अहिंसा के पालनकर्ता कौन? सामान्य-सा जवाब होगा महावीर को मानने वाले जैन मतावलंबी, गांधी के अनुयायी। लेकिन क्या वास्तव में मात्र जैन कुल में जन्म लेने वाला अहिंसा का प्रतिनिधि बन सकता है? जब तक हम कर्म व विचारों से अहिंसा की विचारधारा को नहीं अपनाएंगे, तब तक जैन कुल में जन्म लेकर भी अहिंसा के अनुयायी नहीं बन सकते हैं।
'अहिंसा' का अर्थ आहार-व्यवहार में अपने द्वारा किसी जीवित प्राणी को क्षति न हो, उसकी की हत्या न हो। सूक्ष्म तौर पर विचार किया जाए तो मनसा, वाचा, कर्मणा यानी मानसिक रूप से वचन या क्रम द्वारा किसी भी तरह की हिंसा नहीं होनी चाहिए। हिंसा का उद्गम विचारों की भिन्नता, क्रोध, लोभ एवं मोह से होता है।
फ्लैश बैक में जाकर ईस्वीं के भी 599 वर्ष पूर्व का समय याद करें तो हम एक ऐसे युग को देखेंगे, जहां नरबलि, पशुबलि, छुआछूत, जात-पांत का भेदभाव अपने चरम पर रहा होगा। ब्राह्मण व वेदाचार्य अपने उच्च सर्वज्ञाता भाव में रहते होंगे। सब कुछ ईश्वराधीन रहा होगा। ऐसे में क्षत्रिय कुल में माता त्रिशला की कुक्षी से जन्मे वर्धमान ने अपने अनुभवों व अपने आस-पास घटित हो रहीं घटनाओं से व्यथित हो सत्य की डगर की चुनी।
बाह्य जगत से अंतरजगत की इस राह पर जो ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया होगा, वह पुन: समाज को समर्पित किया। दैनिक जीवन में उपयोग सिखाया (महात्मा गांधी ने यही कार्य करने के लिए समाज में रहना उचित समझा। उनके विचार में कंदराओं में या पहाड़ों में जाकर संसार से विरक्त होना सही नहीं था)।
महावीर जैन अनुयायियों के अंतिम तीर्थंकर बने। श्री महावीर अर्हत धर्म, श्रमण (श्रम को महत्ता) परंपरा को अंगीकार करने वाले कर्मप्रधान धर्म का प्रचार कर रहे थे। ऐसी किंवदंतियां हैं कि महावीर पर कई उत्सर्ग हुए जिसमें सांप द्वारा डसा जाना, श्रमिक द्वारा कानों में कीलें ठोकना, 5 महीने 25 दिन तक आहार न मिलना वहाथी द्वारा प्रताड़ना दी जाना प्रमुख हैं।
इतने उपारग होने के पश्चात भी समता धर्म का पालन करना, प्रताड़ित करने वाले व्यक्ति या जीव को समभाव से देखना, उन्हें क्षमा करना यह समाज के लिए उदाहरण है, जो सिखाता है कि मन को संयम में रखकर ही क्रोध पर विजय प्राप्त की जा सकती है और जब जनमानस के लिए मिसाल कायम करनी हो तब घटनाक्रम का फलक भी विस्तृत होना चाहिए।
शायद यही वजह है कि राम, कृष्ण हो या महात्मा गांधी और महावीर- इन सभी के जीवन की घटनाएं अतिशयोक्तिपूर्ण लगती हैं। हो सकता है आने वाली पीढ़ी को महात्मा गांधी के कार्य चमत्कार से लगें।
बहरहाल, आज चीन में कोरोना वायरस से पीड़ितों की संख्या हजारों में पहुंच चुकी है। वैज्ञानिक इस महामारी का कारण मांसाहार के सेवन को बता रहे हैं। पाश्चात्य दुनिया की भावी आहार योजनाएं 'शाकाहार' व 'वीगन' आहार प्रणाली को आधार बनाकर तय की जा रही है।
शाकाहार 'अहिंसा' का प्रतिनिधित्व करता है: अ- अर्थात= मना, हिंसा अर्थात= किसी को मारना, चोट पहुंचाना। यह हिंसा मानसिक, शारीरिक, शाब्दिक या मौन द्वारा भी की जा सकती है। महावीर की बाकी बातें भूलकर मात्र अहिंसा पर ही बात करते हैं, जो जुड़ी है उनके मुख्य संदेश 'जियो और जीने दो' से।
किसी निरीह को अपने शौक के लिए शिकार बनाना सही है क्या? भोजन के रूप में किसी जीवित प्राणी को मारकर उसके किसी अंग को ग्रहण करना 'मांसाहार' कहलाता है। चाइना की आहार प्रणाली तो अतिवादिता की भी हद पार कर चुकी है। वहां परोसे गए भोजन में जंतु या प्राणी की अंतिम सांसें चल रही हों तो बेहतर माना जाता है। यह सब उचित अनुचित है या नहीं? यह अलग चर्चा का विषय है।
'जियो और जीने दो' आज का #स्पेस ही तो है, जो हर मनुष्य को चाहिए। भले ही वह किसी दूसरे प्राणी को दें या न दें! प्रकृति के आगे आज हम फिर बेबस हो गए। उसके छोटे से एकेंद्रिय विषाणु (वायरस) में इतनी ताकत है कि पूरी दुनिया हिलाकर रख दी है जिसके संक्रमण की वजह मांसाहार को दी जा रही है। इसके विपरीत शाकाहार में हरी साग-भाजी का सेवन किया जाता है।
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में 2 धाराएं मिलेंगी ही। किसी एक को चुन लिए जाने पर हम दूसरे के गुण जाने बिना अपनी चुनी हुई धारा को ही उचित ठहराने की कोशिश करते हैं जबकि यह कतई जरूरी नहीं कि जो हमेशा सही ही हो।
खानपान को लेकर हिन्दू धर्म की परंपरा में रसोई में प्रवेश करने के कठोर नियम रहे हैं। जैन धर्म में इसके माइक्रो लेवल तक पहुंचकर भोजन ग्रहण किया जाता है। सूर्यास्त के बाद कई जीव आंखों से दिखाई नहीं देते अत: सूर्यास्त पश्चात भोजन निषेध है, जो कि स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित भी है।
आयुर्वेद में आहार की 3 प्रवृत्तियां मानी गई हैं- राजसी, तामसिक, सात्विक। 'जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन' कहीं न कहीं सभी धर्मों ने आहार (जो कि मूलभूत आवश्यकता है) के साथ जीवनचर्या और प्रकृति का तालमेल बिठाया है। प्रकृति ने मानव को प्रज्ञा दी है तो उसका उपयोग हर क्षेत्र में करना चाहिए।
हर क्रिया की प्रतिक्रिया होगी ही। अक्सर देखा गया कि मांसाहारी प्रवृत्ति वाले आक्रामक होते हैं। महावीर व गांधी ने मात्र सात्विक भोजन से नहीं बल्कि अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य सभी के सही अनुपात में जीव की इसी आक्रामक प्रवृत्ति पर नियंत्रण रखने को बल दिया है। इन सबके संतुलित समायोजन से हम बोली, विचार, व्यवहार और आचरण द्वारा उत्तम चरित्र धारण कर पाते हैं, जो हमारे कार्य में परिणित होता है।
जब समान आचार-विचार व खान-पान वाले समूह मिलकर कार्य करते हैं, तब विरोध कम होता है। बावजूद इसके, अपनी इन्द्रियों पर विजय पाना इतना आसान नहीं होता। विरोध व मतभिन्नता खत्म होना तो कभी संभव नहीं। इसलिए समता या समभाव का विचार उभरा। गांधी और महावीर दोनों ने ही समता भाव को अपने आचरण में उतारा एवं वे इसके जीते-जागते उदाहरण बने।
महावीर का यही कहना था कि अपने उच्च कर्म द्वारा भगवान बनने की क्षमता सभी रखते हैं और यह राह अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व असंग्रह से होकर गुजरती है। आज के समय में पहले से ज्यादा ज्ञान प्राप्ति के साधन व भौतिक सुख-सुविधाएं मौजूद हैं। बावजूद इसके, आज हमें नैतिकता एवं आचरण के स्तर पर बहुत जरूरत है ऐसे ही किसी महावीर की।
हां, आज भी यह संभव है कि सबके महावीर अलग हो सकते हैं लेकिन तब भी दावे के साथ यह कहा जा सकता है कि सभी के महावीर एक ही संदेश देंगे, क्योंकि 'जो जागे वो महावीर।' जागना है अपनी मूढ़ता से, चेतन होना अपनी मूर्छना से। स्वयं जागकर दूसरों को भी राह मिले, ऐसी ज्योति जलानी है तभी मनुष्य को प्राप्त हुए ज्ञान की उपयोगिता है, सार्थकता है। तब महावीर हो या गांधी हर युग में प्रासंगिक रहेंगे, क्योंकि उन दोनों का आग्रह मानसिक प्रवृत्ति पर नियंत्रण करने का रहा है अर्थात व्यक्ति स्वयं को सुधारने का प्रयास करे, तो शेष जगत स्वत: ही सुधरने लगेगा।
आत्मकल्याण की बात कहते हुए दोनों ही मनुष्य को जगत कल्याण के लिए प्रेरित करते हैं। नमन ऐसे वीरों को, जो भौतिकता से परे नैतिकता की और प्रवृत्त करते हैं। आज के लॉकडाउन में भी इसी की सर्वाधिक आवश्यकता है। स्वयं का ध्यान रखकर पूरे मानव समुदाय को बचा सकते हैं। जरूरत है तो अपने भीतर की ओर अहिंसा का छोटा-सा कदम रखने की।