किसान आंदोलन: आखिर क्यों भड़के किसान, क्या है इस हिंसा के कारण...

बुधवार, 7 जून 2017 (13:05 IST)
भोपाल/मंदसौर। मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में जारी किसान आंदोलन के दौरान मप्र के मंदसौर जिले में पुलिस और किसानों के बीच मंगलवार को हुए हिंसक संघर्ष के बाद हुई गोलीबारी में छह किसानों की मौत हो गई। किसानों की मौत के बाद भड़के आंदोलनकारियों ने उग्र रूप धारण कर लिया और हिंसा का रास्ता अख्तियार कर लिया। 
 
किसानों के मौत के बाद वहां समझाइश देने पहुंचे डीएम, एसपी, पूर्व विधायक समेत जो भी सामने दिखा किसानों ने उनकी पिटाई कर दी गई। 7 जून को किसान संगठनों ने प्रदेश बंद का आव्हान किया है और इसके बीच तोड़फोड़, आगजनी, रास्ता रोकने और पथराव की खबरे अब प्रदेश के कई शहरों और स्थानों से आ रही हैं, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि आखिर किसान आंदोलन इस कदर अराजक स्थिति में कैसे पहुंच गया... 
 
आंदोलन को हल्के में लेना: सबसे बड़ी चूक रही है कि जब आंदोलन शुरुआती दौर में था और उन्होंने 10 दिन के आंदोलन की घोषणा की थी तब इसे बेहद हल्के में लिया गया। शासन-प्रशासन का कोई भी अधिकारी बातचीत के लिए सामने नहीं लाया।  
 
अकेले पड़े शिवराज : इस मामले में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान अकेले पड़ गए। कोई भी नेता उनके समर्थन में आगे नहीं आया। केंद्र से भी उन्हें समर्थन नहीं मिला। वे खुद भी इस मामले को समझने में चूक गए। जब तक वे इसकी गंभीरता का अंदाजा लगाते आंदोलन अराजक हो गया। चमचमाते शहरों पर इठलाते शिवराज, गांव और किसानों का दर्द भूल बैठे। 
 
अधिकारियों के भरोसे छोड़ा : शिवराज सरकार ने इस आंदोलन को दबाने का काम अधिकारियों के भरोसे छोड़ दिया। अधिकारी भी यह मानने लगे थे कि यह आंदोलन सफल नहीं होगा और जल्द ही समाप्त हो जाएगा। प्रदेश का खुफिया तंत्र भी मामले की गंभीरता को समझ नहीं पाया। मंदसौर कलेक्टर ने भी स्वीकार किया कि उनका खुफियातंत्र नाकाम हो गया। देखा जाए तो किसानपुत्र शिवराज भी इस पूरे मामले को समय रहते समझ नहीं पाए, किसानों को उम्मीद थी कि किसान होने के नाते शिवराज उनकी समस्याएं समझेंगे परंतु असंवेदनशील अफसरों ने इस मामले में कोई निराकरण नहीं किया। 
 
कांग्रेस की सक्रियता: जिस तरह से कांग्रेस, खासतौर पर इंदौर के राऊ विधायक जीतु पटवारी ने किसानों को लामबंद किया और आंदोलन को हवा दी उससे प्रदेश में सुस्त पड़ी कांग्रेस में नई जान आ गई और उन्होंने इस मुद्दे पर जमकर राजनीति शुरू कर दी। इंदौर जैसे बड़े शहर में किसान आंदोलन को हवा देने में जीतू और उनके गांव बिजलपुर के हजारों किसानों ने बड़ी भूमिका अदा की, मालवा-निमाड़ के पटवारी समाज के रसूखदार नेताओं को भी एक बैनर में लाने से इस आंदोलन को गति मिली। 
 
गैरजिम्मेदार बयानबाजी : किसानों की मौत के बाद भी सरकार और सत्तारुढ़ पार्टी ने मामले अनावश्यक और गैर जिम्मेदारी से बयानबाजी की। वे लोगों को यह बताने का प्रयास करते दिखाई दिए कि गोली पुलिस ने नहीं अराजक तत्वों ने चलाई है। उन्होंने मामले के राजनीतिकरण का भी प्रयास किया। इससे लोगों का गुस्सा और बढ़ गया। यहां तक की मप्र के गृहमंत्री ही इस मामले पर भ्रमित दिखाई दिए और इतने संवेदनशील मामले पर लीपापोती करते नजर आए। 
 
भारतीय किसान संघ पर भरोसा, कक्काजी से अनबन : इस मामले में शिवराज सरकार को सबसे ज्यादा महंगा भारतीय किसान संघ पर भरोसा पड़ा गया। इस संगठन ने आंदोलन शुरू नहीं किया था लेकिन इसे हाईजैक करने का प्रयास किया। मुख्यमंत्री ने इस संगठन के साथ मिलकर भारतीय किसान मजदूर संघ के नेता शिवकुमार शर्मा को नैप्थय में डालने का प्रयास किया। भाजपा समर्थक किसान संघ जो इस आंदोलन के कभी जुड़ा ही नहीं था से बातचीत कर मुख्यमंत्री ने आंदोलन समाप्त करवाने की घोषणा कर दी। इस उपेक्षा से भी आंदोलनकारी किसान सरकार से नाराज हो गए और आंदोलन उग्र हो गया। 

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