हिन्दी-अमेरिकी भाई-भाई

- राजेंद्र शर्म

आप तो यह समझिए कि यह हिन्दुस्तान और अमेरिका के असली फ्रेंडशिप डे का सेलिब्रेशन है। आखिर अब तो सारी दुनिया ने जान लिया है कि हम दोनों देशों में कितनी गहरी समानता है।

पहले-पहले तो सिर्फ कुछ शोर-सा सुनाई दिया। फिर लगा शायद कोई जुलूस है। धीरे-धीरे नारों के भी कुछ टुकड़े सुनाई देने लगे। हिन्दी और भाई-भाई के बीच में कोई एक शब्द और था जो साफ तो नहीं था, फिर भी नारा काफी सुना हुआ लगा रहा था। मगर वह छूटा हुआ शब्द भी साफ हुआ तो मैं चौंका। यह क्या नारा हुआ- हिन्दी-अमेरिकी भाई-भाई। पहले सोचा शायद कोई गलती हो गई हो- टंग यानी जीभ की फिसलन। पर जल्द ही समझ में आ गया कि गलती नारा लगाने वालों की नहीं, मेरी थी।

यह इक्कीसवीं सदी है। इसमें किसी रूसी, किसी चीनी को भाई-वाई बनाने के चक्कर में कौन पड़ता है? 'एकहि साधै सब सधै' की तर्ज पर सब अमेरिका को साधना चाहते हैं, जिससे बाकी सब खुद सध जाएँगे। जो सीधे से नहीं सधेंगे, पिटकर रास्ते पर आएँगे, किसी अफगानिस्तान, किसी इराक की तरह। फिर भी नहीं सधेतो पिटते रहेंगे, आतंक के विरुद्ध अनंत युद्ध में। फिर भी आदत से लाचार मैं जुलूस की तरफ निकल पड़ा, यह जानने के लिए आखिर माजरा क्या है?

मैंने जुलूस के साथ-साथ, पर लाइन से जरा अलग चल रहे एक सेलफोनधारी को जा पकड़ा। छूटते ही कहा- यह नारा तो चलिए जमाने के हिसाब से ठीक है। कम से कम इससे प्रधानमंत्री को यह शिकायत नहीं होगी कि जमाना बदल गया, फिर भी बहुत से लोग पुराने नारों से हीचिपके रहना चाहते हैं। मगर यह नारा और यह जुलूस इसी समय क्यों? आखिर कोई मौका भी तो होना चाहिए। कोई पत्रकार समझकर उसने भी बड़े तपाक से मेरे सवालों के जवाब दिए।

बोला- दोस्ती और मोहब्बत के इजहार में मौका नहीं देखा जाता। उलटे उसमें तो ज्यादा मौका देखने वाले के लिए इसका खतरा रहता है कि कोई दूसरा मौका देखकर पहले ही हाथ न मार ले जाए। यानी काल करे सो आज कर। फिर भी, इस बार तो मौका भी है, बल्कि बहुत ही शानदार मौका। आप तो यह समझिए कि यह हिन्दुस्तान और अमेरिका के असली फ्रेंडशिप डे का सेलिब्रेशन है। आखिर अब तो सारी दुनिया ने जान लिया है कि हम दोनों देशों में कितनी गहरी समानता है।

मैंने सिर खुजाते हुए अनुमान लगाया- सद्दाम की फाँसी की सजा की ओर इशारा कर रहे हैं? उसने मेरी नादानी पर बाकायदा सिर ठोक लिया। फिर मामले को जरा हल्का करने की गरज से बोला- सद्दाम को हटाएँ तो, फाँसी दें तो और दोबारा गद्दी पर बैठाएँ तो, हमारी बला से। हम ख्वामखाँ दूसरों के मामलों में टाँग अड़ाने नहीं जाते। सुना नहीं पाकिस्तानी नेता क्या कह रहे हैं- हम उनका साथ नहीं देते तो बुश ने हमारा भी इराक बना दिया होता।

माना कि हमें नहीं लगता कि हिन्दुस्तान के साथ कोई ऐसा कर सकता है, फिर भी जो ताकतवर हो उसे नाराज करने की बेवकूफी हम भी नहीं करने वाले। पर यह तो पाकिस्तान के साथ हमारी समानता का मामला हुआ, अमेरिका के साथ समानता का नहीं। हमारा इशारा रम्सफील्ड साहब की कुर्सी जाने की ओर है। इधर बुश साहब की चुनाव में पिटाई हुई और उधर रम्सफील्डसाहब की रक्षा मंत्रालय से बिदाई हुई। और यह तो शुरुआत है। आगे-आगे देखिए, हटता है कौन-कौन? चुनाव में पिटाई और मंझली कुर्सी वालों की बिदाई, क्या ऐसा नहीं लगता है कि जनतंत्र का यह खेल अमेरिकियों ने हमसे ही सीखा है।

मैंने कुछ खींझकर पूछा- सिर्फ इतने से भाई-भाई के नारे लगाने आप सड़क पर आ गए! दूसरी तरफ से जवाब आया- और भी बहुत है। पूछा- जैसे? जवाब आया- जैसे सद्दाम की फाँसी की सजा, ठीक चुनाव अभियान के आखिर में। मान गए बुश साहब को भी, जो चुनाव को प्रभावित करने वाले कदम दूसरे देश में उठवाते हैं; मजाल है कोई चुनाव आयोग छोटी उँगली भी उठा सके? मैंने पूछा- और। उसने कुछ खींझते हुए कहा- और भी बहुत कुछ है। समझदार हो तो इशारे में ही समझ लोगे।

मैंने फिर भी पूछा- माने? उसने करीब लताड़ते हुए कहा- इतना भी नहीं समझते! चुनाव में पिटने के बाद भी जो बीच वाली कुर्सियाँ ही लुढ़काएँगे, तो क्या पब्लिक के फैसले को धता नहीं बताएँगे? यानी रस्सफील्ड को हटाएँगे, राबर्ट गेट्स को लाएँगे, और जहाँ तक चल सकेंगी बुश साहब पहले वाली नीतियाँ ही चलाएँगे। एकदम अपने हिन्दुस्तान की तरह- भाजपा गई, कांग्रेस आई, रीति-नीति वही चली आई। मैंने पूछा और पब्लिक? उसने कहा- पब्लिक का भाई-भाईपना तो तुम देख ही रहे हो। मजबूरी-सी में कुर्सी पर बैठाती जरूर है मगर मजाल है कि दो-चार दिन भी चैन से बैठने देती हो; न यहाँ और न वहाँ! फिर उसे जैसे अचानक कुछ याद आ गया, उसने जोर से 'हिन्दी-अमेरिकी भाई-भाई' का नारा लगाया और जुलूस में शामिल हो गया।

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