राजकवि अकिंचनजी

- अजातशत्र
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जब राजा अशक्तसेन इतने बूढ़े हो गए कि बढ़े हुए नंबर के चश्मे के बावजूद सिंहासन नजर नहीं आता था, तो उन्होंने सोचा कि पिता का कर्तव्य कर डाला जाए। इस प्रशंसनीय भावना के तहत उन्होंने अपने ज्येष्ठ युवराज को बुलाया और उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा- पुत्र क्लांतसेन, अब ताकत के इंजेक्शन भी काम नहीं करते। गुप्तचरों ने खबर दी है कि अंतःपुर की अनेक रमणियाँ प्रहरियों के साथ पलायन करने को तैयार हैं, जिन्हें हमी ने उनकी चौकसी के लिए रखा था। हम बुढ़ापे में यह बर्दाश्त नहीं कर सकते। पर क्या करें। दुःख और क्रोधएक साथ हैं। खैर, असमर्थता ही उदारता की जन्मदाता है। इसलिए राजपाट अब तुम संभालो और हम धार्मिक-वार्मिक साहित्य का वाचन करते हुए इस मायावी जीवन के शेष दिन काटेंगे।

ज्येष्ठ युवराज स्वयं पचास के हो गए थे और राज्याभिषेक की प्रतीक्षा करते-करते साठ के लगने लगे थे। किंचित प्रसन्नाता और पर्याप्त खेद के साथ उन्होंने सर झुकाकर कहा- जैसी आपकी इच्छा हो, पिताश्री।

इसके पश्चात स्वयं राजकुमार ने राज्य ज्योतिषी को पर्याप्त घूस दी और राज्याभिषेक के लिए जो निकटस्थ दिन और मुहूर्त तय हो सकता था, उसे पंचांग से एडजस्ट करवाके निश्चित किया।

राज्याभिषेक के रोज शासन ने अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम रखे।

हम न भूलें कि सच्चा राजा लक्ष्मी के साथ-साथ सरस्वती का सम्मान भी करता है। तीन-चौथाई न सही, एक-चौथाई तो करता ही है। सो, क्लांतसेन मंत्रियों से बोले- मंत्रियों, माँ सरस्वती का भी थोड़ा बहुत सम्मान कर डालो,

मंत्री बोले- उचित है, महाराज। मगर साहित्यादि के लिए राजकोष पर भारी बोझ डालना नीति विरुद्ध है।

क्लांतसेन बोले- फिर भी पिताजी के आमोद-प्रमोद के बाद जितना राज्यकोष बचा है, उससे कम से कम इस वर्ष तो हम राज्य के कवियों को पुरस्कार दे सकते हैं।

'क्यों नहीं, महाराज।' मंत्री बोले, 'मगर इसमें भी एक अड़चन है।'

'वह क्या?' छोटे राजा के मुँह से निकला।

एक बूढ़ा मंत्री बोला- बात यह है कि राजन, कि आजकल मुक्त छंद आ जाने से राज्य की आधी आबादी कविताई करती है। हमारा कोतवाल स्वयं एक आत्मघोषित कवि है और ड्यूटी पर कविता लिखता है। राज्य के प्रत्येक कवि को भ्रम है कि वह किसी विश्वकवि से कम नहींहै। राजन, हमने यदि अभिनंदन पत्र और पुरस्कार वितरित किया तो इतनी भारी संख्या में दावेदार आ जाएँगे कि शासन छपाई का खर्च चुकाने में ही कराह उठेगा।

'नहीं, नहीं, ऐसा क्यों, विद्वान क्लांतसेन बोले, 'हम स्ट्रिक्ट छँटनी कराएँगे। पता करो, राज्य में जल्लाद समीक्षक कितने हैं? उनमें जो नादिरशाह, चंगेज खान और हलाकू के सम्मिलित अवतार हैं, उन्हें आदर से निमंत्रित करके 'चयन और पुरस्कार समिति' का गठन करो।

चयन समिति का गठन हो गया।

एंट्री में चार टन कविताएँ आईं। इन्हीं में से प्रथम सर्वोत्तम, द्वितीय सर्वोत्तम और तृतीय सर्वोत्तम कवि का चुनाव करना था। निर्णायकगण वास्तविक समीक्षक थे। इसका प्रमाण यह था कि पहले वे भी कविताई करते थे, मगर बार-बार पत्र-पत्रिकाओं से रचनाएँ लौटने लगी तो प्रण करके समीक्षक हो गए। उन्होंने आपस में विचार किया- 'साथियों, अपने से भिन्ना को सर्वश्रेष्ठ समझना महापाप है। सो इन गाड़ी भर पांडुलिपियों का अध्ययन छोड़ो। अपना-अपना तय करो। देखो, मीत, धरा पर ऐसा कोई निर्णायक नहीं है जो मगर समीक्षक है, तो उसका कोई आत्मीय न हो। और बड़े करुण स्वर में उन्होंने बताया- वो देखिए, क्लिष्टजी हैं, उनके भाई की कविताएँ आई हैं। वो रहे, हताशजी, और उनके भतीजे का पुलिंदा आया है। और मेरे सामने है, अवशेषजी, उनके भांजे का काव्य सबसे पहले आया। और हाँ वो कौन? हाँ, हाँ, वीरानजी। उनके प्रिय पुत्र की एक पेजी पांडुलिपि हस्तगत है। इन्हें छोड़कर अब हम किसे कवि मानें?

राज्य में प्रथम सर्वोत्तम, द्वितीय सर्वोत्तम और तृतीय सर्वोत्तम का पुरस्कार बँट गया।

राजा अशक्तसेन ने कह तो दिया था कि वे उत्तम धार्मिक ग्रंथों के वाचन में शेष समय व्यतीत करेंगे, मगर ऊबाऊ पुस्तकों से जल्द ही उनका मोह भंग हो गया। वे यह सोचकर कि इन पुस्तकों की छपाई ठीक नहीं है और वृृद्ध श्रद्धालुओं के लिए उनके अक्षर बहुत छोटे हैं, एकांतमें सुंदरियों के चित्रों का विदेशी अलबम देखा करते थे। उन्हें पता ही नहीं चला कि राज्य में साहित्य का अभूतपूर्व विकास हो गया है और प्रतिभावान कवि पुरस्कृत हो गए। एक रोज रानी नंबर 29 ने उन्हें सारा समाचार सुनाया।

सुनकर वे बोले- बता सकती हो प्रथम पुरस्कार किसको मिला?

रानी बोली- नाथ, मुझे बनाव श्रृंगार के श्रम से ही फुरसत नहीं है। इसलिए ऐसी व्यर्थ बातों की मुझे जानकारी नहीं है।

राजा बोले- अच्छा क्लांतसेन को भेजो।

'जी।' रानी ने कहा और मैं का करूँ राम...' की मनमोहक कड़ी गुनगुनाती चली गई।

' किस-किस को पुरस्कार दे डाला बेटे।' राजा अशक्तसेन ने क्लांतसेन से कहा।

'दे डाला' नहीं। विधिवत दिया है।' क्लांतसेन ने मलमलाकर कहा।

' हाँ, हाँ, वही और आगे बोले- अच्छा तो इस बार भी राजकवि अकिंचनजी की जय-जयकार रही?'

'क्यों?'

' पिताश्री, सवाल आप मुझसे कर रहे हैं, जबकि जवाब राजकवि को देना है। आप उन्हें ही तलब करें।

राजकवि बुलाए गए।

बड़े राजा ने जब तक छोटे महाराज को भी रोक रखा। बोले- राजकवि छोटी-मोटी चीज नहीं होता। तुम्हें उनके विचार सुनने चाहिए।'

चौड़ा ललाट। बिखरे बाल। स्वप्निल आँखें। और जितने मैले हो सकते थे, उतने मैले परिधान। लगातार चिंतन में लीन। पुकारने पर विपरीत दिशा में देखते थे और फिर पुकारने वाले की तरफ। राजा ने उन्हें पास बैठाया और पूछा- सुना है, तुमने राज्य के साहित्य उत्सव में कोई प्रविष्टि नहीं भेजी!

'जी महाराज।'

'पर तुम तो राजकवि हो न'

'राजकवि? यह तो आप कहते हैं, महाराज। और प्रजा मानती है। पर मैं स्वयं नहीं जानता कि मैं कवि हूँ भी या नहीं? महाराज, जैसे चिड़िया नहीं जानती कि वह उड़ती है, क्योंकि वहीं उड़ती है वैसे ही मैं नहीं जानता मैं कवि हूँ। अलावा इसके, मेरी एक परेशानी है, महाराज, जिससे मैं कभी नहीं उबर पाया। होता यह कि मैं रोज रात में कविता लिखता और कविता लिखते समय मुझे लगा कि मैंने विश्व की श्रेष्ठतम कविता लिख डाली। मगर राजन, सुबह उठकर देखता तो लगता कि कागज पर बस शब्दों की मुर्दा रेत रह गई है। मुझे अपना ही लिखा नीरस और झूठा लगता। मैं हैरान होता कि रात में मैंने जो उत्तम कविता की, वह कहाँ गई? फिर बूढ़े होते-होते मुझे पता चला कि कविता सिर्फ कवि के साथ रहती है, वह कागज पर कभी नहीं आती। वह आगे भी नहीं आएगी। महाराज, काव्य शब्द नहीं होता और शब्द काव्य नहीं होता। सृजन का आनंद ही वास्तविक कविता है और वही कवि का प्रथम, अंतिम, और निजी पुरस्कार है। दूसरे शब्दों में, जब कविता बाहर होती ही नहीं, तब बाहरी पुरस्कार भी उतना ही व्यर्थ है। राजन, मैं आत्म पुरस्कृत हूँ। इसलिए एंट्री मैंने भेजी नहीं। इस गुस्ताखी के लिए क्षमा करें। इतनाकहकर बूढ़ा सिर्री और आत्मलीन राजकवि चुप हो गया। राजा बोले- सुना, क्लांतसेन, तुमने?

छोटे महाराज बोले- 'सुना। पर मेरे पल्ले कुछ नहीं बैठा। अच्छा हुआ, जो उन्होंने प्रतिष्टि नहीं भेजी। चलता हूँ।'

छोटे महाराज अपने अंतःपुर में चले गए और बड़े महाराज अपने अंतःपुर में, जो सिर्फ कागज पर रह गया था।