जैन धर्म के अनुसार 'सव्वे पाणा, सव्वे जीवा, सव्वे भूता, सव्वे सत्ता... सुहसाया, दुक्ख पडिकूला' यानी सभी प्राणी, सभी जीव, सभी भूत, सभी सत्त्व, सुख साता (सुख-शांति) चाहते हैं, दुःख उनको प्रतिकूल (अप्रिय) लगता है। भौतिक वस्तुओं से सभी प्राणियों की सुखानुभूति भिन्न-भिन्न होती है। किसी को किसी में, अन्य को दूसरी वस्तु में सुख की अनुभूति होती है किंतु सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए प्राणी को 'एस मग्गो'- एकमात्र मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। वह एकमात्र मार्ग है रत्नत्रय।
जैन आगम के अनुसार 'सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्ष मार्गः' यानी सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र- ये तीनों सम्मिलित रूप से मोक्ष प्राप्ति के मार्ग हैं। तत्त्वार्थ सूत्र के ऊपर कथित सूत्र में यह प्रतिपादित किया गया है। बिना सम्यक् दर्शन के सम्यक् ज्ञान नहीं होता और बिना सम्यक् ज्ञान के सम्यक् चरित्र के गुण नहीं आते हैं, चरित्र गुणविहीन जीव को सर्वकर्मक्षय मोक्ष नहीं होता और मोक्ष हुए बगैर निर्वाण नहीं होता है।
सम्यक् दर्शन का तात्पर्य होता है, जो वस्तु जैसी है, जिस रूप में स्थित है, उसका वैसा ही दर्शन करना या उसमें वैसा ही विश्वास करना। सम्यक् दर्शन दो प्रकार का होता है। एक नैसर्गिक रूप में, जो आंतरिक भावों से उत्पन्न होता है और दूसरा अधिगमज जो दूसरों के द्वारा यानी उपदेश, शास्त्र या स्वाध्याय से प्राप्त होता है।
तीन मूढ़ताएं, आठ मद, छः अनायतन और आठ शंकादि दोष- ऐसे सम्यक् दर्शन के पच्चीस दोष कहे गए हैं। इनसे रहित, विशुद्ध सम्यक् दर्शन होता है। तीन मूढ़ताएं निम्नानुसार कही गई हैं :
देव एवं धर्म मूढ़ता : 'राग-द्वेष युक्त देवों की उपासना एवं अधर्मयुक्त ग्रंथों को मानना। गुरु एवं शास्त्र मूढ़ता : पतिताचारी व्यक्तियों को गुरु मानना एवं हिंसा तथा राग-द्वेष बताने वाले ग्रंथों का वाचन। लोक मूढ़ता : लोगों में प्रचलित कुप्रथाओं, कुरूढ़ियों को धर्म मानकर पालना।
आठ मद इस प्रकार हैं- जाति मद कुल मद बल मद रूप मद लाभ मद ऐश्वर्य मद ज्ञान मद तपस्या मद
छः अनायतन (आश्रय न लेने योग्य स्थान) इस प्रकार हैं : मिथ्या दर्शन मिथ्या ज्ञान मिथ्या चरित्र तथा इन तीनों के अनुयायी मिथ्या दर्शनी मिथ्या ज्ञानी मिथ्याचारिणी
आठ शंकादि दोष (निस्संकिय) : तीर्थंकरों के वचनों में, देवशास्त्र एवं गुरु के स्वरूप में किसी प्रकार की शंका नहीं करना। शंका के दो अर्थ बताए गए हैं- संदेह और भय। भय भी शंका से उत्पन्न माना गया है।
भय निम्नानुसार वर्गीकृत किए गए हैं- इहलोक भय : इस लोक में मानव समाज से भय। परलोक भय : विजातीय, पशु, पक्षी, देव आदि का भय। आदान भय : आजीविका भय, व्यापार में हानि का भय, धन-संपत्ति जाने का भय। अकस्मात भय : दुर्घटना आदि में अकस्मात दुःखदायी घटनाओं के घटित होने का भय। वेदना भय : शारीरिक, मानसिक व्याधि से उत्पन्न पीड़ा का भय। अपयश भय : समाज में निंदा होने का भय। मरण भय : मृत्यु होने का भय। इनके अतिरिक्त सम्यक् दर्शी के लिए निम्न करणीय कर्म कहे गए हैं।
निक्कंखिय (निष्कांक्षता) : अन्य धर्मों के आडंबरों पर लुब्ध न होकर अपने धर्म का पालन करना तथा लोक-परलोक के सुखों की इच्छा नहीं करना। निर्विचिकित्सा : अपने धर्माचरण में फलेच्छा नहीं करना, न ही संदेह करना। उववूहण : गुणियों के गुणों का बखान करना, उनका सम्मान करना तथा अपने गुणों का प्रचार नहीं करना। स्थिरीकरण : स्वधर्मियों का अपने धर्म में स्थिरीकरण करना तथा अपने स्वयं के भावों को अपने धर्म में स्थिर करना। वच्छलता-वात्सल्य : स्वधर्मियों के प्रति निःस्वार्थ स्नेह रखना तथा जीवमात्र के प्रति दया भाव दिखाना। पभावणा (प्रभावना) : धर्म एवं संघ की उन्नति हेतु प्रयास करना, चिंतन करना और रत्नत्रय की भावना से अपनी आत्मा को प्रभावित करना।
उत्तराध्ययन-सूत्र 28-30 में कहा गया है : 'नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विना न हुंति चरणगुणा' यानी सम्यक् दर्शन रहित जीव को सम्यक् ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना सम्यक् चरित्र नहीं होता है। आगमों में संशय, विभ्रम और विपर्ययरहित ज्ञान सम्यक् ज्ञान कहा जाता है।
सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात सम्यक् चारित्र की प्राप्ति की जा सकती है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा जीव है। जीव एक द्रव्य है, जो निरंतर प्रवहमान होता है।
सम्यक्व्वी जीव अपनी आत्मा को ही एकमात्र मान्यता देता है। वह सब कार्य कर्तव्य भावना से करता है और किसी में तनिक भी लिप्त नहीं होता है। वह अपने सब कुछ को तथा काया को भी किराए का घर मानने लगता है। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष मार्ग हैं।