जब बच्चे जाएँ घर से बाहर....

- डॉ. पार्वती व्या

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बच्चा जहाँ भी रहा हो और वहाँ से जब चला जाए तो लोगों को उसकी कमी महसूस हो, इस तरह का उसका आचरण हो। तब सामाजिकता और अपनी लगन द्वारा बच्चा जीवन में अवश्य ऊँचाइयों को छू सकेगा।

बात चाहे पढ़ाई की हो या करियर की, तेजी से बढ़ती संभावनाओं ने क्षेत्रों को विस्तार दे दिया है। इसके चलते कई युवा व किशोर अपने घर व शहरों से दूर अन्यत्र लक्ष्य तलाशने भी जाते हैं। अब ऐसे में कई बार सुविधा व सुरक्षा की दृष्टि से उन्हें किसी रिश्तेदार या परिचित के साथ रखने जैसे फैसलों पर भी माता-पिता को अमल करना पड़ता है। इस समय जरूरत होती है बच्चों को वे बातें बताने की जो उन्हें दूसरों के घर में रहकर अवश्य पालन करनी चाहिए। ताकि वे किसी दूसरे के घर में रहकर भी स्नेह व आत्मीयता का पात्र बनें; झंझट न बन जाएँ:

छोटे गाँव या छोटे नगरों में रहने वाले लोगों को अक्सर अपने बच्चों को आगे की पढ़ाई के लिए कहीं बाहर भेजने की व्यवस्था करना पड़ती है। जब अपने नगर में, स्कूल में वांछित विषय न हो, कॉलेज न हों तो विकल्प खोजने पड़ते हैं। किसी बड़े शहर में बच्चों को रखें तो कहाँ रखें। कहीं होस्टल सुविधा होती है, कहीं नहीं भी होती। तब किसी रिश्तेदार या परिचित का ख्याल आता है। माता-पिता सोचते हैं कि बच्चा पारिवारिक वातावरण में रहे और सुरक्षित रहे। अतः वे उसे किसी रिश्तेदार के यहाँ आगे की पढ़ाई के लिए भेज देते हैं। रिश्तेदार भी यह सोचता कि किसी की जिंदगी बन जाए तो अच्छा, अपने यहाँ रख लेते हैं।

लेकिन कई बार आगे जाकर स्थितियाँ मनमुटाव वाली भी हो जाती हैं। जैसे कोई बच्चा जिद्दी किस्म का होता है, अपनी मनमानी करता है। कोई बच्चा अपने-पराए का भेद अपने मन में अधिक रख लेता है। कुछ बच्चे गलतफहमियाँ धारण कर लेते हैं और स्थिति बिगड़ने लगती है।

श्रीमती 'क' के घर दसवीं में पढ़ने वाला उनकी सगी बहन का बालक रहता है। कभी मौसी ने दाल बना ली तो खाना नहीं खाएगा। चिढ़चिढ़ाएगा, कहेगा-बहुत कंजूस लोग हैं, सब्जियाँ नहीं लाते, नींबू भी नहीं लाते, खाना कैसे खाऊँ।

श्रीमती 'ब' के घर के देवर का बेटा जो ग्यारहवीं में पढ़ता है, रहता है। उसे कभी कोई काम बताएँ तो फटाक से इंकार कर देता है। गेहूँ पिसवाने को कहो तो पलटकर जवाब देता है कि मैं नहीं था तब आपका गेहूँ कैसे पिसता था। कभी डेयरी से दूध लाने का कहो तो कहेगा कि मुझे ही काम बताते रहते हो, अपनी बेटी को क्यों नहीं कहते। जबकि ये कार्य उसे बाहर जाते समय या फ्री देखकर ही सौंपे जाते थे। ऐसे ही एक अन्य बच्चे का कहना है कि 'मामी तो घंटों तक पूजा ही करती रहती है, जल्दी खाना ही नहीं बनाती।'

ये बातें किसी एक परिवार की नहीं हैं। मध्यमवर्गीय परिवारों में यह आम बात है। ऐसे बच्चे जब अपने माता-पिता के पास वापस जाते हैं तो इन बातों को बढ़ा-चढ़ाकर कहते हैं। माता-पिता भी बात मान लेते हैं और सोचते हैं कि हमारा बच्चा वहाँ बहुत परेशान रहता है।

जबकि माता-पिता को चाहिए कि बच्चे की हर बात को पत्थर की लकीर न समझ लें। बच्चों को अपने उद्देश्य के प्रति लगनशील रहने की प्रेरणा दें। ऐसा न हो कि अपना राहुल तो लेटकर ही टीवी देख रहा है और ताऊजी अपने कपड़ों को प्रेस कर रहे हों। यदि राहुल टीवी देखना छोड़कर यह कहे कि लाइए ताऊजी मैं प्रेस कर देता हूँ। मेरे कपड़े भी तो करता हूँ। ऐसा करने पर राहुल ताऊजी की नजर में ऊँचा स्थान पा सकता है या उनके दिल में जगह बना सकता है।

यदि मामी नल पर पानी भर रही है और भानजी यह कहे कि मामीजी भारी बर्तन मैं भी उठाने लगती हूँ तो भानजी अपनी मामी से ढेर सारा प्यार पाने की हकदार हो जाती है।

बच्चों के पास यदि फ्री समय है तो कुछ काम करने का तो उन्हें अवश्य करना चाहिए। आखिर अपने घर पर भी तो वे यह काम करते ही ना। उन्हें परिवार का मददगार बनने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए। इससे आपसी संबंधों में मजबूती आती है।

बच्चा यदि खाने-पीने की शिकायत करे तो उसे दूसरे परिवारों में समायोजन करना सिखाएँ, निभना बताएँ। बच्चों के मन से यह डर कि काम करेंगे तो पढ़ाई कब करेंगे? निकाल दें। क्योंकि जिस परिवार में बच्चा रह रहा है, उसे भी अहसास होता है कि बच्चे को पढ़ने के लिए रखा है। कई बच्चे जरा-सी परेशानी से घबराकर पढ़ाई छोड़कर अपने माता-पिता के दामन में सर छिपा लेते हैं। यह अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है।

जरूरी है कि बच्चों को संघर्ष करने की, दूसरों का दिल जीतने की शिक्षा दी जाए। अच्छे संस्कार दिए जाएँ। अपने उद्देश्य के प्रति सजग रहने और लक्ष्य को प्राप्त करने की महत्ता समझाई जाए और अन्य फालतू बातों का गौण समझने के लिए प्रेरित किया जाए। बच्चा जहाँ भी रहा हो और वहाँ से जब चला जाए तो लोगों को उसकी कमी महसूस हो, इस तरह का उसका आचरण हो। तब सामाजिकता और अपनी लगन द्वारा बच्चा जीवन में अवश्य ऊँचाइयों को छू सकेगा।