जब कबीर ने ये कहा था तो निश्चित ही प्रेम की अवधारणा और उसका धरातल बहुत अलग था। काल बदल गया है और आज प्रेम का बाज़ार सजा है... प्यार की मार्केटिंग हो रही है, मोहब्बत की दुकानें लगी हैं... गुमटियों पर टँगे लाल सुर्ख़ दिल ख़रीदे जाने के लिए बेताब है... गुलाबों के दाम आसमान पर चढ़े हैं... बाज़ार ने सब तय कर रक्खा है... उसको माल बेचने के लिए इवेंट चाहिए... भावनाओं का दोहन करने वाला ऐसा इवेंट, जो जेब पर लगे तर्क के पहरे को एक झटके में हटा दे और जेब उलटने पर मजबूर कर दे! इवेंट जो 'मास हिस्टीरिया' यानी 'सामूहिक उन्माद' पैदा करे। सब बह जाएँ उसमें। इतने विज्ञापन और ले आएँ, बाज़ार सजे रहें कि आपको लगे कि हाय! ये सब हमसे ना छूट जाए...!!
आपके ज़ेहन पर ये चस्पा कर दिया है कि आज प्रेम ना किया तो फिर प्रेम करना ही व्यर्थ है...!!! और एक दिन से जब बाज़ार की भूख ना मिटी तो पूरे हफ्ते का मजमा सज़ा दिया... दिन तय कर दिए... मिलन कि ऐसी सीढ़ियाँ जिन पर बाज़ार का लाल कालीन बिछा है। आपके सीने में धड़क रहा दिल और उसकी नाज़ुक भावनाएँ तो बेचारी बेवजह निशाने पर हैं... असल लक्ष्य तो आपकी जेब में रखा पैसा है जिसे बाज़ार हथिया लेना चाहता है...
लेकिन इस क्रूर साजिश को समझ लेने के बाद भी मैं इस सबको बुरा नहीं मानता... ख़ूब मनाने दीजिए वेलेंटाइन डे... इस बहाने से ही सही और बाज़ार के चक्रव्यूह में उलझकर ही क्यों न हो... लोग प्यार तो कर रहे हैं... आख़िर ये ज़ालिम दुनिया प्यार करने के मौक़े ही कहाँ देती है... प्यार करने पर तो खाप के पहरे लगा रखे हैं... प्यार करने की जगहें ही नहीं रक्खी आपने... फिर इस मेले को लेकर आशिक क्यों ना बेताब होंगे??
हमने प्यार के सौंधेपन में बदनीयती के इतने तड़के लगा रखे हैं कि मूल आस्वाद तलाशना ही मुश्किल हो गया है। हाँ, एक ज़माने में प्यार जताने के तरीके अलग होते थे और आज अलग हैं। पर तरीके बदले हैं, प्यार नहीं!! जड़ें और मूल आधार तो वही है। वही भीतर संचारित होता है। नूर की बूँद है और सदियों से बह रही है...। हाथ से छूकर इन्हें रिश्तों का इल्ज़ाम देने की भी ज़रूरत नहीं। इस आग के दरिया में डूबने-उतरने की ऊष्मा में जीवन शक्ति निहित है।
विकृतियों पर मत जाइए... जहाँ प्यार है वहाँ विकृति नहीं और जो विकृति है वो प्यार कहाँ? प्यार तो हमेशा सुंदर, स्वच्छ, निर्मल, निरागस, पवित्र, निश्छल और निष्कपट है... जो प्यार करता है उसके पास घृणा के लिए वक्त कहाँ? ...द्वेष से भरी इस दुनिया को बदलना चाहते हो तो प्यार को मत रोको...
और बाज़ार लाख कोशिश करे... वो प्यार को ख़रीद-बेच नहीं पाएगा... इस उथले उपक्रम से परे प्यार अपनी अतल गहराइयों को खोजता रहेगा... बेचने के भ्रम में तो बाज़ार खुद ही ठगा रह जाएगा..!!
और हाँ, ये हर साल बजरंग दल के नाम से भगवा डालकर निकलने वाले समाज-संस्कृति के ठेकेदारों पर सख़्ती से लगाम जरूरी है... इनका किसी धर्म-संस्कृति से कोई लेना-देना नहीं- इनका मज़हब तो बस गुंडागर्दी है...इनकी इस तरह की हरकतों ने तो हिन्दू और हिन्दुत्व की छवि खराब करने का ही काम किया है।
प्यार सच्चा-झूठा भी नहीं होता... प्यार तो बस प्यार होता... असीम धैर्य, शक्ति, साहस और तपस्या वाला... या तो आप प्यार कर रहे हो या प्रपंच... तय भी कोई और नहीं करेगा... प्यार करने वाले खुद ही करेंगे... प्रपंचों के लौकिक छलावों से परे मुहब्बत की वासंती छटा से दुनिया को सराबोर हो जाने दो।
और हाँ... कबीर तो आज भी सही हैं... क्योंकि प्रेम तो कालजयी है...