खिड़की

- विजयशंकर चतुर्वेदी
WD

बाबा की खिड़की से

हवा चली आती है दरख्तों के चुंबन ले

रात-बिरात पहचान में आती हैं ध्वनियाँ

मिल जाती है आहट आनेवाले तूफान की

अंधेरे- उजाले का साथी शुक्रतारा दिखाई देता है यहाँ से

भटकती आहें आती हैं खिड़की फलांगती।

कभी कभार आ गिरता है कोई लिफाफा खिड़की की राह

झलक जाती हैं नाजुक उंगलियाँ

बच्चों की गेंद तो अक्सर आ लगती है

झनझना उठते हैं खिड़की के कपाट

ब्रह्मांड का दौरा करके आई तितली बाँट जाती है गंध

बिल्ली भी आती है दबे पाँव

कबूतर के लिए खिड़की पर।

ND
इस खिड़की से बाबा ने
मार भगाए चोर

पानी मिलाने के बहाने जमकर गरियाया दूधवालों को

यहाँ से देखी गईं औरतें बाल सुखाती छतों पर

यहीं चूड़ियों के हुए बड़े मोलभाव

राहगीरों पर फेंका गुलाल इसी के रास्ते

खिड़की के किस्से चले, खिड़की के वास्ते

कई बारातें गुजरीं, अर्थियाँ गुजरीं कई

रंग रूठे, सपने टूटे, रुदन फूटे कई-कई।

खिड़की ने झेलीं धारासार बारिशें

सूरज के गोले को किया नमस्कार

दुनिया का मेला देखा

गीत गाए हजार बार।

देखनेवाले देखते हैं खिड़की पर जमीं धूल

जानने वाले जानते हैं-

इस खिड़की से चलता है जगत का व्यापार।