कांग्रेस पर से हटा नेहरू-गांधी परिवार का साया

चंद्रशेखर सरकार के 6 मार्च, 1991 को इस्तीफे के साथ ही लोकसभा भंग हो गई और महज डेढ वर्ष के भीतर ही देश को मध्यावधि चुनाव का सामना करना पडा। चंद्रशेखर मात्र 7 महीने तक प्रधानमंत्री के पद पर रहे। देश के इतिहास में यह दूसरा अवसर था जब मध्यावधि चुनाव हो रहे थे।

1991 के मई-जून में दसवीं लोकसभा के लिए आम चुनाव हुआ। एक तरफ मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ भाजपा और कांग्रेस द्वारा संयुक्त रूप से प्रोत्साहित जातीय उन्माद था तो दूसरी तरफ संघ और भाजपा की अगुवाई में राम मंदिर आंदोलन का धार्मिक उन्माद। समूचा देश जातीय और सांप्रदायिक नफरत की आग में झुलस रहा था। 
 
महज डेढ़ साल पहले केंद्र समेत कई राज्यों में कांग्रेस के खिलाफ सत्ता परिवर्तन का वाहक बना जनता दल विभाजित हो चुका था। चंद्रशेखर, देवीलाल और मुलायमसिंह यादव जैसे महारथी समाजवादी जनता दल के नाम से अपनी अलग पार्टी बना चुके थे। हालांकि थोड़े ही समय बाद मुलायम भी चंद्रशेखर से अलग हो गए और उन्होंने समाजवादी पार्टी बना ली। जॉर्ज फर्नांडीस, रवि राय, मधु दंडवते, बीजू पटनायक, सुरेंद्र मोहन, एसआर बोम्मई, शरद यादव, एचडी देवगौडा, अजीत सिंह, जयपाल रेड्डी, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान आदि दिग्गज वीपी सिंह के साथ जनता दल में ही बने हुए थे। वामपंथी और क्षेत्रीय दल भी वीपी सिंह के साथ थे। कांग्रेस पूरी तरह राजीव गांधी के नेतृत्व में एकजूट थी। भाजपा और संघ का अलग कुनबा था ही।
 
इस चुनाव के दौरान जो हुआ वह भारत के चुनावी इतिहास का एक दर्दनाक अध्याय है। कई तरह की संभावनाओं से भरे राजीव गांधी की तमिल उग्रवादियों ने 21 मई 1991 को तमिलनाडु के श्रीपेरुंबदूर में चुनाव प्रचार के दौरान ही मानव बम के जरिए हत्या कर दी। इंदिरा गांधी के बाद राजीव गांधी की हत्या। कांग्रेस तो एक तरह से अनाथ हो गई। सक्रिय राजनीति से संन्यास की राह पकड़ चुके पीवी नरसिंहराव को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। इस दौरान मतदान का एक चरण पूरा हो चुका था, जिसमें करीब दो सौ सीटों के लिए वोट डाले जा चुके थे। करीब साढ़े तीन सौ सीटों के लिए मतदान राजीव गांधी की हत्या के बाद हुआ था। 
 
एक बार फिर अस्पष्ट जनादेश आया और त्रिशंकु लोकसभा बनी। कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। उसे 232 सीटें हासिल हुई। बाद में पंजाब का चुनाव हुआ तो वहां की बारह सीटें जीतकर कांग्रेस ने लोकसभा में अपनी सदस्य संख्या 244 कर ली थी। जनता दल की सीटें घटकर 69 हो गई थीं और भाजपा की सीटें बढकर 120 हो चुकी थीं। चुनावी आंकडे गवाही देते हैं कि यदि राजीव गांधी की हत्या न हुई होती तो कांग्रेस को शायद 200 सीटें भी हासिल नहीं हो पातीं। राजीव की हत्या के बाद सहानुभूति का एक झोंका आया और कांग्रेस को करीब 40 सीटों का फायदा हुआ। कांग्रेस की सरकार बनी और पीवी नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने।
 
नरसिंहराव का प्रधानमंत्री बन जाना भी किसी चमत्कार से कम नहीं था। पार्टी नेतृत्व ने उन्हें उस चुनाव में अपना उम्मीदवार भी नहीं बनाया था और वे भी सक्रिय राजनीति को अलविदा कहने का मन बना चुके थे। वे दिल्ली में अपना सामान समेट कर अपने गृह राज्य आंध्र प्रदेश लौटने की तैयारी कर ही रहे थे कि अचानक राजीव गांधी की हत्या के बाद नरसिंहराव के भाग्य ने पलटा खाया। नियति ने उनके लिए एक नई और बेहद अहम भूमिका निर्धारित कर दी। उन्हें कांग्रेस संसदीय दल का नेता भी चुन लिया गया।
 
कहा जाता है कि अगर उस चुनाव में नारायणदत्त नैनीताल से नहीं हारे होते तो संभवत: उन्हें ही संसदीय दल का नेता चुना जाता। हालांकि नरसिंहराव का चुनाव सर्वसम्मति से नहीं हुआ था। शरद पवार और अर्जुन सिंह भी इस पद के दावेदार थे, लेकिन कांग्रेस की अंदरूनी गुटबाजी में गणित उनके पक्ष में नहीं जा रहा था। 
 
नरसिंहराव भी कम मंजे हुए राजनेता नहीं थे। पार्टी का अध्यक्ष पद तो पहले ही उनके पास आ चुका था। उसी पद के प्रभाव के चलते वे दक्षिण भारत ही नहीं बल्कि उत्तर भारत तथा पवार और अर्जुन सिंह के गृह राज्य महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के दिग्गज कांग्रेसी नेताओं को अपने पीछे खडा करने में सफल रहे।
 
संसदीय दल का नेता चुने जाने के बाद उन्होंने अन्य छोटी-छोटी पार्टियों का समर्थन जुटाकर कांग्रेस की ओर से सरकार बनाने का दावा पेश किया, जिसे राष्ट्रपति ने स्वीकार कर लिया। उनकी अगुवाई में अल्पमत की सरकार पूरे पांच वर्ष चली। पहली बार कांग्रेस और उसकी सरकार नेहरू-गांधी परिवार की छाया से मुक्त रही और पहली बार इस खानदान से इतर किसी कांग्रेसी नेता ने प्रधानमंत्री के तौर पर पांच वर्ष का अपना कार्यकाल पूरा किया।
 
जो कांग्रेसी दिग्गज लोकसभा में पहुंचे : 1991 के चुनाव में कांग्रेस की ओर से जो प्रमुख नेता लोकसभा में पहुंचे उनमें मध्य प्रदेश के सतना से अर्जुन सिंह, रायपुर (अब छत्तीसगढ में) से विद्याचरण शुक्ल, छिंदवाडा से कमल नाथ, ग्वालियर से माधवराव सिंधिया, राजगढ़ से दिग्विजय सिंह, असम के कालियाबोर से तरुण गोगोई, उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद से सलमान खुर्शीद, आंध्र प्रदेश के कुरनूल से विजय भास्कर रेड्डी, केरल के ओट्टापलम से केआर नारायणन, बंगलुरू उत्तर से सीके जाफर शरीफ, महाराष्ट्र के कोलाबा से एआर अंतुले, मुंबई उत्तर से मुरली देवड़ा, मुंबई उत्तर-पश्चिम से सुनील दत्त, अमरावती से प्रतिभा पाटिल, लातूर से शिवराज पाटिल, मेघालय की तुरा सीट से पीए संगमा, तमिलनाडु की शिवगंगा से पी. चिदंबरम, राजस्थान के जोधपुर से अशोक गहलोत, उदयपुर से गिरिजा व्यास, नागौर से नाथूराम मिर्धा, भीलवाड़ा से शिवचरण माथुर, दौसा से राजेश पायलट, सीकर से बलराम जाखड़, आंध्र प्रदेश में कडप्पा से वाईएस राजशेखर रेड्डी, कोलकाता से अजीत कुमार पांजा और ममता बनर्जी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। 
 
राजीव गांधी के संसदीय क्षेत्र अमेठी में मतदान उनकी हत्या से पहले ही हो चुका था। वहां राजीव गांधी मरणोपरांत विजयी रहे। बाद में वहां हुए उपचुनाव में कैप्टन सतीश शर्मा जीतकर लोकसभा में पहुंचे। प्रधानमंत्री बन चुके नरसिंहराव ने भी बाद में आंध्रप्रदेश की नांदयाल सीट से उपचुनाव लड़ा और जीतकर लोकसभा में पहुंचे। इस चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा में पहुंचे दो सदस्य बाद में देश के राष्ट्रपति बने। पहले केआर नारायणन और बाद में प्रतिभा पाटिल।
 
वे विपक्षी दिग्गज जो लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहे : लोकसभा पहुंचने वाले विपक्षी दिग्गजों में भाजपा से अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, विजयाराजे सिंधिया, जसवंत सिंह, शंकर सिंह वाघेला, जनता दल से जॉर्ज फर्नांडीस, रवि राय, एचडी देवगौड़ा, शरद यादव, अजीत सिंह, मोहन सिंह, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार, समाजवादी जनता पार्टी से चंद्रशेखर, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से सोमनाथ चटर्जी, बासुदेव आचार्य, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से इंद्रजीत गुप्त, गीता मुखर्जी, सैफुद्दीन चौधरी, फॉरवर्ड ब्लॉक से चित्त बसु, बसपा कांसीराम आदि प्रमुख थे। हालांकि शरद यादव उत्तर प्रदेश के बदायूं संसदीय क्षेत्र से हार गए थे, लेकिन जल्दी ही बिहार के मधेपुरा से उपचुनाव के जरिए लोकसभा में पहुंच गए थे।
 
चुनाव मैदान में खेत रहे दिग्गज : कांग्रेस से नारायण दत्त तिवारी, जगन्नाथ मिश्र, बलिराम भगत, आरिफ मोहम्मद खान, प्रियरंजन दासमुंशी, मेनका गांधी, तारिक अनवर जनार्दन पुजारी आदि वरिष्ठ नेता चुनाव हारने वालों में प्रमुख थे। विपक्ष नेताओं में चौधरी देवीलाल और रामकृष्ण हेगड़े जैसे दिग्गज भी लोकसभा तक पहुंचने में नाकाम रहे। समाजवादी जनता पार्टी के टिकट पर लड़ीं मेनका गांधी भी चुनाव हार गईं।
 

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