कांग्रेस का घोषणा पत्र अवसर से चूक जाने का दस्तावेज

कांग्रेस का घोषणा पत्र देखें तो पहली नजर में यह मानने में कोई हिचक नहीं है कि इसमें परिश्रम किया गया है। घोषणा पत्र की जगह 'हम निभाएंगे' शीर्षक दिया गया है। चुनावी घोषणा पत्र के बारे में आम जन धारणा यही है कि पार्टियां लोगों को लुभाने के लिए बहुत सारे वादे कर देती हैं जिनको सरकार में जाने पर लागू करना कठिन होता है।
 
कांग्रेस की कोशिश है कि मतदाता यह मानें कि कांग्रेस जो कह रही है, उसे पूरा करेगी। दूसरे, कांग्रेस लगातार यह प्रचारित करने की कोशिश कर रही है कि भाजपा ने 2014 में जो घोषणा पत्र जारी किया, सरकार में आने पर उसे लागू नहीं किया है, तो यह अपने को भाजपा से अलग साबित करने की भी कोशिश है। हालांकि मतदाता इसे इसी रूप में लेंगे कहना कठिन है, क्योंकि जिन लोगों ने भाजपा का 2014 का घोषणा पत्र देखा है और मोदी सरकार के कामकाज पर नजर रखा है कि उनके लिए वही सच नहीं है, जो कांग्रेस बोल रही है।
 
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने घोषणा पत्र जारी करते हुए अपनी आरंभिक टिप्पणी में कहा कि हमने 1 वर्ष पहले जब यह प्रक्रिया आरंभ की तो दो निर्देश दिए। एक, यह बंद कमरे का दस्तावेज न हो और इसमें लोगों का विजन होना चाहिए यानी यह ऐसा हो जिसे हम कर सकें। दूसरे, इसमें सब कुछ सच होना चाहिए यानी एक भी झूठ नहीं हो। तो क्या वाकई इसे 1 वर्ष के परिश्रम के अनुरूप उच्च कोटि और बेहतरी का विश्वास दिलाने वाले सच यानी व्यावहारिक घोषणाओं का दस्तावेज माना जाए?
 
राहुल गांधी ने कहा कि इस घोषणा पत्र के 5 थीम हैं। ये हैं- न्याय योजना, रोजगार, किसान, शिक्षा एवं स्वास्थ्य तथा सुरक्षा। इनमें सुरक्षा छोड़कर शेष की एकसाथ चर्चा करनी होगी, क्योंकि ये सब सीधे अर्थव्यवस्था और वित्तीय स्थिति से जुड़े हैं। कांग्रेस की कोशिश न्याय योजना को चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बनाने की है।
 
राहुल गांधी ने कहा भी कि चुनावी नैरेटिव सेट हो चुका है- गरीबी पर मार, 72 हजार। उन्हें लगता है कि अगर भारत की 20 प्रतिशत आबादी तक यह बात पहुंचा दी गई कि कांग्रेस सरकार में आने के बाद उनके खाते में हर वर्ष 72 हजार रुपया डाल देगी तो इनका वोट उनको मिल जाएगा। इस पर काफी विशेषज्ञों के मत आ गए हैं जिन्होंने इसे अव्यावहारिक ही नहीं, कई मायनों में गैरजरूरी बताया है। इसे साकार करने के साथ राशि काफी बढ़ जाने वाली है।
 
घोषणा पत्र के दूसरे वादों के साथ जोड़ते हैं तो अनेक प्रश्न खड़े होते हैं। जब आप ज्यादा रोजगार देने की बात करते हैं, रोजगार कार्यक्रमों में आवंटन बढ़ाते हैं, किसानों की कर्जमाफी का वादा करते हैं, बैंकों को फंसे कर्ज वापस लेने की कार्रवाई को बाधित करते हैं, शिक्षा और स्वास्थ्य का बजट बढ़ाते हैं तथा किसी योजना को बंद नहीं करते बल्कि उनकी राशि बढ़ाए जाने का संदेश देते हैं, तो इसके पूर्ण व्यावहारिक होने को लेकर संदेह पैदा होता ही है।
 
रोजगार के क्षेत्र में पहली घोषणा 22 लाख सरकारी पदों को मार्च 2020 तक भर देना है। इसके साथ 10 लाख युवाओं को पंचायतों में नौकरी देने की बात है। दूसरे, मनरेगा में 100 दिनों की जगह 150 दिन रोजगार की गारंटी है। इस समय मनरेगा का बजट है 60 हजार करोड़। इसे डेढ़ गुणा यानी 90 हजार करोड़ रुपया करना होगा। तीसरे, शिक्षा पर बजट सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत खर्च करने का वादा है। चौथे, स्वास्थ्य सेवाओं में पूरी जिम्मेवारी सरकार के सिर लेने की बात है। इसके लिए भारी संख्या में अस्पतालों की संख्या ही नहीं बढ़ानी होगी, उनको उच्च कोटि का गुणवत्तापूर्ण भी बनाना होगा। इन सब पर कितना बड़ा खर्च आएगा इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता।
 
जीएसटी में बदलाव से कितना अतिरिक्त धन आएगा इसका आकड़ा नहीं है इसलिए ये वादे कानों में मधुर संगीत की तरह जरूर गूंजते हैं। इनका इसी रूप में साकार हो जाना असंभव है। 10 महीने से कम समय में सरकार द्वारा 32 लाख नौकरियां दे देना विश्व के लिए भी रिकॉर्ड होगा। रोजगार और कर संग्रह के बारे में यह भी माना गया है कि संपूर्ण अर्थव्यस्था में सुधार से राजस्व ज्यादा आएगा एवं रोजगार के अवसर वैसे ही बढ़ जाएंगे।
 
कोई उद्यम खड़ा करने के बाद 3 वर्ष तक किसी तरह की पूर्व अनुमति की आवश्यकता खत्म करने का वादा है। बिना किसी पूर्व अनुमति के उद्यम आरंभ करने के लिए भी नियम बनाने होंगे। बैंकों के कर्ज देने के नियम से लेकर अनेक कानूनों में बदलाव की जरूरत होगी। पर्यावरण क्लीयरेंस का प्रावधान खत्म करना होगा।
 
अब आइए किसानों पर। एक अलग किसान बजट का वादा आकर्षक है। हां, वाकई इसकी आवश्यकता है इस पर एक राय कठिन है। हालांकि राहुल गांधी के पूर्व प्रचारों के विपरीत इसमें केंद्र द्वारा एकमुश्त कर्जमाफी से बचा गया है। कहा गया है कि कांग्रेस अन्य राज्यों में भी कृषि ऋण माफ करने का वादा करती है। राज्यों को केंद्र सरकार किसानों की कर्जमाफी के लिए कैसे तैयार करेगी, यह प्रश्न भी अनुत्तरित है।
 
यह ऐसी घोषणा है जिसका भविष्य हम कांग्रेस के पूर्व रिकॉर्ड में देख सकते हैं। मसलन 2008 में किसान कर्जमाफी के नाम पर केवल 52 हजार 280 करोड़ माफ किया जाना तथा 3 राज्यों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान में वादे के अनुरूप सभी किसानों के सारे ऋण को माफ न किया जाना। इसमें दूसरी मुख्य बात है, कर्जदार किसानों के मामलों को अपराध की जगह सिविल बना दिया जाना।
 
अक्षम किसानों को राहत समझ में आती है। हालांकि इस पर भी बहुत गहराई से विमर्श की आवश्यकता है। बैंक केवल कर्ज दें और जो जान-बूझकर लौटाने से बचे उसके खिलाफ अपराध कानूनों तहत कार्रवाई न हो, तो इससे नई समस्याएं भी खड़ी होंगी। स्वास्थ्य में निजी क्षेत्र को प्रात्साहित करना कांग्रेसी सरकारों की नीतियां रही हैं। उससे वापस लौटने की नौबत क्यों आ गई? क्या वाकई भारत जैसे देश में सबको उचित उपचार देने की जिम्मेवारी सरकारी अस्पताल उठा सकते हैं? यह कतई संभव नहीं।
 
जहां तक सुरक्षा का प्रश्न है तो बहुत अच्छे सिद्धांत वक्तव्य है किंतु कानून, नियमों और विनियमों की पुनःपरख वाले पृष्ठ पर देशद्रोह के आरोपियों पर लागू होने वाली धारा 124 ए को खत्म करने का वादा है। भारत में प्रत्यक्ष हिंसा से अलग रहते हुए राष्ट्रविरोधी अलगाववाद से हिंसा व आतंकवाद को बढ़ाने तथा माओवाद को मदद करने सहित ऐसे कई खतरे हैं जिनको देखते हुए सहसा इसे खत्म किए जाने का समर्थन करना कठिन है। सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून या अफस्पा में से कई प्रावधानों को बाहर करना तो चौंकाता है।
 
जब तक कोई क्षेत्र आतंकवाद और हिंसा से ग्रस्त है और सुरक्षा कार्रवाई की स्थायी जरूरत है, वहां सुरक्षा बलों को विशेषाधिकार कायम रहना अपरिहार्य है। कांग्रेस की घोषणा इसके विपरीत डरावना संकेत देने वाला है। जम्मू-कश्मीर में अफस्पा की समीक्षा का अर्थ क्या है? बिना शर्त बातचीत भी पहले हो चुकी है। यह पुरानी हार्डडिस्क की फाइल खोलने के समान ही है। अनेक ऐसे वादे हैं, जो लगता ही नहीं कि इन्हें कांग्रेस पार्टी की ओर से सामने लाया गया है। इसमें जिस तरह अलगाववाद आदि कई मामलों को अपराध से बाहर रखने की बात है, वह भी चिंता करती है।
 
इसलिए भले घोषणा पत्र तैयार करने के पूर्व सोच-विचार की व्यापक प्रक्रिया हुई है, ऐसा लगता नहीं कि ये लंबे समय तक राज करने वाली पार्टी की घोषणाएं हैं। चिदंबरम ने कहा कि घोषणा पत्र का आर्थिक पक्ष धन और कल्याण जैसे दो व्यवहारों पर टिका है। हम धन पैदा करेंगे एवं कल्याण की गारंटी देंगे। घोषणा पत्र से ऐसे संतुलन की ध्वनि बिलकुल नहीं निकलती। भारी मात्रा में धन सृजन की संभावना दिखाई नहीं ही देती, जो वादे हैं वे राजकोष की परिधि से काफी बाहर के हैं।
 
सुरक्षा को सशक्त करने की घोषणा के विपरीत कानूनों को खत्म करने या बदलाव लाने का वादा तो सुरक्षा विशेषज्ञों की समझ से ही परे है। यह भी ध्यान रखिए कि राफेल को भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा मुद्दा बनाने वाली कांग्रेस ने 32वें पृष्ठ में यह कहकर निपटा दिया है कि राफेल सहित पिछले 5 साल में भाजपा सरकार द्वारा किए गए सौदों की जांच की जाएगी। क्या कभी ऐसा हुआ है कि आने वाली सरकार ने पूर्व सरकार के सारे सौदे की जांच की हो?
 
अगर आप मानते हैं कि राफेल में भ्रष्टाचार हुआ है तो इसके बारे में अलग से घोषणा करनी चाहिए थी। चूंकि आपने इसे इतना फैला दिया है कि बिलकुल चुप हो जाने पर प्रश्न खड़ा होगा इसलिए एक पंक्ति में औपचारिकता पूरी की गई है। व्यापक विमर्श के बाद ऐसा व्यावहारिक घोषणा पत्र निकलकर आना चाहिए था, जो वाकई अन्य पार्टियों के लिए एक मॉडल बन जाता तथा देश की चिंता करने वालों के लिए भी यह भारत के विजन का दस्तावेज बनता। ऐसा नहीं है तो मानना पड़ेगा कि कांग्रेस अवसर का समुचित उपयोग करने में चूकी है।

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