संगीत पर अपनी बेहूदा छाप छोड़ चुके हैं। इस होली पर भी यह बेहूदगी जारी रही। इसी हेतु नए संगीतज्ञों को प्रोत्साहन देने के लिए हम चाहते हैं कि रंग बरसे को राष्ट्रीय गीत की मान्यता मिले।
भ्रष्टाचार को हम एक वैकल्पिक राष्ट्रीय धर्म की मान्यता देने की माँग इसलिए कर रहे है कि इस धर्म को अपनाने के बाद सभी लोग इस पुण्य कार्य में व्यस्त रहेंगे। भ्रष्टाचार से देश में सक्रियता बढ़ती है और समाज में सम्पन्नता। बिना किसी अड़चन या नियम के, रात में या दिन में सारी सुविधाएँ बड़ी दक्षता से उपलब्ध होती हैं। कानूनी-गैर क़ानूनी कार्य बड़ी आसानी और शीघ्रता से निपटते हैं। अतः हमारी मांग है कि भ्रष्टाचार कला के विकास के लिए प्रशिक्षण केंद्र और आईआईटी की तर्ज पर आईआईसी (इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ करप्शन) जैसी संस्थाएँ खोली जाएँ जहाँ कलमाड़ियों, राजाओं, बंसलों और येदुरप्पाओं जैसे दिग्गजों को प्रशिक्षक नियुक्त किया जाए। अनुसंधान केंद्र हों जहाँ भ्रष्टाचार के आधुनिकतम तरीके ईजाद किए जाएँ। आचार संहिता को अविलम्ब निरस्त करके भ्रष्टाचार संहिता को लागू किया जाए।
अफ़सोस की बात है कि आज़ादी के साठ वर्षों के पश्चात भी भारत भ्रष्टाचारी देशों की सूची में मध्य में लटका हुआ है। संयुक्त राष्ट्र संघ में मांग करनी होगी कि भ्रष्ट देशों की सूची सबसे ईमानदार और निकम्मे राष्ट्र से आरम्भ न होकर भ्रष्ट और सक्रिय राष्ट्र से आरम्भ हो। इस होली पर अपने विश्वास को देखकर हमें उम्मीद है कि अगली होली तक हम अपनी मंज़िल तक पहुँच जाएंगे। हमारा लक्ष्य भ्रष्टों में प्रथम पायदान पाना है।
चीरहरण को राष्ट्रीय तमाशा घोषित किया जाए। देश के गांवों से लेकर शहरों तक हम ये प्रसंग रोज पढ़ते और सुनते हैं और शर्म से सिर झुकाते हैं। विधानसभा से लेकर संसद तक प्रजातंत्र की देवी का चीरहरण होता है। हालात यहाँ तक पहुँचते हैं कि अध्यक्ष महोदय को टेलीविज़न पर सीधे प्रसारण का ब्लैक आउट करवाना पड़ता है। दुर्योधन और दुःशासन आज भी वैसे ही राजसभा में उपस्थित हैं जैसे घृतराष्ट्र की सभा में होते थे। भीष्म और द्रोण जैसे महारथी और गुरु तब भी बेबस थे और आज भी बेबस हैं।
दुर्योधन और दुःशासन को तब भी कोई रोक न सका था और आज भी उन्हें रोकने का किसी में साहस नहीं है। कृष्ण तो जनता है जो प्रजातंत्र की देवी का चीर बढ़ाती जा रही है। हमें अब देखना है कि इन चुनावों में जनता, जनार्दन बनकर अपने मत पत्र रूपी चक्र से दुःशासनों का मर्दन करेगी या केवल प्रजातंत्र की देवी का चीर पांच वर्ष और बढ़ाकर दुःशासनों को पुनः मौका देगी चीरहरण करने का। यदि ऐसा होता है तो बेहतर होगा कि चीरहरण को राष्ट्रीय तमाशा घोषित करें ताकि हमें सिर शर्म से न झुकाना पड़े और हम वर्ष भर कहते रहें बुरा न मानो होली है।