आर्थिक प्रतिबंधों की प्रभावशीलता पर प्रश्नचिन्ह

शरद सिंगी

शनिवार, 18 फ़रवरी 2017 (19:31 IST)
आधुनिक विश्व में समर्थ राष्ट्र अपने कूटनीतिक उद्देश्यों या वैश्विक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति अथवा किसी उद्दंड राष्ट्र को सबक सिखाने के उद्देश्य से सैन्यबल का उपयोग करने में कतराने लगे हैं। उन्हें अच्छी तरह से समझ में आ गया है कि युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है और इसीलिए इन महाशक्तियों का झुकाव सैन्य शक्ति के उपयोग से हटकर आर्थिक प्रतिबंधों के इस्तेमाल की ओर हो गया है। 
 
आर्थिक प्रतिबंधों का अर्थ है किसी देश के विरुद्ध व्यापार पर बंदिशें, विभिन्न अंतरराष्ट्रीय शुल्कों में बढ़ोतरी, बैंकों के माध्यम से होने वाले वित्तीय लेन-देन पर रोक, कंपनी और व्यक्तिगत खातों को सील करना आदि यानी प्रकारांतर से उस देश की वित्तीय अर्थव्यवस्था को भंग करने की कोशिश की जाती है।
 
यह नव-विकसित अस्त्र कितना प्रभावी रहा, इसी पर आधारित है हमारा आज का यह लेख। 
 
शायद आपको स्मरण होगा कि अटल सरकार के दौरान हुए परमाणु परीक्षण के बाद भारत पर भी विश्व के कई देशों ने आर्थिक प्रतिबंधों की घोषणा की थी किंतु प्रतिबंधों का यह समय कब गुजर गया, भारत की जनता को मालूम ही नहीं पड़ा और न ही भारत की आर्थिक प्रगति की रफ्तार में कोई परिवर्तन लक्षित हुआ। 
 
सच तो यह है कि भारत की जितनी भी आर्थिक हानि हुई, शायद उससे अधिक हानि उन विकसित देशों की ही हुई जिन्होंने प्रतिबंध तो लगा दिए किंतु परिणाम में अपना ही माल भारत के बाजारों में खपाने से वे वंचित रह गए। भारत की जनता ने भी सरकार के परमाणु परीक्षण के निर्णय का भरपूर स्वागत किया, विरोध नहीं। 
 
भारत के तुरंत बाद पाकिस्तान ने भी परमाणु परीक्षण किया और भारत की तरह ही पाकिस्तान पर भी आर्थिक प्रतिबंधों की घोषणा हुई। पाकिस्तान के खस्ता आर्थिक हालातों में भी ये प्रतिबंध कुछ विशेष प्रभाव नहीं डाल पाए। खस्ता हालात और कितनी खस्ता हो पाती? बावजूद इसके, पाकिस्तान की जनता का समर्थन पाकिस्तानी सरकार को प्राप्त रहा। 
 
इधर यदि हम ईरान का उदाहरण लें तो पिछले 3 दशकों से प्रतिबंधों की मार झेल रहे ईरान की आर्थिक कमर तो पूरी तरह टूट गई किंतु अकड़ में कोई कमी नहीं आई। बहुत कोशिशों के बाद अमेरिका के नेतृत्व में ईरान के साथ एक परमाणु करार तो हुआ किंतु इस समझौते को आलोचकों ने एक बहुत ही कमजोर समझौता घोषित कर दिया जिसमें विश्व की महाशक्तियों को कई मामलों में ईरान की मांगों के समक्ष झुकना पड़ा। 
 
उधर जब रूस द्वारा क्रीमिया को हड़प कर लिया गया तब रूस को सबक सिखाने के उद्देश्य से पश्चिमी देशों ने रूस पर कड़े आर्थिक प्रतिबंधों की घोषणा कर दी। कारण, रूस के साथ लड़ाई तो संभव थी ही नहीं। एक बार फिर महाशक्तियां आमने-सामने थीं किंतु इस लड़ाई में आयुधों का इस्तेमाल नहीं था। 
 
इन प्रतिबंधों ने रूस की गिरती अर्थव्यवस्था पर दबाव तो निश्चित ही बनाया, परंतु राजनीतिक दृष्टि से पुतिन को और अधिक मजबूत कर दिया। जनता में राष्ट्रीय भावना जाग गई और सब अपनी सरकार के पीछे हो लिए। रूस ने भी प्रत्युत्तर में उन देशों से खाद्य पदार्थों के आयात पर प्रतिबंध लगा दिए जिन्होंने रूस पर प्रतिबंध लगा दिए थे।
 
रूस पर पश्चिमी देशों के प्रतिबंध ने चीनी सरकार और चीनी कंपनियों को रूसी बाजार में घुसने का मौका दे दिया और पश्चिमी देशों की कंपनियों के हाथ से बाजार फिसल गया। इस प्रकार अधिक नुकसान पश्चिमी देशों का ही हुआ, क्योंकि वे रूस को झुका तो नहीं पाए अलबत्ता पुतिन को मजबूत ही किया और उसे चीन के साथ मैत्री बढ़ाने का अवसर दिया। इस तरह किसी महाशक्ति पर प्रतिबंध लगाना अपने स्वयं के हितों पर कुठाराघात करने के समान साबित हुआ। 
 
दूसरी तरफ, उत्तरी कोरिया द्वारा किए गए हर परमाणु परीक्षण और मिसाइल परीक्षण के बाद विश्व के प्रतिबंध कड़े होते गए लेकिन उत्तरी कोरिया की शैतानियों को कोई प्रतिबंध रोक नहीं पाया। पिछले सप्ताह ही उसने निडरता के साथ 500 किमी तक मार करने वाली मिसाइल का परिक्षण कर विश्व को हैरत और परेशानी में डाल दिया। 
 
एक शोध के अनुसार अधिक समय तक चलने वाले आर्थिक प्रतिबंध किसी राष्ट्र को स्वावलंबी बनने की ओर भी अग्रसर करते हैं। लंबी अवधि में ये प्रतिबंध देश के लिए लाभप्रद ही सिद्ध होते हैं। अत: जाहिर है आर्थिक प्रतिबंध राजनीतिक समस्याओं के समाधान का विकल्प नहीं बन सके?
 
जैसा कि हमने देखा कि प्रतिबंधों के लगाने से जनता तत्कालीन सरकार के साथ हो जाती है, चाहे फिर वह सरकार या शासक अलोकप्रिय ही क्यों न हो, क्योंकि उस मुद्दे को सरकार या शासक राष्ट्रीय अस्मिता के साथ जोड़ने में सफल हो जाता है। परिणामस्वरूप जनता हर मुश्किलों का सामना करने को तैयार हो जाती है। उत्तरी कोरिया, सीरिया, बर्मा, ईरान, क्यूबा, सूडान, जिम्बाब्वे आदि इनके उदहारण हैं। 
 
इसके विपरीत जहां भी पश्चिमी देशों ने किसी देश को वित्तीय सहायता दी है, जैसे मिस्र, ट्यूनीशिया आदि वहां की जनता ने शासकों को उखाड़ फेंका है। वस्तुत: विश्व को अब नए उपायों को खोजने की दरकार है, जो सचमुच प्रभावी सिद्ध हों, विशेषकर उन देशों और शासकों के विरुद्ध, जो मानव-सभ्यता के विकास में अवरोध बने हुए हैं।

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