रोज थाली लेकर मंदिर जाती माँ पत्थर पर भावनाओं के पुष्प चढ़ाती माँ कौन कहता है पत्थर निर्जीव है निर्जीव को भी सजीव बनाती माँ
घर की मेढ़ी पर बैठी माँ तकती है राह बेटों की सांझ जैसे-जैसे ढ़लती जाती है माँ की अश्रु धारा बहती जाती है
उसका वो बार-बार दीए लगाना हर आहट पर घर से बाहर जाना उतरता नहीं गले से एक भी निवाला उठ खड़ी होकर कहती है मेरा बेटा है आने वाला
देखते ही उसे वो सीने से लगाती है भोजन की थाल वो हाथों से सजाती है हिलाती है धीरे-धीरे अपने आँचल को देती है हवा बेटे को जो और खुद पसीने में भीग जाती है।
क्या ऐसी होती है माँ जो त्याग और सर्मपण में ही जीवन बिताती है। क्या ऐसी होती है माँ