बीजेपी नेता आई.पी. सिंह ने अपने बिगड़े बोल से सियासत को गरमा दिया। उन्होंने आजम खान के एक सियासी बयान पर निशाना साधते हुए उनकी पत्नी और बेटी पर टिप्पणी कर दी। इस टिप्पणी में उन्होंने कहा कि आजम खान के घर की महिलाओं के साथ गैंग रेप हो जाए तब उनकी आंख खुलेगी।
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस तरह के बयान राजनीति का घटिया स्तर है। यह सिर्फ किसी नेता के परिवार की बात नहीं है, यह सामान्य तौर पर महिलाओं पर की गई टिप्पणी का मामला भी है। आई.पी. सिंह के इस बयान का समर्थन बीजेपी के बड़े नेताओं ने भी कर दिया, इससे यह तो साफ है कि इस बयान को भी सियासी मुद्दा बना दिया गया है।
इस पूरे मामले पर गौर किया जाए तो उत्तर प्रदेश में इस मुद्दे को सुलगाए रखने की कोशिश की जा रही है। इसकी शुरूआत भी आजम खान ने खुद ही कर दी थी। आजम खान ने बुलंद शहर में शर्मिंदा करने वाली घटना पर खुद भी एक दोयम दर्जे का बयान दिया था। आजम खान ने कहा था कि यह एक राजनैतिक साजिश हो सकती है। आजम खान खुद घटिया बयानों के एक दलदल में धंसे हुए हैं, ऐसे में उन पर आए एक अन्य घटिया बयान को राजनैतिक माना जा सकता है लेकिन इस मुद्दे का राजनीतिकरण एक बार फिर महिला सुरक्षा के मुद्दे की धज्जियां उड़ाता दिख रहा है।
समाजवादी पार्टी के राज में उत्तर प्रदेश की सुरक्षा व्यवस्था की क्या स्थिति रही, इस पर पूरी एक किताब लिखी जा सकती है। लेकिन महिलाओं की स्थिति और लूटपाट की सैकड़ों वारदातों ने उत्तर प्रदेश की सुस्त पुलिस और सरकार की इस परेशानी से लड़ने की मंशा पर हमेशा प्रश्न चिन्ह खड़े किए हैं। कौन हैं ये लोग, जो छिपकर अपने शिकार का इंतजार करते हैं? क्या पुलिस इतनी निकम्मी है कि इनके बारे में नहीं जान पाती है? क्या कानून इतना कमजोर है कि अपराधी एक आध बार पकड़े जाने से डरते भी नहीं हैं? क्या अपराध करने का लाइसेंस उन्हें इसी सिस्टम ने दे रखा है?
इन सवालों के जवाब इसीलिए नहीं मिल सकते, क्योंकि नेताओं के लिए यह असली सवाल है ही नहीं। असली सवाल सत्ताधारी दल को नाकाम दिखाने की कोशिश है या फिर विपक्षी दल पर साजिश का आरोप लगाना है। महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के प्रति कोई भी गंभीर नहीं दिखाई पड़ता। बयानों में संवेदनशीलता दिखाने की जो कोशिश होती है, उन्हें भी आजम खान और आई.पी. सिंह जैसे लोगों के बयान कचरे की टोकरी में डाल देते हैं। दहेज हत्या, एसिड अटैक, छेड़खानी, घरेलू हिंसा जैसे कई अपराध महिलाओं के खिलाफ होते हैं, लेकिन सबसे खतरनाक है - रेप का जघन्य अपराध। शराब के नशे में धुत्त पेशेवर अपराधी अपने शिकार की तलाश में घूमते हैं और पुलिस किसी कोने में पीसीआर वैन लगाकर वारदात होने का इंतजार करती रहती है।
पुलिस भी जानती है कि बड़े अधिकारी का ट्रांसफर हो जाएगा, दो चार नेता मुंह बजा लेंगे और फिर सब कुछ ढांक के तीन पात। हमारे जैसे लोग भी ऐसी घटनाओं के बाद कुछ लेख या खबरें लिख देंगे, समाज सुधारक फिर जागृत हो जाएंगे लेकिन उसके बाद क्या? निर्भया कांड के बाद जो जागृति और गुस्सा देखने को मिला था उसके सकारात्मक परिणाम आने की उम्मीद उस वक्त की गई थी, लेकिन इतने बड़े आंदोलन के बावजूद हालात जस के तस बने रहने से एक बात तो साफ हो गई, कि प्रदर्शन करने वाले भी थक चुके हैं। पुलिस की तरह उन्हें भी लगता है, हो हल्ला होगा, कुछ काम करते भी दिखाई देंगे, लेकिन बाद सब कुछ वैसा का वैसा ही हो जाएगा।
निर्भया फंड का क्या किया जा रहा है? महिला सुरक्षा को लेकर जो कानून बनाए गए हैं उनका क्या हो रहा है? इनके गलत इस्तेमाल की खबरें तो आती रहती हैं लेकिन जब महिलाओं की जमीनी सुरक्षा की बात सामने आती है तो बुलंद शहर जैसे मामले सामने आ जाते हैं। ये मामले चुनाव के आस पास सामने आएं तब तो इसका जमकर सियासी इस्तेमाल भी होता ही है। महिलाओं की इज्जत या तो लुटेरों के हाथ में या फिर चुनावी जुमले बाजी करने वाले नेताओं के हाथ में।
ये बात आजम खान की आंखे खुलने भर की नहीं है। ये बात सभी की आंखे खुलने की है और विश्वास जानिए बुलंद शहर में एक मां और बेटी के साथ जो हुआ उसकी वीभत्सता और उसके डर को हर पिता, हर बहन, हर मां और हर बेटी महसूस कर रही होगी। बुलंदशहर के अंधेरे में डूबे हाइवे को छोड़िए, क्या आज दिल्ली में महिलाएं रात में सड़क पर निकलने में सुरक्षित महसूस करती हैं? पुलिस रिफॉर्म की बातें होती रहती हैं लेकिन पुलिस की वैन को देखकर आज भी आम आदमी राहत महसूस करने के बजाए डर क्यूं महसूस करता है? क्या घटनाओं के बाद माथा पच्ची करने से कोई फायदा है? घटनाएं रोकने के लिए क्या किया जा रहा है? क्या ऐसी घटनाओं के लिए स्थानीय पुलिस और प्रशासन की और गंभीर जिम्मेदारी तय नहीं होनी चाहिए? खुले आम घूमते लुटेरों पर नकेल नहीं कस पाने वाली पुलिस को भी क्या अपराध में बराबर का भागीदार नहीं माना जाना चाहिए? क्या आजम खान और सिंह जैसे लोगों पर भी तुरंत कार्रवाई नहीं होनी चाहिए जो रेप पीड़ितों की अपने बयानों से दोबारा धज्जियां उड़ा देते हैं।
सवाल तो बहुत हैं और कोई ये सवाल नए भी नहीं हैं, लेकिन इनके जवाबों के लिए अभी बहुत इंतजार करना होगा। जवाब ढूंढना बहुत मुश्किल नहीं है, लेकिन राजनैतिक दलों में आपसी खींचतान इस मामले पर तब तक गंभीर चिंतन नहीं होने देगी, जब तक वो राजनैतिक हितों से ऊपर उठकर इसे सचमुच अपने परिवार की महिलाओं से जुड़ा मुद्दा नहीं मानते। आई.पी सिंह का बयान निश्चित ही निंदनीय है, लेकिन एक बात सही है कि सचमुच इस पर राजनीति करने वालों को अपने परिवार की महिलाओं और हादसे का शिकार हुई महिलाओं में फर्क करना बंद करना होगा। जहां तक इनकी बयानबाजी का सवाल है, तो ये भी महिलाओं के सम्मान का रेप करने जैसे ही हैं।